एक फिल्म है ‘देसवा’. यह दो घंटे लंबी फिल्म है जो बक्सर (बिहार) की एक सच्ची घटना पर आधारित है. इसका निर्देशन नितिन चंद्रा ने किया है. नितिन की टीम ने इस फ़िल्म के जरिए यह बता दिया कि भोजपुरी में भी ऐसी फ़िल्म बनाई जा सकती है जिसमें डबल मीनिग संवाद, ब्लाउज़ के हुक खोलने, चोली सरकाने और देवर-भाभी को लेकर फूहड़ गीत की जरूरत नहीं है. बता दें कि देसवा से पहले नितिन ने एक मैथिली फिल्म ‘मिथला मखाना’ बनाई थी और इस फिल्म को 63वां राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था.
देसवा की चर्चा हम इसलिए कर रहे हैं कि कई साल पहले इस फिल्म का निर्माण किया गया था. नितिन ने इसे हाल ही में डिजिटली रिलीज किया है. अपने नाम के मुताबिक पहले दृश्य से फिल्म ऐसे देस ले जाती है जहां खेत-खलिहान, बथान में बांधे मवेशी-जानवर, ग्रामीण जीवन में रचे-बसे लोग नजर आते है. शुरूआत से ही फिल्म दर्शकों को बांधने में कामयाब हो जाती है. फ़िल्म की कहानी सरल है. वैसे इस प्लॉट पर कई फ़िल्में हिंदी में बन चुकी हैं. काहनी में बहुत कुछ नया नहीं है, लेकिन दृश्य और प्रस्तुति का अंदाज अलग है. खासतौर से फ्रेम दर फ्रेम कैमरा वर्क ग़ज़ब कहा जा सकता है.2011 में बनी इस फिल्म को देश-विदेश के कई समारोहों में दिखाया जा चुका है. लेकिन भारत में यह फ़िल्म 23 दिसंबर को यूट्यूब पर रिलीज़ की गई है.
सोनू निगम, शारदा सिन्हा, मीका सिंह, भारत शर्मा व्यास, श्रेया घोषाल, स्वानंद किरकिरे, सुनिधि चौहान, प्रभाकर पांडेय और रेखा राव के स्वर तथा आशुतोष सिंह के संगीत से सजे फ़िल्म के गाने कई बार भावुक कर देते हैं. खसकर शारदा सिन्हा की आवाज़ कानों में मिश्री की ढेली की तरह घुलती है.2011 में बनी इस फिल्म को देश-विदेश के कई समारोहों में दिखाया जा चुका है. लेकिन भारत में यह फ़िल्म 23 दिसंबर को यूट्यूब पर रिलीज़ की गई हैसोनू निगम, शारदा सिन्हा, मीका सिंह, भारत शर्मा व्यास, श्रेया घोषाल, स्वानंद किरकिरे, सुनिधि चौहान, प्रभाकर पांडेय और रेखा राव के स्वर तथा आशुतोष सिंह के संगीत से सजे फ़िल्म के गाने कई बार भावुक कर देते हैं. खसकर शारदा सिन्हा की आवाज़ कानों में मिश्री की ढेली की तरह घुलती हैफ़िल्म में कई दृश्य बेजोड़ हैं. एक ऐसा ही दृश्य है जिसमें फ़िल्म के मुख्य किरदार एक जीप से भोर में तीन बजे बक्सर स्टेशन से किसी का अपहरण करने के लिए जा रहे हैं. जीप में बैठने से पहले उन्हें जीप का नम्बर प्लेट नज़र आता है. बिना कुछ सोचे वो हाथ में कादो (कीचड़) उठाता है और उससे नम्बर प्लेट पोत देता है. यह बड़ा ही ओरिजनल सीन है.
देसवा बनाने और सोचने वालों की जितनी तारीफ़ की जाए कम है. क्योंकि यह केवल फ़िल्म नहीं है बल्कि लीक से हटकर अलग करने की कोशिश है.हालांकि फिल्म की कहानी को और बेहतर किया जा सकता था. पुरानी कहानी कई बार प्रभावहीन नजर आती है. फ़िल्म अंत में फ़ीलगुड कराते हुए ख़त्म क्यों होती है यह समझाना थोड़ा मुश्किल है. दर्शक के मन में एक सवाल क्यों नहीं छोड़ देना चाहते है. क्लाइमेक्स बेहतर बनाया जा सकता था