पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी , जन्म- 26 अप्रैल, 1864, मुल्तान, आर्य समाज के प्रसिद्ध नेता थे। वे स्वामी दयानन्द सरस्वती के शिष्य थे। पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी की गिनती आर्य समाज के पाँच प्रमुख नेताओं में की जाती थी। दयानन्द सरस्वती के देहान्त के बाद गुरुदत्त विद्यार्थी ने उनकी स्मृति में ‘दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज’ की स्थापना का प्रस्ताव रखा था। गुरुदत्त विद्यार्थी, लाला लाजपत राय और लाला हंसराज के प्रयत्नों से ही 1 जून, 1886 को लाहौर, पाकिस्तान में डीएवी स्कूल की स्थापना हुई थी।
जन्म
पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी का जन्म 26 अप्रैल, 1864 ई. में ब्रिटिश कालीन पाकिस्तान के मुल्तान में प्रसिद्ध वीर सरदाना कुल में हुआ था। इनके पिता का नाम लाला रामकृष्ण था, जो फ़ारसी के प्रसिद्ध विद्वान् थे। गुरुदत्त जी ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा मुल्तान में पाई और फिर लाहौर आ गए। यहाँ लाला हंसराज और लाला लाजपत राय भी पढ़ रहे थे। तीनों की आपस में बहुत घनिष्ठता हो गई। गुरुदत्त को विज्ञान में रुचि थी, इसके कारण वे हर चीज को विज्ञान की कसौटी पर कस कर देखते थे। उनके इस स्वभाव के कारण उनका व्यवहार नास्तिक हो गया था। पण्डित गुरुदत्त ने विज्ञान वर्ग से एम.ए. तक की शिक्षा प्राप्त की थी। कुछ समय बाद पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी आर्य समाज के सम्पर्क में आये। समाज के उद्देश्य और ज्ञान का अध्ययन करने के बाद वे आस्तिक हो गये। 1883 में जब स्वामी दयानन्द सरस्वती बीमार थे, तो लाहौर से दो लोगों को उनकी सेवा के लिये भेजा गया, जिसमें से एक गुरुदत्त भी थे।
अत्यन्त मेधावी एवं वैरागी प्रकृति
गुरुदत्त की शिक्षा मुल्तान व लाहौर में सम्पन्न हुई थी। जन्म से ही आप अत्यन्त मेधावी थे और वैरागी प्रकृति के थे। विद्यार्थी जीवन व युवावस्था में पुस्तकों को पढ़ने में आपकी सर्वाधिक रुचि एवं लगन थी। जो भी पुस्तक हाथ में आती थी उसे आप अल्प समय में ही आद्योपान्त पढ़ डालते थे। बचपन में ही आपने उर्दू व अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध विद्वानों के ग्रन्थों को पढ़ लिया था। उर्दू में कविता भी कर लेते थे। विज्ञान आपका प्रिय विषय था। पाश्चात्य वैज्ञानिकों की तरह ही आप नास्तिक तो नहीं परन्तु ईश्वर के अस्तित्व में संशयवादी अवश्य हो गये थे। लाहौर स्थित देश के सुप्रसिद्ध गर्वनमेंट कालेज के आप सबसे अधिक मेधावी व योग्यतम विद्यार्थी थे तथा अपनी कक्षा में सर्वप्रथम रहा करते थे। विज्ञान में एम.ए. में भी आप पूरे पंजाब में सर्वप्रथम रहे जिसमें सारा पाकिस्तान एवं दिल्ली तक भारत के अनेक भाग सम्मिलित थे। यद्यपि आप व्यायाम आदि करते थे और स्वास्थ्य का ध्यान भी रखते थे परन्तु पढ़ने का शौक ऐसा था कि इस कारण से आप असावधानी कर बैठते थे। 26 वर्ष की आयु पूरी होने से एक सप्ताह पूर्व ही आपका देहान्त हो गया था। इस कम आयु में भी आपने अनेक अविस्मरणीय कार्य किए जिससे आपको सदा याद किया जाता रहेगा।[1]
दयानन्द सरस्वती के शिष्य
महर्षि दयानन्द के जीवनकाल 1825-1883 में देश भर के अनेक लोग उनके सम्पर्क में आये जिनमें से कई व्यक्तियों को उनका शिष्य कहा जा सकता है परन्तु सभी शिष्यों में पं. गुरूदत्त विद्यार्थी उनके अनुपम व अन्यतम शिष्य थे। आपने महर्षि दयानन्द के बाद स्वयं को उन जैसा बनाने का प्रयास किया था। वैदिक विद्याओं एवं वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार में आपकी भी वही भावना थी और वैसा ही उत्साह था जैसा कि महर्षि दयानन्द में देखने को मिलता था। इसलिए सभी मित्र और निकट सहयोगी आपको वैदिक धर्म का सच्चा विद्वान् व नेता स्वीकार करते थे। पं. गुरूदत्त विद्यार्थी को इस बात का श्रेय प्राप्त था कि उन्होंने महर्षि दयानन्द के न केवल दर्शन ही किए थे अपितु उनकी मृत्यु के दृश्य को कुछ ही दूरी से सामने से देखा था। उन दिनों आप ईश्वर के अस्तित्व के प्रति संशयवादी थे। जिन शरीरिक कष्टों से महर्षि दयानन्द आक्रान्त थे और उस पर भी जिस सहजता से उन्होंने मृत्यु का संवरण किया उसे देखकर पण्डित गुरुदत्त जी दंग रह गये थे और उनका नास्तिकता मिश्रित संशयवाद तत्क्षण दूर हो गया था। इस घटना के बाद तो आपका जीवन पूरी तरह से ज्ञानार्जन, वेदों के प्रचार-प्रसार व सामाजिक कार्यों में व्यतीत हुआ। महर्षि दयानन्द के बाद उनके साक्षात शिष्यों में संस्कृत व्याकरण का कोई प्रमुख प्रथम विद्वान् हुआ तो वह आप ही थे। आपने आर्य समाज, लाहौर की सदस्यता लेकर संस्कृत का अध्ययन आरम्भ कर दिया था। आप मेधावी तो थे, इसलिये संस्कृत का आपका अध्ययन शीघ्र ही पूरा हो गया था। न केवल आपने संस्कृत पढ़ी ही अपितु उस युग में संस्कृत के सबसे बड़े समर्थक थे। यह बात तब थी जब कि आपका अंग्रेज़ी पर असाधारण अधिकार था। आज भी ग्रेजी के विद्वानों को आपके ग्रन्थों को पढ़ने के लिए अंग्रेज़ी के शब्द कोषों आदि का सहारा लेना पड़ता है। संस्कृत के प्रचार-प्रसार का कार्य महर्षि दयानन्द के बाद यदि प्रथम प्रभावशाली रूप से किसी ने किया तो वह पं. गुरुदत्त जी ने ही किया। आपने अपने घर पर ही संस्कृत श्रेणी व कक्षायें खोल रखी थी जिसमें सरकारी सेवा में कार्यरत बड़ी संख्या में लोग संस्कृत अध्ययन किया करते थे जिनमें कई उच्चाधिकारी थे। संस्कृत पर आपके असाधारण अधिकार का प्रमाण आपका ईश, माण्डूक्य व मण्डूक उपनिषदों का अंग्रेज़ी में किया गया प्रभावशाली व प्रशंसनीय भाष्य एवं अनुवाद है। यह कार्य उन दिनों सरल नहीं था और इस कोटि का भाष्य अंग्रेज़ी में किया जाना शायद् किसी के लिए भी सम्भव नहीं था। भारतीय धर्म व संस्कृति का मूल आधार वेद और वैदिक साहित्य है जो संसार में प्राचीनतम व उत्पत्ति व रचना की दृष्टि से प्रथम है। अंग्रेज़ भारत में आये तो भारतीयों को ग़ुलाम बनाया और चाहते थे कि उनका शासन चिर स्थाई हो। उन्होंने यहां के धर्म व धर्म ग्रन्थों का अध्ययन भी किया व कराया जिससे यह निष्कर्ष निकला कि भारतीय धर्म व संस्कृति के ग्रन्थों का मिथ्यानुवाद व तिरस्कार किये बिना अंग्रेज़ों का राज्य स्थाई रूप नहीं ले सकेगा। अतः प्रो. मैक्समूलर आदि अनेक अंग्रेज़ विद्वानों ने संस्कृत का अध्ययन कर वेद और वैदिक साहित्य पर असत्य, भ्रामक, अविवेकपूर्ण व पक्षपातपूर्ण टिप्पणियां कीं।[1]
डीएवी कॉलेज की स्थापना
दयानन्द जी के देहान्त के बाद गुरुदत्त ने उनकी स्मृति में ‘दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज’ की स्थापना का प्रस्ताव रखा। इसका उपस्थित सभी लोगों ने समर्थन किया और उसी समय आठ ह़जार रुपये एकत्र भी हो गये। इस विद्यालय के कार्य के लिये गुरुदत्त ने देश के कई भागों में सभाएं कीं और वैदिक ज्ञान के साथ अंग्रेज़ी के ज्ञान की महत्ता भी बताई। उनके इस काम में लाला लाजपत राय भी शामिल हो गये। लाजपत राय के जोशीले भाषण, गुरुदत्त की अपील और लाला हंसराज के प्रयत्नों से तीन साल में 20 ह़जार ऩकद और 44 ह़जार रुपये के आश्वासन उन्हें मिले। अन्त में 1 जून, 1886 को लाहौर में डीएवी स्कूल की स्थापना हो गई। लाला हंसराज इस विद्यालय के प्रथम प्राचार्य नियुक्त हुए।[2]
लोकप्रिय वक्ता व उपदेशक
मृत्यु हो जाने के कारण बहुत से उनके ग्रन्थों को सुरक्षित नहीं रखा जा सका जो कि विद्वानों व अध्येताओं के लिए एक बहुत बड़ी हानि है। पण्डित जी का जीवन बहुआयामी जीवन था। उन पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है। वह लोकप्रिय वक्ता व उपदेशक थे। जनता उनके विचारों को ध्यान से सुनती थी और उनकी बातों का पालन करती थी। वह ऐसे वक्ता थे जिनकी कथनी व करनी एक थी। वह अपने जीवन का एक-एक क्षण वैदिक धर्म, संस्कृति के उत्थान व संवृद्धि के लिए व्यतीत करते थे। उनके कार्यों का उद्देश्य वैदिक धर्म का अभ्युदय, सामाजिक सुधार व देश सुधार, अविद्या का नाश व विद्या की वृद्धि, लोगों को ज्ञानी बनाकर देश व विश्व से सभी प्रकार के अज्ञान व अन्धविश्वासों को दूर करना आदि था। वह अपने समय के सबसे कम आयु के अजेय धार्मिक योद्धा थे। उनके कार्यों से वैदिक धर्म का संवर्धन हुआ जिसके लिए देश और समाज उनका ऋणी है। मृत्यु के समय उनकी आयु 26 वर्ष थी। परिवार में उनकी माता, पत्नी व दो छोटे पुत्र थे। सहस्रों लोग उनकी अन्त्येष्टि में सम्मिलित हुए थे। पण्डित जी की मृत्यु पर न केवल आर्य समाज के नेताओं ने अपितु अनेक मतों के विद्वानों ने भी उन्हें श्रद्धाजंलि देते हुए शोक प्रकट किया था। पण्डित जी ने इतिहास में वह कार्य किया जिसका देश व विश्व पर गहरा प्रभाव हुआ। [1]
निधन
पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी जी के दो अंग्रेज़ी लेख ‘वैदिक संज्ञा विज्ञान’ तथा ‘वैदिक संज्ञा विज्ञान व यूरोप के विद्वान’ को ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया था। क्षय रोग के कारण 19 मार्च, 1890 को महज 26 वर्ष की आयु में उनका देहान्त हो गया। किन्तु उतने ही समय में उन्होंने अपनी विद्वता की छाप छोड़ी और अनेकानेक विद्वतापूर्ण ग्रन्थों की रचना की।