प्राचीन समय की बात है. दो व्यक्ति थे उनमें एक का नाम था अशक्ति और दूसरे का मुक्ति अब उन दोनों व्यक्तियों के मन में एक विचार आया की आखिर ‘मैं हूं कौन ? इस बात को जानने के लिए अब वे शिष्य भाव को लेकर एक प्रखर पंडित के पास पहुंचे। वहां पहुँचते ही उन्होंने पंडित जी से इस बात को लेकर प्रश्न किया की गुरुदेव आप ये बताएं की हम कौन हैं और किस लिए जन्में है?
पंडित जी ने उत्तर देने के पूर्व ही उनकी योग्यता परख लेना उचित ही समझा। और पंडित जी कहने लगे अब तुम एक काम करो एक थाली में पानी भरकर उसमें अपना मुख देखो? फिर तुम्हे खुद व् खुद पता हो जाएगा की तुम कौन हो पंडित की बात मानते हुए उन्होंने ऐसा ही किया और जल में अपना प्रतिबिम्ब देखा.
मुक्ति अपना सुन्दर रूप देखते ही प्रसन्न हो उठा और कहने लगा – ‘मैं कितना सुंदर हूं। और कहने लगा की अब मुझे इस के बारे में पता हो गया. अपने शरीर को ही ‘मैं” समझकर वह उसे ही सजानें सवारने लगा.
अब आई अशक्ति की बारी जो की दूरदर्शी था. उसने सोचा कि यदि ये वस्त्र, आभूषण , काया ही सब कुछ है .यही मेरा स्वरूप है. तो इसका यही अर्थ स्पष्ट होता है. कि इन सब के मैले होने पर मेरी भी वैसी ही स्थिति हो जाएगी. और वह समझ बैठा की निश्चय ही यह मेरा स्वरूप नहीं हो सकता। वह कहने लगा की मुझे तो इन सब में कोई कल्याण दिखाई नहीं देता। उसने सोचा की ये शरीर तो परिवर्तित होता जाता है, पर यह ‘मैं” सदा एक जैसा बना रहता है। बचपन में भी ‘मैं” का संबोधन किया जाता है, जवानी में भी और वृद्धावस्था में भी.
इस दृष्टांत का आशय यह है की व्यक्ति को हमेशा आत्मसत्ता को शरीर से पृथक और स्वतंत्र मानकर आगे जाना चाहिए । आत्म सत्ता को बड़ा बताया गया है. ये कभी मरती नही, शरीर तो कुछ समय के बाद स्थूल हो जाता है. और आत्मा उसे छोड़ देती है. शरीर नाशवान होता है.
महत्त्व तो उस आत्मा का है. जो हर एक व्यक्ति में एक जैसी होती है. भले ही शरीर भिन्न भिन्न हो इस जागत में वासना, तृष्णा, लोभ,माया और मोह के बंधन में यही लोग बांधते है जिन्हे इस शरीर का अभिमान व् जिसके साथ “मैं” शब्द जुड़ा होता है . उन्नत जीवन वही व्यक्ति पाता है जिसे आत्मसत्ता का ज्ञान हो जाता है.