इस्मत चुग़ताई का नाम भारतीय साहित्य में एक चर्चित और सशक्त कहानीकार के रूप में विख्यात हैं। उन्होंने महिलाओं से जुड़े मुद्दों को अपनी रचनाओं में बेबाकी से उठाया और पुरुष प्रधान समाज में उन मुद्दों को चुटीले और संजीदा ढंग से पेश करने का जोखिम भी उठाया। आलोचकों के अनुसार इस्मत चुग़ताई ने शहरी जीवन में महिलाओं के मुद्दे पर सरल, प्रभावी और मुहावरेदार भाषा में ठीक उसी प्रकार से लेखन कार्य किया है, जिस प्रकार से प्रेमचंद ने देहात के पात्रों को बखूबी से उतारा है। इस्मत के अफ़सानों में औरत अपने अस्तित्व की लड़ाई से जुड़े मुद्दे उठाती है।
जीवन परिचय
इस्मत चुग़ताई का जन्म 21 अगस्त, 1915 को बदायूँ, उत्तर प्रदेश में हुआ था। उनका बचपन अधिकांशत: जोधपुर में व्यतीत हुआ, जहाँ उनके पिता एक सिविल सेवक थे। इनके पिता की दस संतानें थीं- छ: पुत्र और चार पुत्रियाँ। इनमें इस्मत चुग़ताई उनकी नौवीं संतान थीं। जब चुग़ताई युवावस्था को प्राप्त कर रही थीं, तभी इनकी बहनों का विवाह हो चुका था। इनके जीवन का वह समय काफ़ी महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ, जो इन्होंने अपने भाइयों के साथ व्यतीत किया। इनके भाई मिर्ज़ा आजिम बेग़ चुग़ताई पहले से ही एक जाने-माने लेखक थे। इस प्रकार इस्मत चुग़ताई को किशोरावस्था में ही भाई के साथ-साथ एक गुरु भी मिल गया था।
लेखन कार्य
अपनी शिक्षा पूर्ण करने के साथ ही इस्मत चुग़ताई लेखन क्षेत्र में आ गई थीं। उन्होंने अपनी कहानियों में स्त्री चरित्रों को बेहद संजीदगी से उभारा और इसी कारण उनके पात्र ज़िंदगी के बेहद क़रीब नजर आते हैं। इस्मत चुग़ताई ने ठेठ मुहावरेदार गंगा-जमुनी भाषा का इस्तेमाल किया, जिसे हिन्दी-उर्दू की सीमाओं में क़ैद नहीं किया जा सकता। उनका भाषा प्रवाह अद्भुत था। इसने उनकी रचनाओं को लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
प्रसिद्धि
इस्मत चुग़ताई अपनी ‘लिहाफ’ कहानी के कारण ख़ासी मशहूर हुईं। 1941 में लिखी गई इस कहानी में उन्होंने महिलाओं के बीच समलैंगिकता के मुद्दे को उठाया था। उस दौर में किसी महिला के लिए यह कहानी लिखना एक दुस्साहस का काम था। इस्मत को इस दुस्साहस की कीमत चुकानी पड़ी, क्योंकि उन पर अश्लीलता का मामला चला, हालाँकि यह मामला बाद में वापस ले लिया गया। आलोचकों के अनुसार उनकी कहानियों में समाज के विभिन्न पात्रों का आईना दिखाया गया है। इस्मत ने महिलाओं को असली जुबान के साथ अदब में पेश किया। उर्दू जगत् में इस्मत के बाद सिर्फ सआदत हसन मंटो ही ऐसे कहानीकार थे, जिन्होंने औरतों के मुद्दों पर बेबाकी से लिखा। इस्मत का कैनवास काफ़ी व्यापक था, जिसमें अनुभव के रंग उकेरे गए थे। ऐसा माना जाता है कि ‘टेढ़ी लकीर’ उपन्यास में इस्मत ने अपने जीवन को ही मुख्य प्लाट बनाकर एक महिला के जीवन में आने वाली समस्याओं को पेश किया।
उपन्यास ‘टेढ़ी लकीर’
‘फ़ायर’ और ‘मृत्युदंड’ जैसी फ़िल्मों के किरदार तो परदे पर नज़र आते हैं, लेकिन इस्मत ने उन्हें कहीं पहले गढ़कर अपने उपन्यासों में पेश कर दिया था। समलैंगिक रिश्तों पर नहीं, उसके कारणों पर उर्दू जगत् में पहली बार इस्मत ने ही लिखा। यूँ तो उन्होंने ‘जिद्दी’, ‘लिहाफ’, ‘सौदाई’, ‘मासूमा’, ‘एक क़तरा खून’ जैसे कितने ही उपन्यास लिखे, किंतु सबसे ज़्यादा मशहूर और जिसका विरोध हुआ, वह ‘टेढ़ी लकीर’ है। 1944 का उपन्यास ‘टेढ़ी लकीर’ ऐसे परिवारों पर व्यंग्य है जो अपने बच्चों की परवरिश में कोताही बरतते हैं और नतीजे में उनके बच्चे प्यार को तरसते, अकेलेपन को झेलते एक ऐसी दुनिया में चले जाते हैं, जहाँ जिस्म की ख्वाहिश ही सब कुछ होती है। इस्मत चुग़ताई ने ‘टेढ़ी लकीर’ के ज़रिये समलैंगिक रिश्तों को एक रोग साबित करके उसके कारणों पर नज़र डालने पर मजबूर किया। लेकिन तब के लोगों ने उनकी बातों को लेकर उनका विरोध किया, जबकि सच्चाई यह थी कि उन्होंने अपने किरदार के ज़रिये यह बताया कि एक बच्चे का अकेलापन, प्यार से महरूम और उसको नज़रअंदाज़ करना किस तरह एक बीमारी का रूप ले लेता है। उन्होंने इसे बीमारी बताकर नफरत के बदले प्यार, अपनापन निभाने की सीख ‘टेढ़ी लकीर’ के माध्यम से दी।
रचनाएँ
इस्मत चुग़ताई ने ‘कागजी हैं पैरहन’ नाम से एक आत्मकथा भी लिखी थी। उनकी अन्य रचनाएँ इस प्रकार हैं-
उपन्यास | कहानी संग्रह |
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पुरस्कार व सम्मान
- ‘गालिब अवार्ड’ (1974) – ‘टेढ़ी लकीर’ के लिए
- ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’
- ‘इक़बाल सम्मान’
- ‘नेहरू अवार्ड’
- ‘मखदूम अवार्ड’
निधन
इस्मत चुग़ताई का निधन 24 अक्टूबर, 1991 में मुंबई (महाराष्ट्र) में हुआ।