पांच साल तक वे कॉपीबुक राष्ट्रपति की तरह रहे. इस दौरान उन्होंने दृढ़ता के साथ ऐसी किसी भी बात को टाला जो राष्ट्रपति के पद से राजनीति के जुड़ाव की ओर इशारा करती. हालांकि उन्होंने ऐसे ‘राजनीतिक राष्ट्रपति’ की छवि को बरकरार रखा जो राजमार्गों को जानता है, कानून, प्रक्रियाओं और संविधान की पेचीदगियों को समझता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के साथ 3 साल के कामकाजी रिश्ते पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने बीते रविवार को पहली बार कोई टिप्पणी की. मुखर्जी ने कहा, “दृष्टिकोणों में भिन्नता थी लेकिन दोनों ने उसे खुद तक रखा और करीबी सहयोग में कार्य किया. इससे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बीच के रिश्ते पर कोई असर नहीं पड़ा, यानि बराय नाम के प्रमुख और प्रशासन के वास्तविक प्रमुख के बीच के रिश्ते पर.”
मुखर्जी ने इंगित किया कि ऐसे भी मौके आए जब उन्होंने वित्त मंत्री अरुण जेटली से स्पष्टीकरण मांगे और उन्होंने प्राय: विभिन्न मुद्दों पर सरकारी नजरिए को साफ किया. राष्ट्रपति के मुताबिक जेटली ने अक्सर उन्हें अपनी बातों से संतुष्ट किया जैसे कि एक योग्य और प्रभावी वकील करता है, जो कि वो हैं भी. राष्ट्रपति जिस वक्त ये सब कह रहे थे, उस वक्त जेटली भी वहां मौजूद थे.
राष्ट्रपति ने कहा कि वो विश्वास के साथ दावा कर सकते हैं कि “सरकार के कामकाज में कभी बाधा नहीं आई, कभी ये रुका नहीं और कभी इसमें विलंब नहीं हुआ.”
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की ये दो टिप्पणियां ही बताने के लिए काफी है कि रायसीना हिल में राष्ट्रपति के तौर पर उनका कार्यकाल कैसा रहा. अनावश्यक जोखिम से राष्ट्रपति मुखर्जी ने हमेशा परहेज किया. ऐसे भी कई मुद्दे रहे जिन पर सरकार राष्ट्रपति मुखर्जी को स्पष्टीकरण देने के बाद ही उनके हस्ताक्षर लेने में सफल हो सकी.
26 मई 2014 को जब एनडीए सरकार सत्ता में आई, तब से मार्च 2015 के बीच सरकार 10 अध्यादेश लेकर आई. तब सरकार को राज्यसभा में विपक्ष के बहुमत के बीच अवरोधों का सामना था. हालांकि राष्ट्रपति मुखर्जी ने सरकार के रास्ते में कोई बाधा नहीं खड़ी की लेकिन इस तथ्य से उसे अवगत करा दिया कि अध्यादेश जारी करने में सरकार की सीमित शक्ति है, साथ ही कार्यकारी आदेश सबसे अंतिम विकल्प होना चाहिए.
इसी तरह राष्ट्रपति मुखर्जी के पास मई 2016 में NEET अध्यादेश भेजा गया था, जो राज्यों को खुद की मेडिकल प्रवेश परीक्षाएं कराने का अधिकार देता था. मुखर्जी ने तब अपनी कानूनी टीम, स्वास्थ्य मंत्री जे पी नड्डा, अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी और स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारियों को विमर्श के लिए बुलाया. राष्ट्रपति ने दो दिन का समय लिया. साथ ही सरकार से पूछा कि इतनी जल्दी क्यों है. राष्ट्रपति ने ये भी पूछा कि एक बार अध्यादेश अमल में आ गया तो मौजूदा दाखिला प्रक्रिया का क्या होगा. राष्ट्रपति ने स्वास्थ्य मंत्री से अध्यादेश पर स्थिति साफ करने को कहा. पूछा कि क्यों राज्यों को बाहर रखा गया.
राष्ट्रपति ने वित्त मंत्री अरुण जेटली को बीमा अध्यादेश पर समन किया था. बता दें कि बीमा अध्यादेश को एनडीए सरकार अपने पहले बिग टिकट सुधार के कदम के तौर पर पेश कर रही थी. राष्ट्रपति मुखर्जी ने कुछ महीने बाद जमीन अधिग्रहण बिल के तमाम पहलुओं पर भी सरकार के साथ चर्चा की.
बीते साल दिसंबर में सरकार ने विवादास्पद शत्रु संपत्ति अध्यादेश भेजा क्योंकि इसी मुद्दे पर विधेयक संसदीय समिति में अटक गया था. मुखर्जी ने तब अपने कानूनी विशेषज्ञों की टीम को बुलाया और सरकार से स्पष्टीकरण देने को कहा. उनकी आपत्ति साधारण थी- अध्यादेश एक स्थानापन्न बंदोबस्त है और कार्यकारी आदेश, जिसे संसद की मंजूरी की आवश्यकता है, को पांचवीं बार बढ़ाना संसदीय तंत्र को कमजोर करने जैसा होगा. मुखर्जी के इस रुख पर वित्त मंत्री अरुण जेटली राष्ट्रपति भवन की ओर दौड़े, जैसा कि वे पहले भी कई बार कर चुके थे. जेटली ने स्पष्टीकरण दिा कि अध्यादेश क्यों जरूरी है.
मुखर्जी के करीबी सूत्रों का कहना है कि राष्ट्रपति सैद्धांतिक तौर पर कैबिनेट के फैसलों को सिर्फ सार्वजनिक तौर पर दिखाने के उद्देश्य से वापस करने के पक्ष में नहीं रहे. ऐसी ही एक स्थिति जनवरी 2016 में भी बनी थी. केंद्र सरकार ने राजनीतिक उथलपुथल वाले अरुणाचल प्रदेश राष्ट्रपति शासन लगाने का फैसला किया था. राष्ट्रपति आश्वस्त नहीं थे कि क्यों केंद्र सरकार अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल करना चाहती है. तब केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह राष्ट्रपति मुखर्जी से मिले और इस सिफारिश के कारणों का हवाला दिया. राष्ट्रपति भवन सूत्रों के मुताबिक राष्ट्रपति मुखर्जी जब पूरी तरह संतुष्ट हो गए कि राज्य सांविधानिक संकट का सामना कर रहा है, तभी उन्होंने हस्ताक्षर किए.
यद्यपि राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि राष्ट्रपति मुखर्जी ने बेशक सार्वजनिक तौर पर सरकार के साथ टकराव के क्षण उत्पन्न नहीं होने दिए लेकिन उन्होंने जब भी जरूरत समझी, सही वक्त पर सरकार को दृढ़ता के साथ संदेश दिए. पिछले कुछ महीनों में तीन बार उन्होंने स्पष्ट और निश्चित राय व्यक्त की. कई शैक्षणिक संस्थानों में विरोध प्रदर्शन के दौरान राष्ट्रपति अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में बोले. इसी साल मई में उन्होंने एक स्मृति भाषण के दौरान अपनी पूर्व बॉस इंदिरा गांधी की खुलकर प्रशंसा की. मुखर्जी ने कहा, “वो 20वीं सदी में पूरी दुनिया और भारत के लोगों के लिए असाधारण शख्सियत थी. उनके दुनिया से अलविदा कहने के बाद भी आज तक वो एक लोकतांत्रिक देश की सर्वाधिक स्वीकार्य शासक या प्रधानमंत्री हैं.”
देश में बीते दो वर्ष में भीड़ की ओर से लोगों को पीट पीट कर मार डालने की घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में मुखर्जी ने बीते शनिवार को कहा, “क्या हम इतने सजग हैं कि अपने समय के बुनियादी मूल्यों की रक्षा कर सकें. मैं मानता हूं कि लोगों और मीडिया की सतर्कता अंधेरे और पिछड़ेपन की शक्तियों के खिलाफ सबसे बड़ा प्रतिरोधक साबित हो सकती हैं.” राष्ट्रपति मुखर्जी ने ये भी कहा कि “इस मुद्दे को लेकर किसी के कर्तव्य को कोई मिटा नहीं सकता. आने वाली पीढ़ी हमसे जवाब मांगी कि हमने क्या किया. मैं ये सवाल अपने आप से ही पूछता हूं.”
हालांकि सूत्रों ने ये भी कहा कि प्रणब मुखर्जी भिन्न कार्यशैली वाले प्रधानमंत्री जो दिल्ली के लिए अपेक्षाकृत नए थे, के साथ काम करने के लिए संभवत: सबसे उपर्युक्त राष्ट्रपति थे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात से आने के बाद दिल्ली जल्दी सेटल हो जाने के लिए ‘राष्ट्रपति से मिली मदद’ को श्रेय दिया. सरकार में एक वरिष्ठ मंत्री के मुताबिक राष्ट्रपति मुखर्जी राजनीतिक तौर पर इतने दक्ष हैं, संविधान की आवश्यकताओं को लेकर इतने अवगत हैं, नीतियों को लेकर इतने जानकार हैं कि एनडीए के कई मंत्रियों को राष्ट्रपति भवन जाना हमेशा सुखद लगता. मंत्री ने कहा, “ऐसा कोई मुद्दा नहीं जिससे अतीत में वो निपटे ना हों. ऐसे शख्स जिन्होंने मई 2014 तक यूपीए सरकार के करीब 80 मंत्रिमंडलीय समूहों की अध्यक्षता की. वो संदर्भों के लिए एनसाइक्लोपीडिया जैसे हैं. और सबसे बड़ी बात ऐसा कोई भी नहीं है जिसे जरूरत समझने पर प्रणब दा झिड़क नहीं सकते.”