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दिग्विजय का ‘वानप्रस्थ गमन’ आध्यात्मिक या सियासी !….

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दिग्विजय सिंह जिसे सियासत का मंजा हुआ खिलाड़ी माना जाता जिसने पार्टी के अंदर ही नहीं विरोधियों को भी अपनी दूरदर्शिता और बेबाकी का लोहा मनवाया है। जिसने तमाम विवादों के बावजूद मध्य प्रदेश से लेकर राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस के अंदर सत्ता और संगठन के अहम पदों पर रहकर पार्टी के गिने चुने चर्चित चेहरे बनकर सत्ता में रहते तो विपक्ष की राजनीति भी ताल ठोक कर की। अब जब केंद्र से लेकर राज्य में कांग्रेस अस्तित्व के संकट से जूझ रही है तब धीरे धीरे संगठन के सभी पदों से दूरी बनाकर दिग्गी राजा यदि 70 वर्ष के इस अहंम पड़ाव में नर्मदा परिक्रमा पर जाने का मन बना चुके हैं तो इसकी वजह को ले कर सवाल खड़ा होना भी लाजमी है। क्योंकि हिंदू धर्म में जीवन के तीसरे चरण में ‘वानप्रस्थ’ के दौरान व्यक्ति से समाज एवं देश के लिए अपेक्षा की जाती है.. आखिर दिग्विजय सिंह किस उद्देश्य से छह माह नर्मदा के किनारे तक खुद को सीमित रखेंगे। सिर्फ आध्यात्मिक या फिर नई सियासी पारी को ध्यान में रखते हुए प्रायश्चित के साथ विवादों से दूर जब सियासी उठापटक तेज हो चुकी होगी तब नितांत व्यक्तिगत हितों का संरक्षण करेंगे। नर्मदा परिक्रमा का आगाज विजयादशमी से होने के आसार हैं तब तक राहुल गांधी यदि कांग्रेस की कमान संभाल चुके होंगे तो गुजरात के बाद देश खास तौर से मोदी शाह की नजर राजस्थान छत्तीसगढ़ के साथ मध्य प्रदेश पर होगी ।जहां के चुनाव परिणाम मोदी के मिशन 2019 के पहले सेमीफाइनल से कम नहीं होंगे और जब दिग्विजय सिंह की यात्रा खत्म होगी तब मिशन 2018 विधानसभा चुनाव से सिर्फ 6 माह का समय ही बचेगा तो सवाल एक साथ कई खड़े होते हैं? चाहे फिर वह कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति या फिर बीजेपी के बढ़ते कदम से आगे सांप्रदायिकता के खिलाफ सीधा मोर्चा खोलने वाले दिग्विजय सिंह की हिंदू विरोधी छवि से बाहर निकलकर सॉफ्ट हिंदुत्व के पैरोकार की कवायद से जुड़े हो.. या फिर कमिटमेंट के पक्के दिग्गी राजा की नर्मदा किनारे से ही-सही अपने प्रदेश की जनता से लंबे अरसे बाद संवाद स्थापित करने से ही क्यों न जुड़े हो।

दिग्विजय सिंह जिसने 10 साल तक मुख्यमंत्री रहकर प्रदेश में राज किया तो उसके बाद कांग्रेस कभी सत्ता में नहीं लौट पाई। फ्री कंसल्टेंसी के लिए पहचाने जाने वाले दिग्गी राजा को कमिटमेंट का धनी माना जाता है चाहे फिर वह व्यक्तिगत स्तर पर किसी से दोस्ती निभाने या फिर कोर्ट कचहरी से जुड़े विवाद पर माफ करना या फिर दुश्मनी के लिए किसी भी हद तक जाने से जुड़ा हो। विधानसभा चुनाव हारने के बाद दस साल तक बिना पद लिए काम किया। तो संकल्प के तहत मध्यप्रदेश की राजनीति में सीधा दखल नहीं दिया। व्यक्तिगत जिम्मेदारी चाहे फिर वह
परिवार से जुड़ी हो धर्म पत्नी सादगी की मिसाल स्व.आशा सिंह की बीमारी में भरपूर सेवा, डंके की चोट पर वादा निभाते हुएअमृता राव से शादी , पुत्र जयवर्धन की राजनैतिक तौर पर लाँचिग कर पति, पिता की भूमिका से आगे एक निष्ठावान और समर्पित कांग्रेस कार्यकर्ता की भूमिका भी उन्होंने नेहरु गांधी परिवार के प्रति निभाई । जिन्होंने विचारधारा की लड़ाई में बीजेपी, नरेंद्र मोदी से भी आगे संघ के खिलाफ सैद्धांतिक मत मतभेदों पर कभी कंप्रोमाइज नहीं किया।

फिलहाल विजयादशमी दूर कब तक मध्य प्रदेश की जीवन रेखा नर्मदा में बहुत पानी बह चुका होगा सियासत मैं भी बनते बिगड़ते समीकरण गौर करने लायक होंगे। बावजूद इसके जब मध्य प्रदेश में कांग्रेस के सामने नेतृत्व का संकट और पार्टी हाईकमान द्वंद, दुविधा में है तब दिग्विजय सिंह ने खुद को मुख्यमंत्री के पद की दौड़ से पूरी तरह बाहर कर सियासी जिम्मेदारियों से धीरे-धीरे मुक्त कर नर्मदा परिक्रमा का इरादा जताया है। विधायक पुत्र जयवर्धन सिंह इस यात्रा को गैर राजनीतिक बताकर छः माह बाद नई सियासी पारी शुरू करने के भी संकेत दे चुके है। जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के गुरु आदेश पर विजयादशमी से शुरू होने वाली यह पैदल यात्रा परिक्रमा वासियों के मार्ग से ही आगे बढ़ेगी। रात्रि विश्राम नर्मदा किनारे पर खास होते हुए एक आम आदमी के साथ इस संकल्प को दिग्विजय सिंह पूरा करेंगे ।जिसमें क्षेत्र विशेष के वाशिंदों के साथ समर्थकों के लिए कोई पाबंदी नहीं होगी। बताया जाता इस यात्रा के दौरान दिग्विजय सिंह सियासी मुद्दों और विषय विशेष पर कोई टिप्पणी नहीं करेंगे। यदि ऐसा है तो क्या दिग्विजय सिंह अब इस यात्रा के बहाने धार्मिक और आध्यात्मिक कमिटमेंट पर खरा उतर कर दिखाएंगे और उन अटकलों पर पूर्ण विराम लगाने को मजबूर कर देंगे जिसे लोग इस यात्रा को सामाजिक सरोकार से दूर सियासी हितों से ही जोड़ कर देख रहे हैं।
क्यो कि शास्त्रों में उम्र के इस तीसरे पड़ाव वानप्रस्थ का अर्थ पलायन नहीं है। इसमें जीवन में जहाँ साधना, स्वाध्याय, संयम, सेवा में निरत रहने का अनुशासन है, वहाँ एक अनुबन्ध यह भी है कि वन क्षेत्र में रहा जाय। आरण्यक ही उस उच्चस्तरीय जीवनचर्या के लिए उपयुक्त स्थान हो सकते हैं। वानप्रस्थ का शब्दार्थ —वनप्रदेश में निवास व्यवस्था। ऊँचे विचार ऐसे ही क्षेत्रों में पनपते और फूलते−फलते हैं। ऐसे में नर्मदा किनारे दिग्विजय सिंह के वानप्रस्थ गमन को सियासत में मची उठापटक खासतौर से कांग्रेस में बड़े बदलाव की संभावनाओं की टाइमिंग के बीच दिग्गी राजा की सियासत और उनकी कार्यशैली से जोड़कर देखा जाए तो फिर एक साथ कई सवाल खड़े हो जाते हैं। राजनीति के जानकार यह कहकर सवाल खड़ा करते हैं यह फैसला नितांत व्यक्तिगत और पारिवारिक हो सकता है लेकिन राजनीति से दूरी बनी रहेगी यह संभव नहीं है क्योंकि सच यही है कि भले ही मिस्टर बंटाधार कहकर दिग्गी राजा को भाजपा ने प्रदेश के लिए खलनायक बना दिया हो लेकिन यह भी कड़वा सच है कि कांग्रेस के दूसरे नेताओं के मुकाबले राजधानी से दूर शहर से नीचे गांव और कस्बों में राजा का अपना समर्थक आज भी मौजूद है। कभी कांग्रेस के लिए ताकत तो अब कमजोरी माने जाने वाले दिग्विजय सिंह जिन्होंने अभी तक प्रदेश की राजनीति से दूरी बना रखी यदि नर्मदा किनारे 6 माह पैदल यात्रा पर आगे बढ़ेंगे तो फिर क्षेत्र की जनता और पार्टी समर्थकों और कार्यकर्ताओं से उनका संवाद स्थापित होगा । वह भी तब जब सी एम इन वेटिंग के दूसरे बड़े दावेदार नेता कुछ घंटों के लिए ही मध्यप्रदेश में नजर आते हैं। इस यात्रा के दौरान उन्हें अपना चेहरा दिखाने वाले समर्थकों की होड़ से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। तब निश्चित तौर पर शिवराज की नर्मदा सेवा यात्रा और दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा की तुलना एक बहस का मुद्दा बन सकती है। कहने वाले इसे उम्र के इस पड़ाव पर प्रायश्चित या आध्यात्मिक सुख से भी जोड़ कर सामने रखेंगे। दिग्विजय सिंह इससे पहले भी गिरिराज जी की परिक्रमा दूध की बाल्टी और टैंकर लेकर करते रहे हैं जब भी उनकी हिंदू विरोधी छवि को लेकर सवाल खड़े किए गए तो वो हमेशा राघवगढ़ के किले में पूजा अर्चना के साथ नवरात्रि के विशेष मौके से भी आगे देश के दूसरे धार्मिक स्थलों पर अपनी यात्रा को सामने रख खुद को जन्म से हिन्दू बताते रहे हैं ।तो क्या इस नर्मदा परिक्रमा यात्रा का मकसद खुद को हिंदू हितेषी साबित करना भी होगी। या फिर नई सियासी संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए उन्होंने दिल्ली में मोदी और मध्यप्रदेश में शिवराज सरकार से मोर्चाबंदी और लड़ाई में खुद को सियासी मोर्चे से बाहर कर लेने की कोई मजबूरी के तौर पर इस यात्रा को चुना गया है? सवाल यह भी है क्या जब कांग्रेस की संगठन चुनाव के साथ पार्टी की कमान राहुल गांधी को सौंपने की तैयारी निर्णायक दौर में होगी तब पुरानी पीढ़ी के दिग्विजय सिंह जैसे अनुभवी नेताओं के लिए नई भूमिका की गुंजाइश को ध्यान में रखते हुए उन्होंने फैसला पहले ही ले लिया। दिग्विजय सिंह हमेशा यह कहते रहे कि वह जो कहते हैं वह आने वाले समय में सच साबित होता है क्या इस सच को वह पहले ही भांप गए हैं कि मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव को लेकर राहुल गांधी किस रोड मैप के साथ सामने आने वाले हैं। या फिर दिग्गी राजा को इस बात का भी आभास हो चुका है कि मोदी और शाह की जोड़ी ने देश दुनिया में सरकार और संगठन की अहमियत का एहसास कराते हुए जिस तरह राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति के पद पर संघ की विचारधारा को स्थापित किया उसके बाद इस जोड़ी के निशाने पर उनकी अपनी पार्टी के छत्रप जो राज्य की राजनीति के मसीहा माने जाते कोई और नहीं अब वही होंगे ।वह भी तब जब भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा बन कर विपक्ष की राजनीति के लिए परेशानी का सबब बन चुका है तो क्या दिग्विजय सिंह ने यह समय मिशन 2018 विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए सियासत से दूर लेकिन एक नई सियासी पारी की संभावनाओं को बरकरार में रखते हुए नर्मदा परिक्रमा पर जाने का फैसला लिया है। दिग्विजय सिंह के बारे में बहुत कुछ लिखा जा सकता है खासतौर से केंद्र सरकार में मंत्री फिर मध्य प्रदेश में 10 साल के मुख्यमंत्री और उसके बाद केंद्र में मनमोहन सरकार के रहते और उसके चले जाने के बाद संगठन की राजनीति के बारे में ही क्यों न हो। लेकिन उनके कुछ बयान और फैसले खूब चर्चा में रहे चाहे फिर वह सोनिया-राहुल के प्रति वफादारी दिखाते हुए एक सभा में राहुल गांधी की मौजूदगी में खुद को डूबता जहाज बताना हो या फिर पिछले लोकसभा चुनाव से ठीक पहले दिग्विजय सिंह की राज्यसभा में एंट्री हो और प्रदेश की राजनीति से दूरी बनाकर खुद को मुख्यमंत्री की दौड़ से बाहर कर लेना हो। यही नहीं 2003 विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार जिसमें कांग्रेस सबसे कम 38 सीटों तक सिमट गई थी या फिर इससे पहले सरकार में रहते चुनाव जीतना और उससे भी पहले 1993 में बाबरी मस्जिद विध्वंस पर दंगा भड़कने के बाद सरकार की बर्खास्तगी के बाद चुनाव जीतकर सरकार में आना हो। यह वह दौर था जब कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर अविभाजित मध्यप्रदेश की दिग्विजय सिंह ने लंबी यात्रा कर कांग्रेस को ताकत दी थी। जो कम से कम उसके बाद विपक्ष में रहते हुए भी पार्टी का कोई दूसरा नेता नहीं कर पाया। विपरीत परिस्थितियों में कांग्रेस विरोधी लहर में यदि दिग्विजय सिंह 1977 में चुनाव जीतकर पहली बार विधानसभा में पहुंचे थे तो समझना जरूरी हो जाता है कि मोदी शाह के इस दौर में जब कांग्रेस अस्तित्व के संकट से जूझ रही आखिर दिग्विजय सिंह नर्मदा परिक्रमा पर किस उद्देश्य जा रहे हैं।

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