पंचायत वेब सीरीज में बेहतरीन एक्टिंग कर सभी का दिल जीतने वाले जितेंद्र कुमार अब चमन बहार लेकर आए हैं. ये कोई सीरीज तो नहीं है, लेकिन दो घंटे लंबी एक फिल्म है जिसे नेटफ्लिक्स पर रिलीज किया गया है. अब हम आपको फिल्म की कहानी भी बताएंगे, कलाकारों की एक्टिंग के बारे में भी बात करेंगे, लेकिन पहले मन में कुछ सवाल उठते हैं- क्या बॉलीवुड हमेशा एक नेता को नेगेटिव लाइट में दिखाएगा? मतलब कोई नेता है तो क्या वो सिर्फ गुंडागर्दी करेगा. क्या हमेशा गांव के लड़कों को ही फिल्म में बतौर लफंडर दिखाया जाएगा? सवाल तो और भी हैं लेकिन अभी जरा समझ लेते हैं कि कैसी बनी है अपूर्व धर की फिल्म चमन बहार.
कहानी
कहानी की शुरूआत में ही हमें पता चल जाता है कि बिल्लू (जितेंद्र कुमार) अपनी अलग पहचान बनाना चाहता है. उसके पिता वन विभाग में चौकीदार रहे हैं, लेकिन ये जनाब कुछ अलग करना चाहते हैं. ये गांव में अपने आप को फेमस होते हुए देखना चाहते हैं. इसलिए वो लेते हैं अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा फैसला. वो पिता के पास जाकर सीधे बोल देते हैं- हम गांव में पान की दुकान खोलेंगे. अब पिता ने तो जाहिर सी बात है मना किया, लेकिन बिल्लू ने तो मन में ठान ली थी. वो अपनी पान की दुकान लगा ही लेता है. अब जहां वो अपनी पान की दुकान लगाता है वहां एक चीटी तक नहीं आती. इंसानों का तो दूर-दूर तक वास्ता नहीं दिखता. लेकिन फिर किस्मत पल्टी मारती है और उस इलाके में एक परिवार रहने आ जाता है.
परिवार में है रिंकू नाम की लड़की जो ‘स्कूल’ जाती है. उस से प्यार कर बैठे हैं बिल्लू और गांव के बाकी लड़के, जिन्होंने आज से पहले कभी किसी मॉर्डन लड़की को शायद नहीं देखा है. अब क्योंकि बिल्लू की दुकान के सामने रिंकू का घर है तो सभी आवारा लफंडर भी वहीं डेरा जमा लेते हैं. कभी कैरम खेल टाइम पास करते हैं तो कभी पान खा. वैसे बता दें कि गांव के ‘शरीफ’ लोग उस लड़की का पीछा भी करते हैं. लेकिन सच्चा प्यार तो सिर्फ बिल्लू करता है. तो बस यही कहानी है. फिल्म देख आपको पता चल ही जाना है कि क्या रिंकू, बिल्लू से प्यार करती है या नहीं? क्या बिल्लू फेमस बन पाता है या नहीं.
स्टॉकिंग को प्रमोट करेंगे?
अब चमन बहार को लेकर तो कई शिकायतें हैं. कहानी पर तो बाद में बात करते हैं, लेकिन यहां तो यही समझ नहीं आ रहा कि क्या फिल्म स्टॉकिंग को सपोर्ट करती है. मतलब लड़की को स्टॉक करो, उसे घूरो तो तुम हीरो बन जाओगे? अब ऐसा हम नहीं बल्कि ये फिल्म दिखाने की कोशिश करती है, वो भी एक बार नहीं, कई बार. लड़की को छोटे कपड़े में दिखा दिया तो मतलब हर कोई अब गलत नजर से देखेगा? पूरी फिल्म में बस यही देखने को मिलता है. कहानी के नाम पर आप दो घंटे तक कुछ छिछोरे लड़कों की स्टॉकिंग देखते हैं. आप देखते हैं कि कैसे एक दुकानदार से लेकर नेता तक, हर कोई एक लड़की के पीछे पड़ा है.
हैरानी तो इस बात की भी है कि इस फिल्म में कोई क्लाइमेक्स ही नहीं है. जी हां, फिल्म एक दम सपाट है. एक गति से चलती है और बस चलती रहती है और खत्म हो जाती है. ना कोई नाटकीय मोड़, ना कोई सस्पेंस, संदेश तो आप छोड़ ही दीजिए.
एक्टिंग
एक कलाकार का काम सिर्फ एक्टिंग करना ही नहीं होता है बल्कि उस किरदार को जीना होता है. अब चमन बहार का कॉन्सेप्ट जरूर कमजोर है, लेकिन कलाकारों ने अपने किरदार के साथ न्याय किया है. जो उन्हें करने को कहा, उन्होंने वहीं कर दिया है. जितेंद्र कुमार का बिल्लू वाला रोल थोड़ा अजीब तो है, लेकिन एक्टर की मेहनत की तारीफ होनी चाहिए. एक भाषा को पकड़कर लगातार बोलना आसान नहीं है. उनका काम बढ़िया कहा जाएगा. वही फिल्म में नेता के रूप में आलम खान का काम ठीक-ठाक रहा है. कई सीन्स में ऐसा लगता है कि वो अपनी उम्र से बड़ा रोल निभा रहे हैं. बाकी सहकलाकारों में सभी की एक्टिंग औसत कही जाएगी.