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सम्भाजी

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सम्भाजी, जन्म: 14 मई, 1657, शिवाजी के ज्येष्ठ पुत्र और उत्तराधिकारी थे, जिसने 1680 से 1689 ई. तक राज्य किया। शम्भुजी आरम्भ से ही अभिमानी, क्रोधी एवं भोग विलासी हो गया था। अपनी मृत्यु के समय शिवाजी ने उसे पन्हाला के क़िले में क़ैद कर रखा था। शम्भुजी में अपने पिता की कर्मठता और दृढ़ संकल्प का अभाव था। वह विलास-प्रेमी था, किन्तु उसमें शौर्य की कमी न थी। 4 अप्रैल, 1680 ई. को शिवाजी की मृत्योपरान्त उनकी पत्नि सूर्याबाई ने अपने दस वर्षीय पुत्र राजाराम का अप्रैल, 1680 ई. में रायगढ़ महाराष्ट्र में राज्याभिषेक कर दिया, किन्तु शम्भुजी ने मराठा सेनापति हमीरराव मोहिते को अपने पक्ष में करके आक्रमण कर दिया। उसने सूर्याबाई एवं राजाराम को क़ैद कर लिया और रायगढ़ पर अधिकार करके 30 जुलाई, 1680 ई. को अपना राज्याभिषेक करवाया।

शम्भाजी की नीति
शम्भुजी ने नीलोपन्त को अपना पेशवा बनाया। उसने 1689 ई. तक शासन किया। कालान्तर में शम्भुजी के विरुद्ध राजाराम, सूर्याबाई और अन्नाजी दत्तो ने एक संगठन बना लिया, परन्तु शम्भुजी ने इस संघ को बर्बरतापूर्वक कुचलते हुए सौतेली माँ सूर्याबाई और कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण मराठा सरदारों की हत्या करवा दी। शम्भुजी ने उज्जैन के हिन्दी एवं संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान कविकलश को अपना सलाहकार नियुक्त किया। औरंगज़ेब के विद्रोही पुत्र अकबर को शरण देने के कारण शम्भुजी को मुग़ल सेनाओं के आक्रमण का सामना करना पड़ा। लगभग 9 वर्षों तक वह निरन्तर औरंगज़ेब की विशाल सेनाओं का सफलतापूर्वक सामना करता रहा।

शौर्यवान
संभाजी ने उन्होंने साहस एवं निडरता के साथ औरंगजेब की आठ लाख सेना का सामना किया तथा अधिकांश मुग़ल सरदारों को युद्ध में पराजित कर उन्हें भागने के लिए विवश कर दिया। 24 से 32 वर्षकी आयु तक शंभू राजा ने मुग़लों की पाश्विक शक्ति से लडाई की एवं एक बार भी यह योद्धा पराजित नहीं हुआ। इसलिए औरंगजेब दीर्घकाल तक महाराष्ट्र में युद्ध करता रहा। उसके दबाव से संपूर्ण उत्तर हिंदुस्तान मुक्त रहा। यदि उन्होंने औरंगजेब के साथ समझौता किया होता अथवा उसका आधिपत्य स्वीकार किया होता तो, वह दो-तीन वर्षों में ही पुन: उत्तर हिंदुस्तान में आ धमकता; परंतु संभाजी राजा के संघर्ष के कारण औरंगजेब को 27 वर्ष दक्षिण भारत में ही रुकना पडा। इससे उत्तर में बुंदेलखंड, पंजाब और राजस्थान में हिंदुओं की नई सत्ताएं स्थापित होकर हिंदू समाज को सुरक्षा मिली।

स्वराज्य का दूसरा छत्रपति
ज्येष्ठ शुद्ध 12 शके 1579, गुरुवार दिनांक 14 मई 1657 को पुरंदरगढ पर स्वराज्य के दूसरे छत्रपति का जन्म हुआ। शंभू राजा के जन्म के दो वर्ष पश्चात् इनकी माता सई बाई की मृत्यु हो गई एवं राजा मातृसुख से वंचित हो गए। परंतु जिजाऊ ने इस अभाव की पूर्ति की। जिस जिजाऊ ने शिवाजी को तैयार किया, उसी जिजाऊ ने संभाजी राजा पर भी संस्कार किए। संभाजी शक्ति संपन्नता एवं रूप सौंदर्य की प्रत्यक्ष प्रतिमा ही थे।

विश्व के प्रथम बालसाहित्यकार
14 वर्ष की आयु तक बुधभूषणम् (संस्कृत), नायिकाभेद, सातसतक, नखशिख (हिंदी) इत्यादि ग्रंथों की रचना करने वाले संभाजी विश्व के प्रथम बालसाहित्यकार थे। मराठी, हिंदी, फ़ारसी , संस्कृत, अंग्रेज़ी, कन्नड़ आदि भाषाओं पर उनका प्रभुत्व था। जिस तेजी से उन्होंने लेखनी चलाई, उसी तेजी से उन्होंने तलवार भी चलाई।

धर्म परिवर्तन के विरोध में कठोर नीति
‘मराठों एवं अंग्रेजों में 1684 में जो समझौता हुआ, उसमें छत्रपति संभाजी महाराज ने एक ऐसी शर्त रखी थी कि अंग्रेजों को मेरे राज्य में दास (ग़ुलाम) बनाने अथवा ईसाई धर्म में कलंकित करने हेतु लोगों का क्रय करने की अनुज्ञा नहीं मिलेगी’[1]

हिंदुओं के शुद्धीकरण के लिए निरंतर सजग
संभाजी महाराज ने ‘शुद्धीकरणके लिए’ अपने राज्य में स्वतंत्र विभाग की स्थापना की थी। छत्रपति संभाजी महाराज एवं कवि कलश ने बलपूर्वक धर्म परिवर्तन कर मुसलमान बनाए गए हरसुल के ब्राह्मण गंगाधर कुलकर्णी को शुद्ध कर पुनः हिंदू धर्म में परिवर्तित करने का साहस दिखाया। (यह एक साहस ही था; क्योंकि उस समय ऐसे हिंदुओं को पुनः अपने धर्म में लेने के लिए हिंदुओं द्वारा ही अत्यधिक विरोध होता था। इसलिए गंगाधर को त्र्यंबकेश्वर भेजकर वहां की प्रायश्चित्त विधि पूरी करा ली गई। उसे शुद्धिपत्र देकर अपनी पंक्ति में भोजन के लिए बिठाकर पुनर्प्रवेश करा लिया गया।)’ संभाजी राजा की इस उदारता के कारण बहुत से हिंदु पुनः स्वधर्म में आ गए।

फोंडा का गढ पुर्तग़ाली-मराठा सीमा पर था। गोवा की पुर्तग़ाली सत्ता को उकसाने तथा उस सत्ता को पूरी तरह से उखाडने के लिए घेरा देने का जो प्रयास छत्रपति शिवाजी महाराज ने किया था, उसमें फोंडा गढ एक महत्त्वपूर्ण दुवा था। उसका नाम था ‘मर्दनगढ’ । पुर्तग़ालियों ने मर्दनगढ के तट पर तोपों का वर्षाव चालू रखा। तट में और एक दरार पड़ी। 9 नवंबर को पुर्तग़ालियों ने घाटी से अंदर प्रवेश करने का षडयंत्र रचा। उस समय संभाजी महाराज राजापुर में थे। उनका ध्यान इस लड़ाई पर केंद्रित था। महाराज ने फोंडा के मोरचे पर स्वयं उपस्थित रहने का निश्चय किया। वे शीघ्रता से फोंडा पहुंचे। उनका हठ एवं ईर्ष्या इतनी दुर्दम्य थी कि उन्होंने 800 सवारों की सुरक्षा में 600 पैदल सैनिकों को भली-भांति किले में पहुंचाया। पुर्तग़ाली उनके धैर्य एवं निडर मानसिकता को देखते ही रह गए। उन्हें उन पर आक्रमण करने का भान भी नहीं रहा। संभाजी महाराज युद्ध में सम्मिलित हुए, यह देखते ही वाइसरॉय ने अपने मन में ऐसा पक्का निश्चय किया कि यह युद्ध उसे बहुत महंगा पडेगा। महाराज की उपस्थिति देखकर मराठों को होश आया। किल्लेदार येसाजी कंक छत्रपति शिवाजी महाराज के समय का योद्धा था। अब वह वृद्ध हो चुका था; परंतु उसमें युवक को हटाने की शूरता, धीरता एवं सुदृढता थी। इस वृद्ध युवक ने पराक्रम की पराकाष्ठा की उसने अपने लडके कृष्णाजी के साथ चुनिंदे सिपाहियों को साथ लेकर गढ के बाहर जाकर पुर्तग़ालियों से लड़ाई की। जिनके साथ वे लड़े, उनको उन्होंने पूरी तरह पराजित किया; परंतु इस मुठभेड में येसाजी एवं उनके सुपुत्र कृष्णाजी को भयानक चोट लगी। 10 नवंबर को पुर्तग़ालियों ने लौटना आरंभ किया। मराठों ने उन पर छापे मारकर उन्हें अत्यधिक परेशान किया। तोप तथा बंदूकों को पीछे छोडकर उन्हें पलायन करना पड़ा। छत्रपति संभाजी राजा की मृत्यु तक पुर्तग़ाली एवं छत्रपति संभाजी दोनों में युद्ध चालू रह । तब तक मराठों ने पुर्तग़ालियों के नियंत्रण में रहने वाला जो प्रदेश जीत लिया था, उसका बहुत सा अंश मराठों के नियंत्रणमें था। गोवा के गवर्नर द रुद्रिगु द कॉश्त 24 जनवरी 1688 को पुर्तग़ाल के राजा को लिखते हैं : ‘…छत्रपति संभाजी राजा से चल रहा युद्ध अब तक समाप्त नहीं हुआ। यह युद्ध वाइसरॉय कॉट द आल्वेर के राज्यकाल में आरंभ हुआ था।’

बहनोई गणोजी शिर्के की बेईमानी के कारण घेराव
येसुबाई के वरिष्ठ बंधु अर्थात शंभूराजा के बहनोई, गणोजी शिर्के हिंदवी स्वराज्य से बेईमान हो गए। जुल्फ़िकार खान रायगढ पर आक्रमण करने आ रहा है यह समाचार मिलते ही शंभूराजा सातारा-वाई-महाड मार्ग से होते हुए रायगढ लौटने वाले थे; परंतु मुक़र्रब ख़ाँ कोल्हापुर तक आ पहुंचा। इसलिए शंभूराजा ने संगमेश्वर मार्ग के चिपलन-खेड मार्ग से रायगढ जाने का निश्चय किया। शंभूराजे के स्वयं संगमेश्वर आने की वार्ता आसपास के क्षेत्र में हवा समान फैल गई। शिर्के के दंगों के कारण उद्ध्वस्त लोग अपने परिवार लेकर संभाजीराजा के पास आने लगे। जनता के परिवार को समझकर उनका समाधान करने में उनका समय व्यय हो गया एवं संगमेश्वर में 4-5 दिन तक निवास करना पड़ा। उधर राजा को पता चला कि कोल्हापुर से मुक़र्रब ख़ाँ निकलकर आ रहा है। कोल्हापुर से संगमेश्वर की दूरी 90 मील थी तथा वह भी सह्याद्रि की घाटी से व्याप्त कठिन मार्ग था। इसलिए न्यूनतम 8-10 दिन के अंतर वाले संगमेश्वर को बेईमान गणोजी शिर्के ने मुकर्र बखान को समीप के मार्ग से केवल 4-5 दिन में ही लाया। संभाजी से प्रतिशोध लेने के उद्देश्य से शिर्के ने बेईमानी की थी तथा अपनी जागीर प्राप्त करने हेतु यह कुकर्म किया। अतः 1 फ़रवरी 1689 को मुक़र्रब ख़ाँ ने अपनी 3 हज़ार सेना की सहायता से शंभू राजा को घेर लिया।

घेराव तोड़ने का असफल प्रयास
जब शंभूराजे के ध्यान में आया कि संगमेश्वर में जिस सरदेसाई के बाडे में वे निवास के लिए रुके थे, उस बाडे को खान ने घेर लिया, तो उनको आश्चर्य हुआ, क्योंकि उन्हें ज्ञात था कि इतने अल्प दिनों में खान का वहां आना असंभव था; परंतु यह चमत्कार केवल बेईमानी का था, यह भी उनके ध्यान में आया। शंभू राजा ने पूर्व से ही अपनी फौज रायगढ के लिए रवाना की थी तथा केवल 400-500 सैन्य ही अपने पास रखे थे। अब खान का घेराव तोड़ कर रायगढ की ओर प्रयाण करना राजा के समक्ष एकमात्र यही पर्याय शेष रह गया था; इसलिए राजा ने अपने सैनिकों को शत्रुओं पर आक्रमण करने का आदेश दिया। इस स्थिति में भी शंभुराजे, संताजी घोरपडे एवं खंडोबल्लाळ बिना डगमगाए शत्रु का घेराव तोड़कर रायगढ की दिशा में गति से निकले। दुर्भाग्यवश इस घमासान युद्ध में मालोजी घोरपडे की मृत्यु हो गई; परंतु संभाजी एवं कवि कलश घेराव में फंस गए। इस स्थिति में भी संभाजी ने अपना घोड़ा घेराव के बाहर निकाला था; परंतु पीछे रहने वाले कवि कलश के दाहिने हाथ में मुक़र्रब ख़ाँ का बाण लगने से वे नीचे गिरे एवं उन्हें बचाने हेतु राजा पुनः पीछे मुड़े तथा घेराव में फंस गए।

अपनों की बेइमानी के कारण राज का घात
इस अवसर पर अनेक सैनिकों के मारे जाने के कारण उनके घोड़े इधर-उधर भाग रहे थे। सर्वत्र धूल उड़ रही थी। किसी को भी स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा था। इसका लाभ उठाकर शंभू ने पुनः सरदेसाई के बाडे में प्रवेश किया। वहां पर मात्र उनका घोड़ा था। धूल स्थिर होने पर गणोजी शिर्के ने शंभूराजा के घोड़े को पहचान लिया; क्योंकि राजाओं के घोड़े के पांव में सोने का तोड़ा रहता था, यह शिर्के को ज्ञात था; इसलिए उन्होंने खान की सेना को समीप में ही संभाजी को ढूंढने की सूचना की। अंतत: मुक़र्रब ख़ाँ के लड़के ने अर्थात इरवलास खान ने शंभूराजा को नियंत्रण में ले लिया। अपनों की बेईमानी के कारण अंत में सिंह का शावक शत्रु के हाथ लग ही गया। जंग पछाडकर भी निरंतर 9 वर्षों तक जो सात लाख सेना के हाथ नहीं लगा, जिसने बादशाह को कभी स्वस्थ नहीं बैठने दिया, ऐसा पराक्रमी योद्धा अपने लोगों की बेईमानी के कारण मुग़लों के जाल में फंस गया।

शम्भुजी को देखने के लिए मुग़ल सेना आतुर
संगमेश्वर से बहादुरगढ की दूरी लगभग 250 मील की है; परंतु मुक़र्रब ख़ाँ ने मराठों के भय से केवल 13 दिनों में यह दूरी पार की एवं 15 फ़रवरी 1689 को शम्भुजी तथा कवि कलश को लेकर वह बहादुरगढ में प्रवेश किया। पकड़े गए संभाजी कैसे दिखाई देते हैं, यह देखने के लिए मुग़ल सेना उत्सुक हो गई थी। औरंगजेब की छावनी अर्थात बाज़ार बुणगों का विशाल नगर ही था। छावनी का घेरा 30 मील का था, जिसमें 60 सहस्र घोड़े, 4 लाख पैदल, 50 सहस्र ऊंट, 3 सहस्र हाथी, 250 बाज़ार पेठ तथा जानवर कुल मिलाकर 7 लाख अर्थात बहुत बडी सेना थी। इसके पश्चात् भी आयु के 24वें से 32वें वर्ष तक शंभुराजा ने मुग़लों की पाश्विक शक्ति से लड़ाई की तथा यह योद्धा एक बार भी पराजित न हुआ।

प्रखर हिन्दू धर्माभिमानी
मुक़र्रब ख़ाँ ने शंभु राजा एवं कवि कलश को जेर बंद कर हाथी पर बांधा। संभाजी राजा का, विदुषक की वेश-भूषा में, उस समय चित्रकार द्वारा बनाया गया चित्र हाथ पैरों को लकड़ी में फंसाकर रक्तरंजित अवस्था में, अहमदनगर के संग्रहालय में आज भी देखा जा सकता है। असंख्य यातनाएं सहने वाले यह हिंदू राजा चित्र में अत्यंत क्रोधित दिखाई देते हैं। संभाजी राजा के स्वाभिमान का परिचय इस क्रोधित भाव भंगिमा से ज्ञात होता है। जिस समय धर्मवीर छत्रपति संभाजी महाराज एवं कवि कलश को लेकर मुक़र्रब ख़ाँ छावनी के पास आया, उस समय औरंगजेब ने उसके स्वागत के लिए सरदार खान को भेजा। संभाजी महाराज वास्तव में पकड़े गए, यह देखकर बादशाह को अत्यानंद हुआ। अल्ला के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु बादशाह तख्त से नीचे उतरा एवं घुटने टेककर ‘रूकता’ कहने लगा। कवि कलश बाजू में ही खडे थे। यह दृष्य देखकर शीघ्र ही कवि कलश ने एक काव्य कहा,

यावन रावन की सभा संभू बंध्यो बजरंग ।
लहू लसत सिंदूरसम खुब खेल्यो रनरंग ।।
जो रवि छवि लछत ही खद्योत होत बदरंग ।
त्यो तुव तेज निहारी ते तखत त्यज्यो अवरंग ।।

अर्थ : जिस प्रकार रावण की सभा में हनुमानजी को लाया गया था, उसी प्रकार संभाजी राजा को औरंगजेब के समक्ष उपस्थित किया गया है। जैसे हनुमानजी की देह पर सिंदूर शोभित होता है, वैसे ही भीषण युद्ध में देह रक्त से सन गई है। इसलिए हे राजन, तुझे यह सुशोभित कर रहा है। जिस प्रकार सूरज को देखते ही जुगनू का प्रकाश नष्ट होता है, उसी प्रकार तेरा तेज देखकर औरंगजेब ने अपने सिंहासन का त्याग किया है। इस कविता से अपमानित होकर औरंगजेब ने कवि कलश की जीभ काटने की आज्ञा दी। बादशाह के समक्ष खडा करने पर इखलास खान द्वारा बार बार अभिवादन करने को कहने पर भी शंभु राजा ने तनिक भी गर्दन नहीं हिलाई एवं बादशाह को थोड़ा भी महत्त्व नहीं दिया। इसके विपरीत वे संतप्त होकर बादशाह की ओर देख रहे थे। संतप्त बादशाह ने उन्हें उसी अवस्था में कारागृह में डालने का आदेश दिया।

शारीरिक एवं मानसिक यातनाएँ
शंभूराजा एवं कवि कलश की आंखों में तपती सलाखें घुमाकर उनकी आंखें फोड़ी गई। तत्पश्चात् दोनों की जिह्वाएं काटी गई। उस दिन से दोनों ने अन्न-जल का त्याग किया। मुसलमानी सत्ताओं की परंपरा के अनुसार यह कोई नई बात नहीं थी। उनको अत्यंत क्रूरता एवं निर्दयता से शत्रु का नाश करने की धर्माज्ञा ही है; परंतु एक स्वतंत्र राजा को ऐसी ही क्रूर पद्धति से हलाहल करना अमानवीयता की चरमसीमा है। यह घटना 17 फ़रवरी 1689 को घटित हुई। तदुपरांत कविराजा के हाथ, पांव ऐसे एक-एक अवयव तोड़े गए एवं वे रक्त मांस नदी के किनारे पर फेंके गए। पंधरा मैल की परिधि में फैले इस बादशाह के तल पर अत्यधिक सन्नाटा फैला था। कवि कलश को हलाहल कर मारे जाने का समाचार सर्वत्र फैल गया था। मानों कवि कलश पर होने वाले अत्याचार शंभुराजा पर किए जाने वाले प्रत्येक अत्याचार का पूर्व प्रयोग ही होता था।

इतिहास में धर्म के लिए अमर
12 मार्च 1689 को गुड़ी पड़वा (नववर्षारंभ) था। हिंदुओं के त्यौहार के दिन उनका अपमान करने के लिए 11 मार्च फाल्गुन अमावस्या के दिन संभाजी राजाजी की हत्या कर दी गई। उनका मस्तक भाले की नोक पर लटकाकर उसे सर्व ओर घुमाकर मुग़लों ने उनका अत्यधिक अपमान किया। इस प्रकार 1 फरवरी से 11 मार्च तक 39 दिन यम यातना सहन कर संभाजी राजा ने हिंदुत्व के तेज को बढ़ाया। धर्म के लिए अपने प्राणों को न्योछावर करने वाले, हिंदवी स्वराज्य का विस्तार कर पूरे हिंदुस्तान में भगवा ध्वज फहराने की इच्छा रखने वाले संभाजी राजा इतिहास में अमर हो गए। औरंगजेब इतिहास में राजधर्म को पैरों तले रौंदने वाला अपराधी बन गया।

बलिदान के पश्चात् महाराष्ट्र में क्रांति
संभाजी राजा के बलिदान के कारण महाराष्ट्र उत्तेजित हो उठा। औरंगजेब के साथ मराठों का निर्णायक संघर्ष आरंभ हुआ। ‘पत्ते-पत्ते की तलवार बनी और घर-घर किला बन गया, घर-घर की माताएं, बहनें अपने पतियों को राजाजी के बलिदान का प्रतिशोध लेने को कहने लगीं’ इस प्रकार उस काल का सत्य वर्णन किया गया है। संभाजी राजा के बलिदान के कारण मराठों का स्वाभिमान पुन: जागृत हुआ, महारानी येसुबाई, तारा रानी, संताजी घोरपडे, धनाजी जाधव, रामचंद्रपंत अमात्य, शंकराजी नारायण समान मराठा वीर-वीरांगनाओं का उदय हुआ। यह तीन सौ वर्ष पूर्व के राष्ट्रजीवन की अत्यंत महत्त्वपूर्ण गाथा है। इससे इतिहास को एक नया मोड़ मिला। जनता की सहायता और विश्वास के कारण मराठों की सेना बढ़ने लगी और सेना की संख्या दो लाख तक पहुंच गई। सभी ओर प्रत्येक स्तर पर मुग़लों का घोर विरोध होने लगा। अंत में 27 वर्ष के निष्फल युद्ध के उपरांत औरंगजेब का अंत हुआ और मुग़लों की सत्ता शक्ति क्षीण होने लगी एवं हिंदुओं के शक्तिशाली साम्राज्य का उदय हुआ।[2]

हत्या
यह संघर्ष फ़रवरी, 1689 ई. में तब समाप्त हुआ, जब मुग़ल सेनापति मुकर्रब ख़ाँ ने संगमेश्वर में छिपे हुए शम्भुजी एवं कवि कलश को गिरफ़्तार कर लिया। 21 मार्च, 1689 ई. को शम्भुजी की हत्या कर उसकी खाल में भूसा भरवा दिया गया। इसे इतिहास का एक बर्बर हत्याकाण्ड माना जाता है।

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