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मध्यप्रदेश सरकार द्वारा हर युग की निधि आदि शंकराचार्य का स्मरण : एक स्तुत्य प्रयास….

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आदि शंकराचार्य का भारत भूमि पर अवतरण उस समय हुआ जब उत्तर भारत में सम्राट हर्षवर्धन और दक्षिण में पुलकेशी का निधन हो चुका था। सन् 650 ईसवी के बाद भारत में विशाल और स्थिर साम्राज्यों का युग समाप्त हो चला था। यह ऐसा समय था जब साम्राज्य की इच्छा रखने वाले राज्यों में निरन्तर संघर्ष और उत्थान-पतन की लीला ने भारत की राजनीतिक एकता और स्थिरता को हिलाकर रख दिया। कश्मीर, कन्नौज और गौंड के संघर्ष ने और फिर पाल, प्रतिहार और राष्ट्रकूट नरेशों की खींचातानी ने उत्तरापथ को आंदोलित कर डाला था। ठीक वैसे ही दक्षिण में चालुक्य,पल्लव और पाण्डय शासकों की लड़ाइयों ने भारत को विचलित कर रखा था। पश्चिम से अरब सेनाओं और व्यापारियों के प्रवेश ने इस परिस्थिति में नया आयाम जोड़ दिया। बढ़ती अराजकता और असुरक्षा के वातावरण में स्थानीय अधिकारियों और शासकों का प्रभाव बढ़ने लगा। साम्राज्य की जगह सामन्ती व्यवस्था आकार लेने लगी। किसानों और ग्राम पंचायतों के अधिकार अभी बरकरार थे पर यह सही है कि इस समय राजसत्ता बिखर चुकी थी। अराजकता के बीच राजपुत्रों और सामन्तों का बोलबाला था। आदि शंकराचार्य की कृतियों में इस तरह की राजनीतिक अवस्था प्रतिबिम्बित होती है। आदि शंकराचार्य के समय कोई चक्रवर्ती राजा नहीं था , बस उसका आदर्श ही शेष रह गया था। अराजकता की स्थिति में परम्परागत भारतीय समाज व्यवस्था का ह्रास स्वाभाविक था।

आदि शंकराचार्य के समय तक भारत में प्राचीन स्मृतियों और पुराणों का युग बीत चुका था और अनेक अप्रमाणिक ग्रंथ भी रचे जाने लगे थे। उदारवादी और कट्टर प्रवृत्तियों में टकराहट की आहटें भी सुनायी पड़ने लगी थीं। धर्म के क्षेत्र में तन्त्र- मन्त्र और प्रतिमा पूजन की प्रवृत्ति भी बढ़ती जा रही थी। पुराने वैदिक देवताओं को नया रूप दिया जा रहा था और साथ ही बौद्धों के अनेक सम्प्रदाय भी प्रचलन में आ गये थे। आदि शंकराचार्य के समय की धार्मिक परिस्थिति को वेद के प्रमाण को मानने वाली आस्तिक और उसे न मानने वाली नास्तिक धाराओं के संगम और संघर्ष का युग भी कहा जाता है। शंकराचार्य इसी संक्रांति काल में भारत में अवतरित हुए। उन्होंने अपने प्रखर ज्ञान और साधना के बल से तत्कालीन भारतीय समाज में धर्म के ह्रास को रोकने के लिए अनेक नास्तिक सम्प्रदायों का सामना कर वैदिक धर्म की प्रतिष्ठा में अपना जीवन समर्पित किया। आदि शंकराचार्य को आयु कम मिली। वे मात्र बत्तीस साल ही जिय़े पर भारत में उन्होंने अपनी प्रखर चेतना शक्ति से जिस अव्दैत सिध्दांत की प्रतिष्ठा की , उससे समस्त मानव जाति के कल्याण का मार्ग प्रशस्त हुआ। आदि शंकराचार्य ने अपने भाष्यों के व्दारा वेदान्त की पुनः प्रतिष्ठा करते हुए शास्त्रार्थ के माध्यम से विपक्षी सम्प्रदायों को सिर्फ पराजित ही नहीं किया बल्कि प्राचीन धार्मिक क्षेत्रों को नवजीवन प्रदान करते हुए उपासना-सम्प्रदायों में सुधार भी किया।

आदि शंकराचार्य के जीवन चरित में एक महान सन्यासी की दिग्विजय के दर्शन होते हैं। चमत्कारी घटनाओं से भरा उनका जीवन सनातन सत्य की प्रतिष्ठा करने वाले एक अनवरत पदयात्री जैसा है जिसने अपने ज्ञान प्रकाश से भारत की संस्कृति के सभी आयामों को प्रभावित किया।

मध्यप्रदेश भी आये थे आदि गुरू

तमाम ऐतिहासिक विवादों के बावजूद मध्यप्रदेश को यह गौरव हासिल है कि भारत की राष्ट्रीय एकता के देवदूत आदि शंकराचार्य यात्रा करते हुए नर्मदा और माहिष्मति नदियों के संगम पर आये थे। उनसे संबंधित ओंकरेश्वर, उज्जैन, पचमठा (रीवा) और अमरकंटक आज के मध्यप्रदेश में अवस्थित है। भारत के इस हृदय प्रदेश के मन में यह बात सदियों से समायी हुई है कि आदि शंकराचार्य के गुरु श्री गोविंदपाद का आश्रम ओंकारेश्वर के तट पर ही था और उनकी प्राचीन गुफा आज भी वहाँ मौजूद है जहाँ लाखों श्रध्दालु उसके दर्शन करके अपने आपको धन्य मानते हैं। पास ही महेश्वर नगरी में निवास करने वाले आचार्य मण्डन मिश्र से शंकराचार्य के शास्त्रार्थ की लोक प्रसिध्द कथा आज भी भुलायी नहीं जा सकी है। जिसका निचोड़ यह है कि कर्मयोग के व्दारा अनासक्त भाव से मानव कल्याण के लिए अपना अपना कर्तव्य विधिवत पालन करने की शक्ति मिलती है। उसी शक्ति के व्दारा जीव, जगत और ब्रह्म की एकता समझ में आती है। प्रत्येक मनुष्य और समस्त जड़- चेतन में एक ही सत्ता विद्यमान है। सबको एक ही चैतन्य शक्ति बिना किसी भेद-भाव के चेतना प्रदान कर रही है। इसी अव्दैत भाव में जीवन जीते रहने से मानव कल्याण की राह प्रशस्त होती है। मानव समाज जड़ पदार्थ नहीं है,अपितु जीवित प्राणियों का समूह है। मनुष्य की अपनी स्वतंत्र इच्छा शक्ति है जिसके व्दारा वह व्यक्ति और समाज की उन्नति का मार्ग निकालता है। आदि गुरू शंकराचार्य मानव जाति को यह संदेश दे गये हैं कि यदि एक छोटा-सा समुदाय भी विश्व कल्याण के लिए अव्दैत भावना से भर उठे तो, संसार में हिंसा और रक्तपात को रोका जा सकता है।

भारत की सांस्कृतिक वीणा के ढीले पड़ गये तारों को शंकराचार्य ने एक कठिन समय में फिर मिलाकर दिखाया जिससे भारत अपने सनातन जीवन संगीत को फिर सुनकर आनंद विभोर हो सके। शंकराचार्य ने पूरे भारत की यात्रा करके अपने शास्त्रार्थों के माध्यम से एक गहन संवाद का मार्ग चुना क्योंकि वे अच्छी तरह जानते थे कि किसी को पराजित नहीं करना है बल्कि उस सत्य से उसका फिर सामना करा देना है जिसे वह भूल गया है और जिसके बिना मानव जाति का काम चल ही नहीं सकता।

पूरब का जगन्नाथपुरी स्थित गोवर्धन मठ, पश्चिम में शारदा मठ, दक्षिण में श्रृंगेरी मठ और उत्तर में ज्योतिर्मठ शंकराचार्य व्दारा स्थापित भारत के ज्ञान-संवाद पीठ ही तो हैं जो अपने आत्मकल्याण के लिए प्रयत्न करने वाले प्रत्येक मनुष्य को सदियों से अपने पास बुला रहे हैं।

मध्यप्रदेश सरकार का आदि शंकराचार्य स्मरण

मध्यप्रदेश सरकार आदि शंकराचार्य के अप्रतिम दर्शन और जीवन के पावन स्मरण स्वरूप 19 दिसम्बर एवं 22 जनवरी 18 के दौरान एकात्म यात्रा का आयोजन कर रही है। यात्रा का उद्देश्य उद्धैत वेदांत दर्शन में प्रतिपादित जीव, जगत एवं जगदीश के एकात्म बोध के प्रति जन-जागरण, आदि गुरू के अतुलनीय योगदान के बारे में जन-जागरण तथा ओंकारेश्वर में शंकराचार्य की प्रतिमा की स्थापना के लिये धातु संग्रहण और ओंकारेश्वर को विश्व स्तरीय वेदांत दर्शन केन्द्र के रूप में विकसित करना है। पैंतीस दिवसीय इस यात्रा में 140 जन-संवाद होंगे।

यह एकात्म यात्रा आदि गुरू शंकराचार्य से संबंधित प्रदेश के चार स्थानों ओंकारेश्वर, उज्जैन, पचमठा (रीवा) एवं अमरकंटक से प्रारंभ होकर 22 जनवरी को ओंकारेश्वर में एकाग्र होगी। प्रदेश के सभी 51 जिले इन यात्राओं में से किसी एक के द्वारा लाभान्वित होंगे। पैंतीस दिवसीय इस यात्रा में प्रतिदिन आदि शंकाराचार्य के जीवन और कृतित्व पर एक कार्यक्रम होगा और अष्टधातु की प्रतिमा निर्माण के लिये समाज के सभी वर्गो से प्रतीक स्वरूप धातु संग्रहण किया जायेगा। संग्रहीत धातु से ओंकारेश्वर में 108 फीट ऊँची आदि गुरू शंकराचार्य की विशाल धातु प्रतिमा स्थापित की जायेगी, जिसका भूमि-पूजन 23 जनवरी 2018 को होगा।

इसके पहले इसी साल 9 फरवरी को ओंकारेश्वर में राज्य शासन ने एक आयोजन के जरिये आदि शंकराचार्य का पावन स्मरण किया था। आदि शंकराचार्य का प्रकटोत्सव एक मई 2017 को प्रदेश के सभी जिलों में किया जाकर उनके अप्रतिम अवदानों का स्मरण किया गया।

डॉ. श्याम सिंह शशि के अनुसार महापुरुष किसी युग में पैदा होकर भी उसी युग तक सीमित नहीं रहते। अपने मंगलकारी और लोकहितकारी रूप के कारण वे प्रत्येक युग की निधि बन जाते हैं। आदि शंकराचार्य इस निधि की वह जाज्वल्यमान मणि है जिनका भारतीय दर्शन तथा संस्कृति में विशिष्ट स्थान है। वे जिस युग में उत्पन्न हुए थे, उस समय देशी-विदेशी प्रभावों के दबाव में भारतीय संस्कृति संकट के उस दौर में पहुँच चुकी थी, जहाँ से उसका विघटन दूर नहीं रह गया था। ऐसे विकट समय में ‘किं स्मर्तव्यं हरेर्नाम सदा, न यामिनी भाषा’ के रूप में उन्होंने भयाक्रांत और दुखी जनता को अमोघ मंत्र के रूप में एक अचूक शस्त्र प्रदान किया और इस प्रकार वे चारों ओर छा रही काली घटाओं में आध्यात्मिक शक्ति और संगठन-युक्ति के प्रकाश पुंज की तरह उभरे। यह उसी का परिणाम था कि देश अगले चार सौ वर्षों तक विदेशी आक्रांताओं का सामना कर सका।

आज आवश्यकता है ऐसी ही उदार दृष्टि की, जो मानव को सत्य, अहिंसा, परोपकार और सहनशीलता जैसे सद्गुणों के आलोक-पथ की ओर अग्रसित कर सके। मध्यप्रदेश सरकार का आदि शंकराचार्य स्मरण, उनकी प्रतिमा की स्थापना आदि ऐसे ही प्रयास हैं, इस उदार दृष्टि को जन-जन तक पहुँचाने के लिये।

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