भोपाल। ताज-उल-मसाजिद यानी मस्जिदों का ताज, रियासतें भोपाल की चौथी हुक्मरां नवाब शाहजहां बेगम ने जो ख्वाब देखा था वह उनके जीते जी पूरा न हो सका। बादशाह शाहजहां द्वारा बनाई गई दिल्ली की जामा मस्जिद को देखने के बाद ही बेगम ने भोपाल में इस मस्जिद की तामीर अपनी रिहाइश शाहजहांनाबाद ताजमहल के पास ही इसे बनवाना शुरू किया।
अगर यह उनकी उम्मीदों और आरजुओं के मुताबिक बनती तो आज दुनिया की पहली मसाजिदों में शुमार होती। आज भी यह दुनिया की चुनिंदा मसाजिदों और एशिया में छठवीं सबसे बड़ी मसाजिद के रूप में प्रसिद्घ है। उस दौर के मशहूर आर्किटेक्चरों से इसका नक्शा तैयार करवाया गया था। सफेद संगमरमर की तीन बुलंद गुंबदों और दो आसमान छूती गुलाबी मिनारें इसकी खासियत हैं।
सैकड़ों लोगों को एक साथ इमाम की आवाज सुनाई दे, इसके लिए इसमें आवाज गूंजने के सिस्टम को ऐसा बनाया, जिसमें आखिरी आदमी तक साफ आवाज सुनाई पड़े। इस तकनीक को समझने आज भी यहां आर्किटेक्चर और इतिहास के कई विद्यार्थी आते हैं। इसके उत्तरी हिस्से में पर्दे के खास इंतजाम के साथ जनाना नमाजगाह भी बनी है।
उस दौर में यहां औरतें भी नमाज अदा करतीं थीं। बेगम का ख्वाब पूरा करने सीहोर, रायसेन और दमोह से खास पत्थरों को बुलवाया गया था। वर्ष 1868 में इसकी तामीर शुरू हुई, जो हजारों मजदूरों के दिन-रात काम करने के साथ 1901 तक 14 साल तक जारी रही। सुल्तान शाहजहां बेगम का गाल के कैंसर की वजह से इंतकाल हो गया, लिहाजा उनका यह ख्वाब अधूरा रह गया। कुछ समय बाद उनके नवासे और भोपाल नवाब हमीदुल्लाह खान ने भी इसमें कुछ काम करवाया, लेकिन पैसों की कमी के कारण फिर काम रुक गया।
करीब पचास सालों के बाद इसका जिम्मा आलिमे दीन मौलाना इमरान खान नदवी के हाथों आया और उन्होंने इसमें 25 साल दिन-रात मेहनत कर 1958 में इसे मुकम्मल करवाया। दुनिया में इसकी पहचान आलमी तब्लीगी इज्तिमे के लिए भी होती रही है, जो 1948 से 2001 तक यहां होता था। इससे जुड़ा हुआ मोतिया तालाब वुजु करने के लिए बनाया गया था। मरहूम अख्तर हुसैन ने अपनी किताब में जिक्र करते हुए लिखा है कि मोतिया तालाब और ताजुल मस्जिद का कुल रकबा 14 लाख 52 हजार स्क्वायर फीट है, जो मदीने के बाद सबसे ज्यादा है।