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महात्मा गाँधी

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महात्मा गाँधी को ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का नेता और ‘राष्ट्रपिता’ माना जाता है। इनका पूरा नाम मोहनदास करमचंद गाँधी था। राजनीतिक और सामाजिक प्रगति की प्राप्ति हेतु अपने अहिंसक विरोध के सिद्धांत के लिए उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई। मोहनदास करमचंद गाँधी भारत एवं भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रमुख राजनीतिक एवं आध्यात्मिक नेता थे। ‘साबरमती आश्रम’ से उनका अटूट रिश्ता था। इस आश्रम से महात्मा गाँधी आजीवन जुड़े रहे, इसीलिए उन्हें ‘साबरमती का संत’ की उपाधि भी मिली।

जीवन परिचय
महात्मा गाँधी का जन्म 2 अक्तूबर 1869 ई. को गुजरात के पोरबंदर नामक स्थान पर हुआ था। उनके माता-पिता कट्टर हिन्दू थे। इनके पिता का नाम करमचंद गाँधी था। मोहनदास की माता का नाम पुतलीबाई था जो करमचंद गाँधी जी की चौथी पत्नी थीं। मोहनदास अपने पिता की चौथी पत्नी की अन्तिम संतान थे। उनके पिता करमचंद (कबा गाँधी) पहले ब्रिटिश शासन के तहत पश्चिमी भारत के गुजरात राज्य में एक छोटी-सी रियासत की राजधानी पोरबंदर के दीवान थे और बाद में क्रमशः राजकोट (काठियावाड़) और वांकानेर में दीवान रहे। करमचंद गाँधी ने बहुत अधिक औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं की थी, लेकिन वह एक कुशल प्रशासक थे और उन्हें सनकी राजकुमारों, उनकी दुःखी प्रजा तथा सत्तासीन कट्टर ब्रिटिश राजनीतिक अधिकारियों के बीच अपना रास्ता निकालना आता था।

शिक्षा
1887 में मोहनदास ने जैसे-तैसे ‘बंबई यूनिवर्सिटी’ की मैट्रिक की परीक्षा पास की और भावनगर स्थित ‘सामलदास कॉलेज’ में दाख़िला लिया। अचानक गुजराती से अंग्रेज़ी भाषा में जाने से उन्हें व्याख्यानों को समझने में कुछ दिक्कत होने लगी। इस बीच उनके परिवार में उनके भविष्य को लेकर चर्चा चल रही थी। अगर निर्णय उन पर छोड़ा जाता, तो वह डॉक्टर बनना चाहते थे। लेकिन वैष्णव परिवार में चीरफ़ाड़ के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रह के अलावा यह भी स्पष्ट था कि यदि उन्हें गुजरात के किसी राजघराने में उच्च पद प्राप्त करने की पारिवारिक परम्परा निभानी है, तो उन्हें बैरिस्टर बनना पड़ेगा। इसका अर्थ था इंग्लैंड यात्रा और गाँधी ने, जिनका ‘सामलदास कॉलेज’ में ख़ास मन नहीं लग रहा था, इस प्रस्ताव को सहर्ष ही स्वीकार कर लिया। उनके युवा मन में इंग्लैंड की छवि ‘दार्शनिकों और कवियों की भूमि, सम्पूर्ण सभ्यता के केन्द्र’ के रूप में थी। सितंबर 1888 में वह पानी के जहाज़ पर सवार हुए। वहाँ पहुँचने के 10 दिन बाद वह लंदन के चार क़ानून महाविद्यालय में से एक ‘इनर टेंपल’ में दाख़िल हो गए।
डरबन न्यायालय में यूरोपीय मजिस्ट्रेट ने उन्हें पगड़ी उतारने के लिए कहा, उन्होंने इन्कार कर दिया और न्यायालय से बाहर चले गए। कुछ दिनों के बाद प्रिटोरिया जाते समय उन्हें रेलवे के प्रथम श्रेणी के डिब्बे से बाहर फेंक दिया गया और उन्होंने स्टेशन पर ठिठुरते हुए रात बिताई। यात्रा के अगले चरण में उन्हें एक घोड़ागाड़ी के चालक से पिटना पड़ा, क्योंकि यूरोपीय यात्री को जगह देकर पायदान पर यात्रा करने से उन्होंने इन्कार कर दिया था, और अन्ततः ‘सिर्फ़ यूरोपीय लोगों के लिए’ सुरक्षित होटलों में उनके जाने पर रोक लगा दी गई। नटाल में भारतीय व्यापारियों और श्रमिकों के लिए ये अपमान दैनिक जीवन का हिस्सा था। जो नया था, वह गाँधी का अनुभव न होकर उनकी प्रतिक्रिया थी। अब तक वह हठधर्मिता और उग्रता के पक्ष में नहीं थे, लेकिन जब उन्हें अनपेक्षित अपमानों से गुज़रना पड़ा, तो उनमें कुछ बदलाव आया।

धार्मिक खोज
गाँधी जी की धार्मिक खोज उनकी माता, पोरबंदर तथा राजकोट स्थित घर के प्रभाव से बचपन में ही शुरू हो गई थी। लेकिन दक्षिण अफ़्रीका पहुँचने पर इसे काफ़ी बल मिला। वह ईसाई धर्म पर टॉल्सटाय के लेखन पर मुग्ध थे। उन्होंने क़ुरान के अनुवाद का अध्ययन किया और हिन्दू अभिलेखों तथा दर्शन में डुबकियाँ लगाईं। सापेक्षिक कर्म के अध्ययन, विद्वानों के साथ बातचीत और धर्मशास्त्रीय कृतियों के निजी अध्ययन से वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सभी धर्म सत्य हैं और फिर भी हर एक धर्म अपूर्ण है। क्योंकि कभी-कभी उनकी व्याख्या स्तरहीन बुद्धि संकीर्ण हृदय से की गई है और अक्सर दुर्व्याख्या हुई है। भगवदगीता, जिसका गाँधी ने पहली बार इंग्लैंड में अध्ययन किया था, उनका ‘आध्यात्मिक शब्दकोश’ बन गया और सम्भवतः उनके जीवन पर इसी का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा। गीता में उल्लिखित संस्कृत के दो शब्दों ने उन्हें सबसे ज़्यादा आकर्षित किया। एक था ‘अपरिग्रह’ (त्याग), जिसका अर्थ है, मनुष्य को अपने आध्यात्मिक जीवन को बाधित करने वाली भौतिक वस्तुओं का त्याग कर देना चाहिए और उसे धन-सम्पत्ति के बंधनों से मुक्त हो जाना चाहिए। दूसरा शब्द है ‘समभाव’ (समान भाव), जिसने उन्हें दुःख या सुख, जीत या हार, सबमें अडिग रहना तथा सफलता की आशा या असफलता के भय के बिना काम करना सिखाया।

विवाह
मोहनदास करमचंद जब केवल तेरह वर्ष के थे और स्कूल में पढ़ते थे, पोरबंदर के एक व्यापारी की पुत्री कस्तूरबाई (कस्तूरबा) से उनका विवाह कर दिया गया। वर-वधू की अवस्था लगभग समान थी। दोनों ने 62 वर्ष तक वैवाहिक जीवन बिताया। 1944 ई. में पूना की ब्रिटिश जेल में कस्तूरबा का स्वर्गवास हुआ था। गाँधी जी अठारह वर्ष की आयु में ही एक पुत्र के पिता हो गये थे। गाँधी जी के चार पुत्र हुए जिनके नाम थे:- हरिलाल, मनिलाल, रामदास, देवदास।

अफ़्रीका में गाँधी
डरबन न्यायालय में यूरोपीय मजिस्ट्रेट ने उन्हें पगड़ी उतारने के लिए कहा, उन्होंने इन्कार कर दिया और न्यायालय से बाहर चले गए। कुछ दिनों के बाद प्रिटोरिया जाते समय उन्हें रेलवे के प्रथम श्रेणी के डिब्बे से बाहर फेंक दिया गया और उन्होंने स्टेशन पर ठिठुरते हुए रात बिताई। यात्रा के अगले चरण में उन्हें एक घोड़ागाड़ी के चालक से पिटना पड़ा, क्योंकि यूरोपीय यात्री को जगह देकर पायदान पर यात्रा करने से उन्होंने इन्कार कर दिया था, और अन्ततः ‘सिर्फ़ यूरोपीय लोगों के लिए’ सुरक्षित होटलों में उनके जाने पर रोक लगा दी गई। नटाल में भारतीय व्यापारियों और श्रमिकों के लिए ये अपमान दैनिक जीवन का हिस्सा था। जो नया था, वह गांधी का अनुभव न होकर उनकी प्रतिक्रिया थी। अब तक वह हठधर्मिता और उग्रता के पक्ष में नहीं थे, लेकिन जब उन्हें अनपेक्षित अपमानों से गुज़रना पड़ा, तो उनमें कुछ बदलाव आया। बाद में देखने पर उन्हें लगा कि डरबन से प्रिटोरिया तक की यात्रा उनके जीवन के महानतम रचनात्मक अनुभवों में से एक थी। यह उनके सत्य का क्षण था।
18 वर्ष की आयु तक गांधी ने शायद ही कभी समाचार पत्र पढ़ा था। न तो इंग्लैंड के विद्यार्थी काल में और न ही भारत में बैरिस्टरी की शुरुआत में राजनीति में उनकी कभी रुचि रही। वस्तुतः किसी सभा में भाषण देते समय या अदालत में मुवक्किल का बचाव करते हुए वे जैसे ही बोलने खड़े होते, मंचीय भय उन्हें जकड़ लेता था। फिर भी, 1894 में मात्र 25 वर्ष की आयु में वह लगभग रातों रात एक सफल राजनीतिक आंदोलनकारी बन गए। उन्होंने नटाल की विधायिका और ब्रिटिश सरकार के नाम याचिकाएँ लिखीं और उन पर सैकड़ों भारतीयों के हस्ताक्षर कराए। वह विधेयक को तो नहीं रोक सके, लेकिन नटाल में रहने वाले भारतीयों के कष्टों की ओर नटाल, भारत और इंग्लैंड के अख़बारों का ध्यान आकर्षित करने में सफल रहे। उन्हें डरबन में रहकर वकालत करने और भारतीय समुदाय का एकजुट करने के लिए राज़ी कर लिया गया। 1894 में उन्होंने नटाल इंडियन कांग्रेस की स्थापना की और उसके सक्रिय सचिव बन गए, दक्षिण अफ़्रीका में सात वर्ष से अधिक समय तक संघर्ष चला। इसमें उतार-चढ़ाव आते रहे, लेकिन गांधी के नेतृत्व में भारतीय अल्पसंख्यकों के छोटे से समुदाय ने अपने शक्तिशाली प्रतिपक्षियों के ख़िलाफ़ संघर्ष जारी रखा। सैकड़ों भारतीयों ने अपने अंतःकरण और स्वाभिमान को चोट पहुँचाने वाले क़ानून के सामने झुकने के बजाय अपनी आजीविका तथा स्वतंत्रता की बलि चढ़ाना ज़्यादा पसंद किया। 1913 में आंदोलन के अन्तिम चरण में महिलाओं समेत सैकड़ों भारतीयों ने कारावास की सज़ा भुगती तथा खदानों में काम बन्द करके हड़ताल कर रहे हज़ारों भारतीय मज़दूरों ने कोड़ों की मार, जेल की सज़ा और यहाँ तक की गोली मारने के आदेश का भी साहसपूर्ण सामना किया। भारतीयों के लिए यह घोर यंत्रणा थी। लेकिन दक्षिण अफ़्रीकी सरकार के लिय यह सबसे ख़राब प्रचार सिद्ध हुआ और उसने भारत व ब्रिटिश सरकार के दबाव के तहत एक समझौते को स्वीकार किया। जिस पर एक ओर से गांधी तथा दूसरी ओर से दक्षिण अफ़्रीकी सरकार के प्रतिनिधि जनरल जॉन क्रिश्चियन स्मट्स ने बातचीत की थी।

भारत की सभ्यता की रक्षा करने में तुलसीदास ने बहुत अधिक भाग लिया है। तुलसीदास के चेतनमय रामचरितमानस के अभाव में किसानों का जीवन जड़वत और शुष्क बन जाता है – पता नहीं कैसे क्या हुआ, परन्तु यह निर्विवाद है कि तुलसीदास जी भाषा में जो प्राणप्रद शक्ति है वह दूसरों की भाषा में नहीं पाई जाती। रामचरितमानस विचार-रत्नों का भण्डार है। महात्मा गांधी
जुलाई 1914 में दक्षिण अफ़्रीका से गांधी के भारत प्रस्थान के बाद स्मट्स ने एक मित्र को लिखा था, ‘संत ने हमारी भूमि से विदा ले ली है, आशा है सदा के लिए’ ; 25 वर्ष के बाद उन्होंने लिखा, ‘ऐसे व्यक्ति का विरोधी होना मेरी नियति थी, जिनके लिए तब भी मेरे मन में बहुत सम्मान था’ , अपनी अनेक जेल यात्राओं के दौरान एक बार गांधी ने स्मट्स के लिए एक जोड़ी चप्पल बनाई थी। स्मट्स का संस्मरण है कि उनके बीच कोई घृणा या व्यक्तिगत दुर्भाव नहीं था और जब लड़ाई खत्म हो गई तो ‘माहौल ऐसा था, जिसमें एक सम्मानजनक समझौते को अंजाम दिया जा सकता था।

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