ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का नेता और ‘राष्ट्रपिता’ माना जाता है। इनका पूरा नाम मोहनदास करमचंद गाँधी था। राजनीतिक और सामाजिक प्रगति की प्राप्ति हेतु अपने अहिंसक विरोध के सिद्धांत के लिए उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई। मोहनदास करमचंद गाँधी भारत एवं भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रमुख राजनीतिक एवं आध्यात्मिक नेता थे। ‘साबरमती आश्रम’ से उनका अटूट रिश्ता था। इस आश्रम से महात्मा गाँधी आजीवन जुड़े रहे, इसीलिए उन्हें ‘साबरमती का संत’ की उपाधि भी मिली।
जन्म तथा पारिवारिक परिचय: महात्मा गाँधी का जन्म 2 अक्तूबर, 1869 ई. को गुजरात के पोरबंदर नामक स्थान पर हुआ था। उनके माता-पिता कट्टर हिन्दू थे। इनके पिता का नाम करमचंद गाँधी था। मोहनदास की माता का नाम पुतलीबाई था, जो करमचंद गाँधी जी की चौथी पत्नी थीं। मोहनदास अपने पिता की चौथी पत्नी की अन्तिम संतान थे। उनके पिता करमचंद (कबा गाँधी) पहले ब्रिटिश शासन के तहत पश्चिमी भारत के गुजरात राज्य में एक छोटी-सी रियासत की राजधानी पोरबंदर के दीवान थे और बाद में क्रमशः राजकोट (काठियावाड़) और वांकानेर में दीवान रहे। करमचंद गाँधी ने बहुत अधिक औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं की थी, लेकिन वह एक कुशल प्रशासक थे और उन्हें सनकी राजकुमारों, उनकी दुःखी प्रजा तथा सत्तासीन कट्टर ब्रिटिश राजनीतिक अधिकारियों के बीच अपना रास्ता निकालना आता था।
बाल्यावस्था, महात्मा गाँधी: गाँधी जी की माँ पुतलीबाई अत्यधिक धार्मिक थीं और भोग-विलास में उनकी ज़्यादा रुचि नहीं थी। उनकी दिनचर्या घर और मन्दिर में बंटी हुई थी। वह नियमित रूप से उपवास रखती थीं और परिवार में किसी के बीमार पड़ने पर उसकी सेवा सुश्रुषा में दिन-रात एक कर देती थीं। मोहनदास का लालन-पालन वैष्णव मत में रमे परिवार में हुआ और उन पर कठिन नीतियों वाले भारतीय धर्म जैन धर्म का गहरा प्रभाव पड़ा, जिसके मुख्य सिद्धांत, अहिंसा एवं विश्व की सभी वस्तुओं को शाश्वत मानना है। इस प्रकार, उन्होंने स्वाभाविक रूप से अहिंसा, शाकाहार, आत्मशुद्धि के लिए उपवास और विभिन्न पंथों को मानने वालों के बीच परस्पर सहिष्णुता को अपनाया।
विवाह: मोहनदास करमचंद जब केवल तेरह वर्ष के थे और स्कूल में पढ़ते थे, पोरबंदर के एक व्यापारी की पुत्री कस्तूरबाई (कस्तूरबा) से उनका विवाह कर दिया गया। वर-वधू की अवस्था लगभग समान थी। दोनों ने 62 वर्ष तक वैवाहिक जीवन बिताया। 1944 ई. में पूना की ब्रिटिश जेल में कस्तूरबा का स्वर्गवास हुआ था। गाँधी जी अठारह वर्ष की आयु में ही एक पुत्र के पिता हो गये थे। गाँधी जी के चार पुत्र हुए जिनके नाम थे:- हरिलाल, मनिलाल, रामदास, देवदास।
युवावस्था: मोहनदास एक औसत विद्यार्थी थे, हालाँकि उन्होंने यदा-कदा पुरस्कार और छात्रवृत्तियाँ भी जीतीं। एक सत्रांत-परीक्षा के परिणाम में – अंग्रेज़ी में अच्छा, अंकगणित में ठीक-ठाक भूगोल में ख़राब, चाल-चलन बहुत अच्छा, लिखावट ख़राब की टिप्पणी की गई थी। वह पढ़ाई व खेल, दोनों में ही प्रखर नहीं थे। बीमार पिता की सेवा करना, घरेलू कामों में माँ का हाथ बंटाना और समय मिलने पर दूर तक अकेले सैर पर निकलना, उन्हें पसंद था। उन्हीं के शब्दों में उन्होंने ‘बड़ों की आज्ञा का पालन करना सीखा, उनमें मीनमेख निकालना नहीं।’ वह किशोरावस्था के विद्रोही दौर से भी गुज़रे, जिसमें गुप्त नास्तिकवाद, छोटी-मोटी चोरियाँ, छिपकर धूम्रपान और वैष्णव परिवार में जन्मे किसी लड़के के लिए सबसे ज़्यादा चौंकाने वाली बात – माँस खाना शामिल था। उनकी किशोरावस्था उनकी आयु और वर्ग के अधिकांश बच्चों से अधिक हलचल भरी नहीं थी। उनकी युवावस्था की नादानियों का अन्तिम बिन्दु असाधारण था। हर ऐसी नादानी के बाद वह स्वयं वादा करते ‘फिर कभी ऐसा नहीं करूँगा’ और अपने वादे पर अटल रहते। उनमें आत्मसुधार की लौ जलती रहती थी, जिसके कारण उन्होंने सच्चाई और बलिदान के प्रतीक प्रह्लाद और हरिश्चंद्र जैसे पौराणिक हिन्दू नायकों को सजीव आदर्श के रूप में ग्रहण किया।
शिक्षा: 1887 में मोहनदास ने जैसे-तैसे ‘बंबई यूनिवर्सिटी’ की मैट्रिक की परीक्षा पास की और भावनगर स्थित ‘सामलदास कॉलेज’ में दाख़िला लिया। अचानक गुजराती से अंग्रेज़ी भाषा में जाने से उन्हें व्याख्यानों को समझने में कुछ दिक्कत होने लगी। इस बीच उनके परिवार में उनके भविष्य को लेकर चर्चा चल रही थी। अगर निर्णय उन पर छोड़ा जाता, तो वह डॉक्टर बनना चाहते थे। लेकिन वैष्णव परिवार में चीरफ़ाड़ के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रह के अलावा यह भी स्पष्ट था कि यदि उन्हें गुजरात के किसी राजघराने में उच्च पद प्राप्त करने की पारिवारिक परम्परा निभानी है, तो उन्हें बैरिस्टर बनना पड़ेगा। इसका अर्थ था इंग्लैंड यात्रा और गाँधी ने, जिनका ‘सामलदास कॉलेज’ में ख़ास मन नहीं लग रहा था, इस प्रस्ताव को सहर्ष ही स्वीकार कर लिया। उनके युवा मन में इंग्लैंड की छवि ‘दार्शनिकों और कवियों की भूमि, सम्पूर्ण सभ्यता के केन्द्र’ के रूप में थी। सितंबर 1888 में वह पानी के जहाज़ पर सवार हुए। वहाँ पहुँचने के 10 दिन बाद वह लंदन के चार क़ानून महाविद्यालय में से एक ‘इनर टेंपल’ में दाख़िल हो गए।
अफ़्रीका में गाँधी: डरबन न्यायालय में यूरोपीय मजिस्ट्रेट ने उन्हें पगड़ी उतारने के लिए कहा, उन्होंने इन्कार कर दिया और न्यायालय से बाहर चले गए। कुछ दिनों के बाद प्रिटोरिया जाते समय उन्हें रेलवे के प्रथम श्रेणी के डिब्बे से बाहर फेंक दिया गया और उन्होंने स्टेशन पर ठिठुरते हुए रात बिताई। यात्रा के अगले चरण में उन्हें एक घोड़ागाड़ी के चालक से पिटना पड़ा, क्योंकि यूरोपीय यात्री को जगह देकर पायदान पर यात्रा करने से उन्होंने इन्कार कर दिया था, और अन्ततः ‘सिर्फ़ यूरोपीय लोगों के लिए’ सुरक्षित होटलों में उनके जाने पर रोक लगा दी गई। नटाल में भारतीय व्यापारियों और श्रमिकों के लिए ये अपमान दैनिक जीवन का हिस्सा था। जो नया था, वह गाँधी का अनुभव न होकर उनकी प्रतिक्रिया थी। अब तक वह हठधर्मिता और उग्रता के पक्ष में नहीं थे, लेकिन जब उन्हें अनपेक्षित अपमानों से गुज़रना पड़ा, तो उनमें कुछ बदलाव आया।
सत्याग्रह: 1906 में टांसवाल सरकार ने दक्षिण अफ़्रीका की भारतीय जनता के पंजीकरण के लिए विशेष रूप से अपमानजनक अध्यादेश जारी किया। भारतीयों ने सितंबर 1906 में जोहेन्सबर्ग में गाँधी के नेतृत्व में एक विरोध जनसभा का आयोजन किया और इस अध्यादेश के उल्लंघन तथा इसके परिणामस्वरूप दंड भुगतने की शपथ ली। इस प्रकार सत्याग्रह का जन्म हुआ, जो वेदना पहुँचाने के बजाय उन्हें झेलने, विद्वेषहीन प्रतिरोध करने और बिना हिंसा के उससे लड़ने की नई तकनीक थी।
सत्याग्रह आन्दोलन: प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन के प्रयासों, यहाँ तक कि भारत की ब्रिटिश फ़ौज में सिपाहियों की भर्ती का भी समर्थन किया। साथ ही वह ब्रिटिश अधिकारियों की उद्दंडता भरी हरकतों की आलोचना भी करते थे तथा उन्होंने बिहार व गुजरात के किसानों के उत्पीड़न का मामला भी उठाया। फ़रवरी 1919 में रॉलेक्ट एक्ट पर, जिसके तहत किसी भी व्यक्ति को बिना मुक़दमा चलाए जेल भेजने का प्रावधान था, उन्होंने अंग्रेज़ों का विरोध किया। गाँधी जी ने सत्याग्रह आन्दोलन की घोषणा की।राजनीतिक भूचाल आया, जिसने 1919 के बसंत में समूचे उपमहाद्वीप को झकझोर दिया। हिंसा भड़क उठी, जिसके बाद ब्रिटिश नेतृत्व में सैनिकों ने अमृतसर में जलियांवाला बाग़ की एक सभा में शामिल लोगों पर गोलियाँ बरसाकर लगभग 400 भारतीयों का मार डाला और मार्शल लॉ लगा दिया गया। इसने गाँधी जी को अपना रुख़ बदलने के लिए प्रेरित किया, लेकिन एक साल के भीतर ही वह एक बार फिर उग्र तेवर में आ गए। उनका कहना था कि ब्रिटिश अदालतों तथा स्कूल और कॉलेजों का बहिष्कार करें तथा सरकार के साथ असहयोग करके उसे पूरी तरह अपंग बना दें।
गाँधी जी ने वर्ष 1917-1918 के दौरान बिहार के चम्पारण नामक स्थान के खेतों में पहली बार भारत में सत्याग्रह का प्रयोग किया। यहाँ अकाल के समय ग़रीब किसानों को अपने जीवित रहने के लिए जरूरी खाद्य फ़सलें उगाने के स्थान पर नील की खेती करने के लिए ज़ोर डाला जा रहा था। उन्हें अपनी पैदावार का कम मूल्य दिया जा रहा था और उन पर भारी करों का दबाव था। गाँधी जी ने उस गांव का विस्तृत अध्ययन किया और जमींदारों के विरुद्ध विरोध का आयोजन किया, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उनके कारावास में डाले जाने के बाद और अधिक प्रदर्शन किए गए। जल्दी ही गाँधी जी को छोड़ दिया गया और जमींदारों ने किसानों के पक्ष में एक करारनामे पर हस्ताक्षर किए, जिससे उनकी स्थिति में सुधार आया।
मैं तो एक ऐसे राष्ट्रपति की कल्पना करता हूँ जो नाई या मोची का धन्धा करके अपना निर्वाह करता हो और साथ ही राष्ट्र की बागडोर भी अपने हाथों में थामे हुए हो। -महात्मा गाँधी इस सफलता से प्रेरणा लेकर महात्मा गाँधी ने भारतीय स्वतंत्रता के लिए किए जाने वाले अन्य अभियानों में सत्याग्रह और अहिंसा के विरोध जारी रखे, जैसे कि ‘असहयोग आंदोलन’, ‘नागरिक अवज्ञा आंदोलन’, ‘दांडी यात्रा’ तथा ‘भारत छोड़ो आंदोलन’, गाँधी जी के प्रयासों से अंत में भारत को 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता मिली।
रॉलेक्ट एक्ट क़ानून: गाँधी जी के इस आह्वान पर रॉलेक्ट एक्ट क़ानून के विरोध में बम्बई तथा देश के सभी प्रमुख नगरों में 30 मार्च 1919 को और 6 अप्रैल 1919 को हड़ताल हुई। हड़ताल के दिन सभी शहरों का जीवन ठप्प हो गया। व्यापार बंद रहा और अंग्रेज़अफ़सर असहाय से देखते रहे। इस हड़ताल ने असहयोग के हथियार की शक्ति पूरी तरह प्रकट कर दी। सन् 1920 में गाँधी जी कांग्रेस के नेता बन गये और उनके निर्देश और उनकी प्रेरणा से हज़ारों भारतीयों ने ब्रिटिश सरकार के साथ पूर्ण सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया। हज़ारों असहयोगियों को ब्रिटिश जेलों में ठूँस दिया गया और लाखों लोगों पर सरकारी अधिकारियों ने बर्बर अत्याचार किये।
ब्रिटिश सरकार के इस दमनचक्र के कारण लोग अहिंसक न रह सके और कई स्थानों पर हिंसा भड़क उठी। हिंसा का इस तरह भड़क उठना गाँधी जी को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने स्वीकार किया कि अहिंसा के अनुशासन में बाँधे बिना लोगों को असहयोग आंदोलन के लिए प्रेरित कर उन्होंने ‘हिमालय जैसी भूल की है’ और यह सोचकर उन्होंने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। अहिंसक असहयोग आंदोलन के फलस्वरूप जिस स्वराज्य को गाँधी जी ने एक वर्ष के अंदर लाने का वादा किया था, वह नहीं आ सका। फिर भी लोग आंदोलन की विफलता की ओर ध्यान नहीं देना चाहते थे, क्योंकि असलियत में देखा जाए तो इस अहिंसक असहयोग आंदोलन को जबरदस्त सफलता हासिल हुई। उसने भारतीयों के मन से ब्रिटिश तोपों, संगीनों और जेलों का ख़ौफ़ निकालकर उन्हें निडर बना दिया, जिससे भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिल गयी। भारत में ब्रिटिश शासन के दिन अब इने-गिने रह गये। फिर भी अभी संघर्ष कठिन और लम्बा था। सन् 1922 में गाँधी जी को राजद्रोह के अभियोग में गिरफ़्तार कर लिया गया। उन पर मुक़दमा चलाया गया और एक मधुरभाषी ब्रिटिश जज ने उन्हें छः वर्ष की क़ैद की सज़ा दी। सन् 1924 में अपेंडिसाइटिस की बीमारी की वजह से उन्हें रिहा कर दिया गया।
असहयोग आंदोलन: असहयोग आन्दोलन का संचालन स्वराज की माँग को लेकर किया गया। इसका उद्देश्य सरकार के साथ सहयोग न करके कार्यवाही में बाधा उपस्थित करना था। असहयोग आंदोलन गांधी जी ने 1 अगस्त, 1920 को आरम्भ किया। फ़रवरी 1922 में असहयोग आन्दोलन ज़ोर पकड़ता प्रतीत हुआ, लेकिन पूर्वी भारत के दूरदराज़ के एक गाँव चौरी चौरा में हिंसा भड़कने से चिन्तित गांधी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन वापस ले लिया। 10 मार्च 1922 को गांधी को गिरफ़्तार कर लिया गया और उन्हें छः वर्षों के कारावास की सज़ा हुई। अपेंडिसाइटिस के आपरेशन के बाद फ़रवरी 1924 में उन्हें रिहा कर दिया गया। उनकी अनुपस्थिति में राजनीतिक परिदृश्य बदल चुका था। कांग्रेस पार्टी दो भागों में विभक्त हो चुकी थी। एक चित्तरंजन दास और मोतीलाल नेहरू[1] के नेतृत्व में था, जो विधायिकाओं में पार्टी के प्रवेश के समर्थक थे और दूसरा सी. राजगोपालाचारी और वल्लभभाई झवेरभाई पटेल का था, जो इसके विरोधी थे। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह हुई कि 1920-1922 के दौरान असहयोग आन्दोलन में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच मौजूद एकता ख़त्म हो चुकी थी। गांधी ने दोनों समुदायों का समझा-बुझाकर उन्हें शंकाओं तथा कट्टरवाद के घेरे से बाहर निकालने का प्रयास किया। अंततः एक गम्भीर साम्प्रदायिक हिंसा के बाद 1924 के पतझड़ में उन्होंने तीन सप्ताह का उपवास किया, ताकि लोगों को अहिंसा के मार्ग पर चलने को प्रेरित किया जा सके।
कांग्रेस की सदस्यता से इस्तीफ़ा: 1934 में गाँधी जी ने न सिर्फ़ कांग्रेस के नेता के पद से, बल्कि पार्टी की सदस्यता से भी इस्तीफ़ा दे दिया। उनका मानना था कि पार्टी के अग्रणी सदस्यों ने सिर्फ़ राजनीतिक कारणों से अहिंसा को अपनाया है। राजनीतिक गतिविधियों के स्थान पर अब उन्होंने ‘रचनात्मक कार्यक्रमों’ के ज़रिये ‘सबसे निचले स्तर से’ राष्ट्र के निर्माण पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। उन्होंने ग्रामीण भारत को, जो देश की आबादी का 85 प्रतिशत था, शिक्षित करने, छुआछूत के ख़िलाफ़ लड़ाई जारी रखने, हाथ से कातने, बुनने और अन्य कुटीर उद्योगों के अर्द्ध बेरोज़गार किसानों की आय में इज़ाफ़ा करने के लिए बढ़ावा देने और लोगों की आवश्यकताओं के अनुकूल शिक्षा प्रणाली बनाने का काम शुरू किया। स्वयं गाँधी जी मध्य भारत के एक गाँव सेवाग्राम में रहने चले गए, जो सामाजिक और आर्थिक विकास के उनके कार्यक्रमों का केन्द्र बना।
अन्तिम चरण: दूसरा विश्व युद्ध शुरू होने के साथ ही भारत का राष्ट्रवादी संघर्ष अपने अन्तिम महत्त्वपूर्ण चरण में प्रवेश कर गया। भारतीय स्वशासन का आश्वासन दिए जाने की शर्त पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस युद्ध में अंग्रेज़ों का साथ देने को तैयार थी। एक बार फिर गाँधी जी राजनीतिक रूप से सक्रिय हो गए। 1942 के ग्रीष्म में गाँधी जी ने अंग्रेज़ों से तत्काल भारत छोड़ने की माँग की। फ़ासीवादी शक्तियों (एक्सिस), विशेषकर जापान के ख़िलाफ़ युद्ध महत्त्वपूर्ण चरण में था। अंग्रेज़ों ने तुरन्त ही प्रतिक्रिया दिखाई और कांग्रेस के समूचे नेतृत्व को गिरफ़्तार कर लिया और पार्टी को हमेशा के लिए कुचल देने का प्रयास किया। इसके फलस्वरूप हिंसा भड़क उठी, जिसे सख़्ती से दबा दिया गया। भारत और ब्रिटेन के बीच की दूरी पहले से भी कहीं अधिक बढ़ गई।
1945 में लेबर पार्टी की जीत के साथ ही भारत-ब्रिटेन के सम्बन्धों में एक नए अध्याय की शुरुआत हुई। अगले दो वर्ष के दौरान ब्रिटिश सरकार मुस्लिम लीग के नेता एम. ए. जिन्ना और कांग्रेस पार्टी के नेताओं के बीच लम्बी त्रिपक्षीय वार्ताएँ हुईं, जिसके फलस्वरूप 3 जून, 1947 को माउंटबेटन योजना तैयार हुई और 15 अगस्त, 1947 को दो नए राष्टों, भारत व पाकिस्तान का निर्माण हुआ।
राष्ट्रों की प्रगति क्रमिक विकास और क्रान्ति दोनों तरीक़ों से हुई है। क्रमिक विकास और क्रान्ति दोनों ही समान रूप से ज़रूरी हैं। -महात्मा गाँधी
भारत की अखण्डता के बिना देश का स्वतंत्र होना गाँधी जी के जीवन की सबसे बड़ी निराशाओं में से एक था। जब गाँधी तथा उनके सहयोगी जेल में थे, तो मुस्लिम अलगाववाद को काफ़ी बढ़ावा मिला और 1946-1947 में, जब संवैधानिक व्यवस्थाओं पर अन्तिम दौर की बातचीत चल रही थी, हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच भड़की साम्प्रदायिक हिंसा ने ऐसा अप्रिय माहौल बना दिया कि जिसमें गाँधी की तर्क और न्याय, सहिष्णुता और विश्वास सम्बन्धी अपीलों के लिए कोई स्थान नहीं था। जब उनकी राय के ख़िलाफ़ उपमहाद्वीप के विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया, तो वह साम्प्रदायिक संघर्ष से समाज पर लगे ज़ख़्मों को भरने में तन मन से जुट गए। उन्होंने बंगाल व बिहार के दंगाग्रस्त क्षेत्रों का दौरा किया। इसके शिकार हुए लोगों को दिलासा दिया और शरणार्थियों के पुनर्वास का प्रयास किया। शंका और घृणा से भरे माहौल में यह एक मुश्किल और हृदय विदारक कार्य था। गाँधी पर दोनों समुदायों ने आरोप लगाए। जब उनकी बातों का कोई असर नहीं हुआ तो वह अनशन पर बैठ गए। उन्हें कम से कम दो महत्त्वपूर्ण सफलताएँ मिलीं-
सितंबर, 1947 में उनके उपवास ने कलकत्ता में दंगे बंद करवा दिए।
जनवरी, 1948 में उन्होंने दिल्ली में साम्प्रदायिक शान्ति क़ायम कर दी।
निधन: 30 जनवरी, 1948 की शाम को जब गाँधी जी एक प्रार्थना सभा में भाग लेने जा रहे थे, तब एक युवा हिन्दू कट्टरपंथी नाथूराम गोडसे ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी।
शोकाकुल सूचना: अपने महान् नेता की मृत्यु का समाचार सुनकर सारा देश शोकाकुल हो उठा। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्र को महात्मा जी की हत्या की सूचना इन शब्दों में दी-
“हमारे जीवन से प्रकाश चला गया और आज चारों तरफ़ अंधकार छा गया है। मैं नहीं जानता कि मैं आपको क्या बताऊँ और कैसे बताऊँ। हमारे प्यारे नेता, राष्ट्रपिता बापू अब नहीं रहे।”
महात्मा गाँधी वास्तव में भारत के राष्ट्रपिता थे। 27 वर्षों के अल्पकाल में उन्होंने भारत को सदियों की दासता के अंधेरे से निकालकर आज़ादी के उज़ाले में पहुँचा दिया। किन्तु गाँधी जी का योगदान सिर्फ़ भारत की सीमाओं तक सीमित नहीं था। उनका प्रभाव सम्पूर्ण मानव जाति पर पड़ा, जैसा कि अर्नाल्ड टायनबीन ने लिखा है–‘हमने जिस पीढ़ी में जन्म लिया है, वह न केवल पश्चिम में हिटलर और रूस में स्टालिन की पीढ़ी है, वरन वह भारत में गाँधी जी की पीढ़ी भी है और यह भविष्यवाणी बड़े विश्वास के साथ की जा सकती है कि मानव इतिहास पर गाँधी जी का प्रभाव स्टालिन या हिटलर से कहीं ज़्यादा और स्थायी होगा।
1. | ब्रिटेन यानी वह देश जिसके विरुद्ध गाँधी जी ने स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत की, वहीं से उनकी मृत्यु के 21 साल बाद उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया गया था। |
2. | महात्मा गाँधी जीवन भर हर दिन 18 कि.मी. की पदयात्रा करते रहे। बताया जाता है कि वह रोज़ लगभग 800 शब्द लिखते थे। इनमें राजनीति, आज़ादी और समानता से जुड़े तमाम विषयों पर लिखे गए उनके लेख शामिल हैं। |
3. | टॉल्सटॉय, अल्बर्ट आइंस्टाइन और एडोल्फ़ हिटलर जैसी शख्सियतों के साथ महात्मा गाँधी का जीवन भर पत्र व्यवहार चलता रहा। |
4. | महात्मा गाँधी की अंतिम यात्रा का काफ़िला आठ किलोमीटर लम्बा था। |
5. | जब भारत की आज़ादी की घोषणा हुई, तब गाँधी जी दिल्ली में नहीं थे। वह कोलकाता में धार्मिक सद्भाव के लिए अनशन पर बैठे थे। |
6. | दुनिया भर में अपने नेतृत्व के लिए चर्चा में रहे महात्मा गाँधी अपने जीवन काल में कभी भी किसी राजनीतिक दल में किसी आधिकारिक पद पर नहीं रहे। |
7. | महात्मा गाँधी को नोबेल पुरस्कार के लिए भी पाँच बार नामांकित किया गया था। |
8. | दक्षिण अफ़्रीका में उन्हें सालाना 15,000 डॉलर की तनख्याह मिलती थी। यह उस समय के हिसाब से काफ़ी बड़ी रकम थी, लेकिन गाँधी जी वह सब छोड़कर भारत लौटे और सत्याग्रही बन गए। |
9. | अफ़्रीका में नस्लीय भेदभाव मिटाने की कोशिश में महात्मा गाँधी ने फ़ुटबॉल क्लब भी बनवाए। |
10. | गाँधी जी पहले ऐसे भारतीय थे, जिसे अमेरिका की साप्ताहिक पत्रिका द्वारा हर साल दिया जाने वाला ‘टाइम पर्सन ऑफ़ द ईयर’ टाइटल दिया गया। |
11. | तमिलनाडु के मदुरई में जब गाँधी जी का कुछ ग़रीब लोगों से सामना हुआ, तब उन्होंने जीवन भर के लिए वस्त्र त्याग कर सिर्फ़ धोती पहनने का निर्णय लिया। |