माधवराव सिंधिया कांग्रेस के प्रसिद्ध नेता थे। माधवराव सिंधिया का राजनीतिक सफ़र सन् 1971 से 2001 तक रहा।
जीवन परिचय
माधवराव सिंधिया का जन्म 10 मार्च, 1945 ई. को ग्वालियर के सिंधिया परिवार में हुआ था। माधवराव सिंधिया ग्वालियर राजघराने की राजमाता विजयाराजे सिंधिया और जीवाजी राव सिंधिया के पुत्र थे। माधवराव सिंधिया ने अपनी शिक्षा सिंधिया स्कूल से की थी। सिंधिया स्कूल का निर्माण इनके परिवार द्वारा ग्वालियर में कराया गया था। उसके बाद माधवराव सिंधिया ने ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी से अपनी शिक्षा प्राप्त की। माधवराव सिंधिया का विवाह माधवीराजे सिंधिया से हुआ था। माधवराव सिंधिया के पुत्र ज्योतिरादित्य व पुत्री चित्रांगदा राजे हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया भी राजनीति में हैं। माधवराव सिंधिया का नाम मध्यप्रदेश के चुनिंदा राष्ट्रीय राजनीतिज्ञों में काफ़ी ऊपर है। माधवराव सिंधिया राजनीति के लिए ही नहीं बल्कि कई अन्य रुचियों के लिए भी विख्यात रहे हैं। क्रिकेट, गोल्फ, घुड़सवारी और हर चीज़ के शौक़ीन होते हुए भी माधवराव सिंधिया ने सामान्य व्यक्ति जैसा जीवन व्यतीत किया था।
राजनीतिक सफ़र
रियासतों का वज़ूद देश में भले ही खत्म हो गया हो, राजा आम लोगों के निशाने पर रहे हों लेकिन मध्य प्रदेश की ग्वालियर रियासत एक ऐसी रियासत है जिसके लोग आज भी सिंधिया राज परिवार के साथ खड़े दिखाई देते हैं। चुनाव चाहे लोकसभा का हो या विधानसभा का हो। यदि प्रत्याशी सिंधिया परिवार का है तो उसकी जीत लगभग तय रहती है। हालांकि चुनावी मुक़ाबले कड़े होते हैं, पर पार्टी लाइन से हटकर लोग सिंधिया परिवार को ही समर्थन देते हैं। सिंधिया राज परिवार का समर्थन जिस प्रत्याशी को रहा है वह चाहे जिस भी दल में हो उसे लोगों ने जिताया है। 1952 से यही परंपरा चली आ रही है।
माधवराव सिंधिया अपनी ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी से पढ़ाई पूरी करके वापस आने के बाद ज़्यादातर समय मुंबई में ही व्यतीत करते थे। राजमाता विजया राजे सिंधिया उन्हें जनसंघ में लाना चाहती थीं। हिंदूवादी नेता ‘सरदार आंग्रे’ का राजमाता पर गज़ब का प्रभाव था। उन्हीं के चलते माधवराव भी जनसंघ में गए। 1971 में विजयाराजे सिंधिया के पुत्र माधवराव सिंधिया ने अपनी माँ की छत्रछाया में राजनीति का ककहरा पढ़ना शुरू किया और उन्होंने तब पहला चुनाव जनसंघ से लड़ा।[1] 1971 के इस चुनाव में माधवराव सिंधिया ने कांग्रेस के ‘डी. के. जाधव’ को एक लाख 41 हज़ार 90 मतों से पराजित किया। 1977 में सिंधिया स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर मैदान में उतरे और उन्होंने बारह कोणीय संघर्ष में लोकदल के ‘जी. एस. ढिल्लन’ को 76 हज़ार 451 मतों से पराजित किया
1980 में माधवराव सिंधिया ने कांग्रेस का दामन थामा और उन्होंने तब जनता पार्टी के प्रत्याशी ‘नरेश जौहरी’ को एक लाख से अधिक मतों से शिकस्त दी। 1984 में सिंधिया ने ग्वालियर से चुनाव लड़ने का मन बनाया और उन्होंने अपने ही विश्वस्त ‘महेंद्र सिंह कालूखेड़ा’ को कांग्रेस से इस क्षेत्र की उम्मीदवारी का भार सौंपा और उन्होंने भाजपा के ‘उधव सिंह रघुवंशी’ को एक लाख 40 हज़ार 480 वोटों से हरा दिया। माधवराव सिंधिया के कांग्रेस में जाने के बाद ग्वालियर उस समय चर्चा में आया था जब 1984 के आम चुनाव में उन्होंने बीजेपी के दिग्गज नेता अटलबिहारी वाजपेयी को हराया था। वह चुनाव चर्चा का विषय इसलिए बना था कि जनसंघ और बीजेपी का गढ़ माने जाने वाला ग्वालियर सिंधिया के गढ़ के रूप में सामने आया था।[2]
माधवराव सिंधिया ने 1984 के बाद 1998 तक सभी चुनाव ग्वालियर से ही लड़े और जीत भी हासिल की। 1996 में तो कांग्रेस से अलग होकर भी वह भारी बहुमत से जीते थे। 1999 के चुनाव में अस्वस्थ राजमाता ने अपने पुत्र माधवराव सिंधिया को यह आसंदी छोड़ दी और 1999 में माधवराव सिंधिया ने पाँच उम्मीदवारों की मौज़ूदगी में अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी भारतीय जनता पार्टी के देशराज सिंह को दो लाख 14 हज़ार 428 मतों से कीर्तिमान शिकस्त दी। इस प्रकार चौदह में से दस चुनावों में महल ने अपना परचम कभी माँ तो कभी बेटे के जरिए फहराया। ग्यारहवीं दफ़ा भी महल ही परोक्ष रूप से इस सीट पर ‘महेंद्र सिंह’ के रूप में क़ाबिज रहा।
मध्यावधि चुनाव की सन् 1999 में फिर से शुरुआत हुई। यह तीन साल की अवधि में दूसरा मध्यावधि चुनाव था। माधवराव सिंधिया एक बार फिर गुना से मैदान में थे। सिंधिया को वहाँ की जनता ने सिर आँखों पर बिठा लिया। विकास कार्यों की बदौलत उनकी छवि विकास के मसीहा की थी, और यह छवि लोगों के सिर चढ़कर बोल रही थी। देशराज सिंह को भाजपा ने उम्मीदवार बनाया, लेकिन वे सिंधिया के समक्ष कमज़ोर प्रत्याशी साबित हुए थे। चुनाव-प्रचार से लेकर परिणाम तक सिंधिया ने जो बढ़त बनाई, वो उनके करिश्मे को साबित करने वाली थी। वे क़रीब ढाई लाख वोटों से जीते। शिवपुरी ज़िले की चारों विधानसभा सीटों पर उनकी बढ़त 141000 से ज़्यादा रही। गुना ज़िले की चार विधान सभा सीटों पर भी उन्हें अधिक वोट मिले। यह सिंधिया की लगातार नवीं जीत थी।[3] 30 सितंबर 2001 को माधवराव सिंधिया की असमय मौत के कारण रिक्त हुई इस सीट पर उपचुनाव में उनके पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया ने चार लाख से अधिक मतों से बाज़ी मारी। उन्होंने भाजपा के ‘राव देशराज सिंह’ को हराया और 2004 के चुनाव में सिंधिया भाजपा प्रत्याशी ‘हरिवल्लभ शुक्ला’ से 85 हज़ार मतों से विजयी रहे।
दिनांक / वर्ष | पद |
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1971 | लोकसभा (पाँचवी) के लिए निर्वाचित |
अगस्त, 1977 से दिसम्बर, 1979 तक | सदस्य, परामर्शदाता समिति, रक्षा मंत्रालय |
1977 | लोकसभा (छठी) के लिए पुन: निर्वाचित |
1980 | लोकसभा (सातवीं) के लिए तीसरी बार निर्वाचित |
अप्रैल, 1980 से जुलाई, 1983 तक | सदस्य, परामर्शदात्री समिति, विदेश मंत्रालय |
अगस्त, 1983 से अक्टूबर, 1984 तक | सदस्य, परामर्शदात्री समिति, रक्षा मंत्रालय |
1984 | लोकसभा (आठवीं) के लिए चौथी बार निर्वाचित |
1984 से दिसम्बर, 1989 तक | रेल राज्य मंत्री |
1987 से 29 जनवरी, 1990 तक | सदस्य, पंजाब विधान सभा (शक्तियों का प्रत्यायोजन) अधिनियम, 1987 के अंतर्गत गठित परामर्शदाता समिति। |
1989 | लोकसभा (नौवीं) के लिए पाँचवी बार चुने गए। |
1990 | सदस्य, परामर्शदात्री समिति, रक्षा मंत्रालय। |
7 जून, 1990 | सदस्य, विज्ञान और प्रौद्योगिकी सम्बन्धी विषय समिति |
1991 | लोकसभा (दसवीं) के लिए छठी बार निर्वाचित |
23 जून, 1991 | केन्द्रीय नागर विमानन और पर्यटन मंत्री |
1991 | सदस्य, सामान्य प्रयोजन समिति |