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मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया

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डॉ. मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया को आज भी “आधुनिक भारत के विश्वकर्मा” के रूप में बड़े सम्मान के साथ स्मरण किया जाता है। अपने समय के बहुत बड़े इंजीनियर, वैज्ञानिक और निर्माता के रूप में देश की सेवा में अपना जीवन समर्पित करने वाले डॉ. मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया को भारत ही नहीं वरन् विश्व की महान् प्रतिभाओं में गिना जाता है।

जीवन परिचय
सर एम. विश्वेश्वरैया के जन्मदिन को ‘अभियन्ता दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया बहुत ही सौम्य विधारधारा वाले इंसान थे। मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया का जन्म मैसूर (जो कि अब कर्नाटक में है) के ‘मुद्देनाहल्ली’ नामक स्थान पर 15 सितम्बर, 1861 को हुआ था। बहुत ही ग़रीब परिवार में जन्मे विश्वेश्वरैया का बाल्यकाल बहुत ही आर्थिक संकट में व्यतीत हुआ। उनके पिता वैद्य थे। वर्षों पहले उनके पूर्वज आंध्र प्रदेश के ‘मोक्षगुंडम’ से यहाँ पर आये और मैसूर में बस गये थे। दो वर्ष की आयु में ही उनका परिचय रामायण, महाभारत और पंचतंत्र की कहानियों से हो गया था। ये कहानियाँ हर रात घर की वृद्ध महिलाएँ उन्हें सुनाती थीं। कहानियाँ शिक्षाप्रद व मनोरंजक थी। इन कहानियों से विश्वेश्वरैया ने ईमानदारी, दया और अनुशासन जैसे मूल्यों को आत्मसात किया।

सूझबूझ
विश्वेश्वरैया जब केवल 14 वर्ष के थे, तभी उनके पिता की मृत्यु हो गई। क्या वह अपनी पढ़ाई जारी रखें ? इस प्रश्न पर तब विचार-विमर्श हुआ जब उन्होंने अपनी माँ से कहा, ‘अम्मा, क्या मैं बंगलौर जा सकता हूँ? मैं वहाँ पर मामा रमैया के यहाँ रह सकता हूँ। वहाँ मैं कॉलेज में प्रवेश ले लूंगा।’ ‘पर बेटा….तुम्हारे मामा अमीर नहीं हैं। तुम उन पर बोझ बनना क्यों चाहते हो?’ उनकी माँ ने तर्क दिया। ‘अम्मा, मैं अपनी ज़रुरतों के लिए स्वयं ही कमाऊँगा। मैं बच्चों का ट्युशन पढ़ा दूँगा। अपनी फ़ीस देने और पुस्तकें ख़रीदने के लिए मैं काफ़ी धन कमा लूँगा। मेरे ख्याल से मेरे पास कुछ पैसे भी बच जायेंगे। जिन्हें मैं मामा को दे दूँगा।’ विश्वेश्वरैया ने समझाया। उनके पास हर प्रश्न का उत्तर था। समाधान ढंढने की क्षमता उनके पूरे जीवन में लगातार विकसित होती रही और इस कारण वह एक व्यावहारिक व्यक्ति बन गये। यह उनके जीवन का सार था और उनका संदेश था- ‘पहले जानो, फिर करो।’ ‘जाओ मेरे पुत्र, भगवान तुम्हारे साथ है।’ उनकी माँ ने कहा। उनके मामा ने बहुत गर्मजोशी से उनका स्वागत किया। विश्वेश्वरैया ने उन्हें अपनी योजना बताई। मामा ने प्यार से उन्हें थपथपाते हुए कहा, ‘तुम बहुत होशियार हो। तुम्हें अच्छी से अच्छी शिक्षा मिलनी चाहिए।’

शिक्षा
पढ़ने लिखने में बाल्यकाल से ही तीव्र बुद्धि के स्वामी विश्वेश्वरैया ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा गांव के प्राइमरी स्कूल से प्राप्त की। विश्वेश्वरैया ‘चिक्बल्लापुर’ के मिडिल व हाईस्कूल में पढ़े। आगे की शिक्षा के लिए उन्हें बैंगलोर जाना पड़ा। आर्थिक संकटों से जुझते हुए उन्होंने अपने रिश्तेदारों और परिचितों के पास रहकर और अपने से छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर किसी तरह बड़े प्रयास से अपना अध्ययन ज़ारी रक्खा। 19 वर्ष की आयु में बैंगलोर के कॉलेज से उन्होंने बी.ए. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इस कॉलेज के प्रिंसिपल, जो एक अंग्रेज़ थे, विश्वेश्वरैया की योग्यता और गुणों से बहुत प्रभावित थे। उन्हीं प्रिंसिपल साहेब के प्रयास से उन्हें पूना के इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश मिल गया। अपनी शैक्षिक योग्यता के बल पर उन्होंने छात्रवृत्ति प्राप्त करने के साथ साथ पूरे मुम्बई विश्वविद्यालय में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त की। सन् 1875 में विश्वेश्वरैया ने ‘सेन्ट्रल कॉलेज’ में प्रवेश लिया। उनके मामा उन्हें मैसूर राज्य सरकार के एक उच्च अधिकारी ‘मुडइया’ के पास ले गये। मुडइया के दो छोटे बच्चे थे। बच्चों को पढ़ाने के लिए विश्वेश्वरैया को रख लिया गया। उन्होंने अपने संरक्षक का धन्यवाद दिया। उन्होंने तुरन्त ही कार्य आरम्भ कर दिया। प्रतिदिन वह अपने मामा के घर से अपने कॉलेज और मुडइया के घर आने-जाने के लिए पन्द्रह किलोमीटर से ज़्यादा चलते। बाद में जब उनसे अच्छे स्वास्थ्य का रहस्य पूछा गया, तो उन्होंने कहा, ‘मैंने चलकर अच्छा स्वास्थ्य पाया है।’ अपने काम में उन्होंने अपनी समस्त मुश्किलों का मरहम पाया। ईमानदारी और निष्ठा से उन्होंने अपने कार्य को आभा प्रदान की। इससे ‘सेन्ट्रल कॉलेज’ के प्रिंसिपल चार्ल्स का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हुआ। जब विश्वेश्वरैया ने जटिल गणितीय समस्याओं का सरल समाधान कर दिया तो प्रिंसिपल ने उनसे कक्षा के अन्य छात्रों को यह समाधान सिखाने को कहा। इससे विश्वेश्वरैया का आत्मविश्वास बढ़ा।

वाटर्स का उपहार
अपने प्रिय छात्र पर कॉलेज के दौरान और कॉलेज छोड़ने पर भी वाटर्स कड़ी नज़र रखते रहे। वह इंग्लैंड लौट गये पर अपने भूतपूर्व छात्र में गहरी दिलचस्पी लेते रहे। अपनी वसीयत में वे उपहार के रूप में विश्वेश्वरैया के लिए अपना ‘कफलिंक’ छोड़ गये। श्रीमती वाटर्स इग्लैंड से उन्हें यह उपहार देने के लिए स्वयं आईं। उस समय विश्वेश्वरैया बम्बई के ‘लोक निर्माण विभाग’ में ‘इंजीनियर’ के पद पर कार्यरत थे। डिग्री परीक्षा में सन् 1880 में विशिष्टता के साथ सफल होने के पश्चात् विश्वेश्वरैया ने पुणे के ‘साइन्स कॉलेज’ में प्रवेश लिया। मैसूर राज्य सरकार से छात्रवृत्ति पाने के कारण ही वह ऐसा कर पाये थे। सन् 1883 में ‘सिविल इंजीनियरिंग’ के समस्त छात्रों में वह ‘प्रथम’ आये। तुरन्त ही उन्हें बम्बई के लोक निर्माण विभाग में सहायक इंजीनियर की नौकरी मिल गई।

कार्यक्षेत्र
अपनी शैक्षिक योग्यता के बल पर उन्होंने छात्रवृत्ति प्राप्त करने के साथ साथ पूरे मुम्बई विश्वविद्यालय में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त की। इसी सफलता के आधार पर उन्हें मुम्बई में असिस्टैंट इंजीनियर के पद पर नियुक्ति मिली। उस समय ब्रिटिश शासन था। अधिकांश उच्च पदों पर अंग्रेज़ों की ही नियुक्ति होती थी। ऐसे में उच्च पद पर नियुक्त विश्वेश्वरैया ने अपनी योग्यता और सूझबूझ द्वारा बड़े बड़े अंग्रेज़ इंजीनियरों को अपनी योग्यता और प्रतिभा का लोहा मनवा दिया। अपने इस पद पर रहते हुए उन्होंने सबसे पहली सफलता प्राकृतिक जल स्रोत्रों से घर घर में पानी पहुँचाने की व्यवस्था करना और गंदे पानी की निकासी के लिए नाली – नालों की समुचित व्यवस्था करके प्राप्त की। प्रथम चरण में ही उन्होंने बैंगलोर, पूना, मैसूर, बड़ौदा, कराची, हैदराबाद, ग्वालियर, इंदौर, कोल्हापुर, सूरत, नासिक, नागपुर, बीजापुर, धारवाड़ सहित अनेक नगरों को प्रत्येक प्रकार के जल संकट से मुक्त करा दिया। सन् 1884 में विश्वेश्वरैया ने अपना सरकारी जीवन शुरू किया। यह वह समय था, जब राष्ट्रीयता की भावना बहुत से प्रतिष्ठित व्यक्तियों का ध्यान अपनी ओर खींच रही थी। महादेव गोविंद पाण्डे रानाडे, गोपाल कृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक राष्ट्रीयता की भावना को फैलाने में अग्रणी थे। वे सरकारी पदों पर भारतीयों को ज़्यादा स्थान दिलाने के लिए दवाब डाल रहे थे। वे जोश से भारतीय स्वतंत्रता की बात करते। विश्वेश्वरैया अपना कार्य करते रहे। लेकिन उनकी सहानुभूति स्वतंत्रता के कार्य के साथ थी। उन्हें लगा कि अनेक कार्य जो उन्हें सौंपे गये हैं, वे लोगों का जीवन स्तर सुधारने के लिए आवश्यक हैं। उनके रास्ते में अनेक मुश्किलें और चुनौतियाँ आईं।

वैज्ञानिक आविष्कार
विश्वेश्वरैया को सन् 1894-95 में सिन्ध (जो कि अब पाकिस्तान में है) के सक्खंर क्षेत्र में पीने के पानी की वितरण परियोजना का कार्य पूरा करने का काम सौंपा गया। उन्होंने इस कार्य को स्वीकार कर लिया। वह नगर में पहुँचे और जब उन्होंने सिन्धु नदी का सर्वेक्षण और परीक्षण किया, तो उन्हें गहरा आघात लगा। पानी गंदला व मिट्टी से भरा हुआ था। जो कि मनुष्यों के इस्तेमाल के लिए पूर्णतया बेकार था। पानी को कैसे स्वच्छ किया जाए, इसके लिए उन्होंने तकनीकी पत्रों, व्यावसायिक पत्रिकाओं और रसायन की किताबों को पढ़ा। इस समस्या पर चिन्तन करते हुए उन्होंने कई रातें जागकर बिताईं। फिर समाधान निकल आया। उन्होंने पहले क्यों नहीं इस विकल्प के बारे में सोचा। वह प्रकृति की असीमित प्रक्रिया को समझ गये थे। वह पानी को छानने के लिए नदी की रेत का इस्तेमाल कर सकते हैं। उन्होंने परियोजना की रूपरेखा बनाई, डिजाइन को तैयार किया और कितनी कीमत लगेगी, इसका अनुमान लगाया। अपने साथ काम करने वालों को उन्होंने योजना के लाभ बताये। उनसे उनके विचार पूछे और यह पता लगा कि वे पूर्णतया सहमत हैं। नदी के तल में एक गहरा कुंआ बनाया जाए। कुंए तक पहुँचने से पहले पानी रेत की अनगिनत परतों में से गुजरेगा। जैसे ही पानी इस प्रक्रिया से रिसेगा, वह स्वच्छ हो जायेगा। रेत की असंख्य परतों से छन कर निकला हुआ पानी मनुष्य इस्तेमाल के योग्य होगा। अदन (दक्षिणी यमन) जो कि उस समय ब्रिटिश उपनिवेश था, के लिये पानी वितरण के लिए भी उन्होंने इसी सिद्धान्त को लागू किया। इस प्रकार जो कीमत थी, वह कम हो गई। इस नवीन कार्य के लिए सरकार ने विश्वेश्वरैया ‘केसर-ए-हिन्द’ की उपाधि से सम्मानित किया।

मौलिकता और प्रवीणता
पानी की व्यवस्था करने में वैज्ञानिक तरीकों का आविष्कार करके विश्वेश्वरैया ने अपनी मौलिकता और प्रवीणता का परिचय दिया। उसमें स्वचालित जलद्वार और सिंचाई की खण्ड पद्धति भी शामिल है। बाढ़ के पानी को नियंत्रित करने के लिए उन्होंने खड़गवासला बांध पर जलद्वारों का प्रयोग किया। उन्होंने उस झील के पानी के स्तर को बढ़ाया, जिसके कारण पुणे शहर को पानी मिलता था। वह अपने ‘मेमॉयर्स आफ माई वर्किंग लाइफ’ (मेरे कामक़ाज़ी जीवन के संस्मरण 1951) में लिखते हैं कि’अतिरिक्त वीयर की चोटी के ऊपर छ: से लेकर आठ फीट की ऊँचाई तक हर साल जलाशय से पानी निकल जाता था। झील के पानी के स्तर को स्थाई रूप से संचित करने के लिए मैंने स्वचालित जलद्वार की पद्धति की रूपरेखा बनाई, मूल अतिरिक्त वीयर से क़रीब आठ फुट ऊँची। इससे बांध को बिना बढ़ाये जलाशय में 25 प्रतिशत संचय क्षमता बढ़ गई। जलद्वार झील में तब तक पानी को रोके रखता है, जब तक वह पिछली बाढ़ की ऊँचाई तक नहीं बढ़ जाता है। लेकिन जब भी पानी स्तर से ऊँचा उठता है, जलद्वार स्वत: ही खुल जाते हैं और अतिरिक्त पानी को निकलने देते हैं। फिर से झील में पानी का स्तर जब अतिरिक्त वीयर के ऊँपर आठ फुट गिरता है, तो जलद्वार स्वत: ही बंद हो जाते हैं और पानी का नुक़सान होने से रोक देते हैं

लेखक के रूप में
जब उन्होंने नौकरी छोड़ी तब उनकी आयु 58 वर्ष से अधिक थी। कोई और व्यक्ति होता तो लम्बी व सार्थक नौकरी के बाद अपने अवकाश पर आनन्द उठाता, पर विश्वेश्वरैया ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने ‘भारत का पुनर्निर्माण’ (1920), ‘भारत के लिये नियोजित अर्थ व्यवस्था’ (1934) नामक पुस्तकें लिखीं और भारत के आर्थिक विकास का मार्गदर्शन किया।

भारत रत्न
अपनी शताब्दी पूरी करने के बाद भी यह महान् व्यक्ति पूरी तरह स्वस्थ था। वह सुबह-शाम सैर पर जाते। वह सदा समय के पाबन्द रहे और उनमें जीने का उत्साह सदा बना रहा। वह अपने विचारों में पूर्णरूप से स्वतंत्र थे। जब उन्हें सन् 1955 में भारत रत्न प्रदान किया गया, तो उन्होंने पंडित नेहरू को लिखा, ‘अगर आप यह सोचते हैं कि इस उपाधि से विभूषित करने से मैं आपकी सरकार की प्रशंसा करूँगा, तो आपको निराशा ही होगी। मैं सत्य की तह तक पहुँचने वाला व्यक्ति हूँ।’ नेहरू ने उनकी बात की प्रशंसा की। उन्होंने विश्वेश्वरैया को आश्वासन दिया कि राष्ट्रीय घटनाओं व विकास पर टिप्पणी करने के लिए वह स्वतंत्र हैं। यह सम्मान उन्हें उनके कार्यों के लिये दिया गया है। इसका मतलब उन्हें चुप कराना नहीं है।

अंतिम समय
102 वर्ष की आयु में भी वह काम करते रहे। उन्होंने कहा, “जंग लग जाने से बेहतर है, काम करते रहना।” जब तक वह कार्य कर सकते थे, करते रहे। 14 अप्रैल सन् 1962 को उनका स्वर्गवास हो गया। लेकिन वह अपने कार्यों के द्वारा अमर हो गये। अन्त समय तक भी उनका ज्ञान पाने का उत्साह कम नहीं हुआ था। वह एकाग्रचित्त होकर ज्ञान की तलाश करते रहे। जो ज्ञान उन्होंने प्राप्त किया, उससे उन्हें प्रकृति और प्रकृति में निहित शक्ति व ऊर्जा को जन कल्याण के लिए काम में लगाने में सहायता मिली। विश्वेश्वरैया महान् व्यक्ति के रूप में नहीं जन्मे थे। न ही महानता उन पर जबरदस्ती थोपी गई थी। कठिन परिश्रम, ज्ञान को प्राप्त करने के अथक प्रयास, परियोजनाओं व योजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए ज्ञान का उपयोग, जिसके द्वारा जनसमुदाय की आर्थिक व सामाजिक स्थिति को सुधारने के अधिक अवसर मिले, द्वारा महानता प्राप्त की। विश्वेश्वरैया में बहुमूर्तिदर्शी जैसा कुछ था। जितनी बार भी हम उन्हें देखते हैं, उनकी महानता का एक नया उदाहरण सामने आता है। चाहे उन्होंने किसी भी दृष्टिकोण से सोचा हो, उनकी महानता का कोई मुक़ाबला नहीं कर सकता। उनकी गहन राष्ट्रीयता की भावना ही है जो हमारा ध्यान आज भी उनकी ओर आकर्षित करती है। दूसरी ओर हम उनके काम के प्रति दृष्टिकोण से प्रभावित हैं, और आगे देखें तो ग़रीबों के प्रति उनके स्थाई प्रेम को देखते हैं, और फिर देखें तो हम उनके अच्छे स्वास्थ्य में झांकते हैं। उनकी महानता के पहलू असीमित हैं

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