Home पर्यटन लाल क़िला दुनिया के सर्वाधिक प्रभावशाली भव्‍य क़िलों में से एक…..

लाल क़िला दुनिया के सर्वाधिक प्रभावशाली भव्‍य क़िलों में से एक…..

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लाल क़िला का यह नाम इसलिए पड़ा क्‍योंकि यह लाल पत्‍थरों से बना हुआ है। प्रत्येक वर्ष 15 अगस्त को भारत के प्रधानमंत्री प्रातः 7 बजे लाल क़िले पर झण्डा लहराते हैं और अपने देशवासियों को अपने देश की नीति पर भाषण देते हैं। हज़ारों लोग उनका भाषण सुनने के लिए लाल क़िले पर जाते हैं। दिल्ली में स्थित यह ऐतिहासिक क़िला मुग़लकालीन वास्तुकला की नायाब धरोहर है। भारत का इतिहास भी इस क़िले के साथ काफ़ी नज़दीकी से जुड़ा हुआ है। यहीं से ब्रिटिश व्‍यापारियों ने अंतिम मुग़ल शासक, बहादुरशाह ज़फर को पद से हटाया था और तीन शताब्दियों से चले आ रहे मुग़ल शासन का अंत हुआ था। भारत की शान के प्रतीक लाल क़िले का निर्माण मुग़ल बादशाह शाहजहाँ ने सत्रहवीं शती में कराया था। तब से अब तक यह ऐतिहासिक विरासत कई हमलों को झेल चुकी है। आज़ादी की लड़ाइयों का भी लाल क़िला साक्षी रहा है। लाल क़िले की प्राचीर से भारत के प्रथम प्रधानमंत्री, पंडित जवाहरलाल नेहरू ने घोषणा की थी कि अब भारत उपनिवेशी राज से स्‍वतंत्र है। यह भारत की राजधानी नई दिल्ली से लगी पुरानी दिल्ली शहर में स्थित है। यह यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल में चयनित है।

निर्माणकाल: भारत के सम्मान का प्रतीक और जंग-ए-आज़ादी का गवाह रहा दिल्ली का लाल क़िला सत्रहवीं शताब्दी में मुग़ल शासक शाहजहाँ ने बनवाया था। आगरा से दिल्ली को अपनी राजधानी बनाने के लिए शाहजहाँ ने एक पुराने क़िले की जगह पर 1638 में लाल क़िले का निर्माण शुरू करवाया था, जो 10 साल बाद 1648 में पूर्ण हुआ। मुग़ल शासक, शाहजहां ने 11 वर्ष तक आगरा पर शासन करने के बाद यह निर्णय लिया कि देश की राजधानी को दिल्‍ली लाया जाए और 1618 में लाल क़िले की नींव रखी गई। वर्ष 1647 में इसके उद्घाटन के बाद महल के मुख्‍य कक्षों को भारी पर्दों से सजाया गया। चीन से रेशम और टर्की से मखमल लाकर इसकी सजावट की गई। लगभग डेढ़ मील के दायरे में यह क़िला अनियमित अष्‍टभुजाकार आकार में बना है। इसके दो प्रवेश द्वार हैं –

इतिहास: लाल क़िला एवं शाहजहाँनाबाद नगर, मुग़ल बादशाह शाहजहाँ ने 1639 AD में बनवाया था। लाल क़िला मुग़ल बादशाह शाहजहाँ की नई राजधानी, शाहजहाँनाबाद का महल था। यह दिल्ली शहर की सातवीं मुस्लिम नगरी थी। शाहजहाँ ने अपनी राजधानी को आगरा से दिल्ली किया। शाहजहाँ की नये नये निर्माण कराने की महत्त्वकाँक्षा भी थी और इसमें उसकी मुख्य रुचि भी थी। लालक़िले की योजना, व्यवस्था एवं सौन्दर्य मुग़ल सृजनात्मकता का अनुपम उदाहरण है, जो शाहजहाँ के समय में अपने चरम उत्कर्ष पर था। कहा जाता है कि इस क़िले के निर्माण के बाद कई विकास कार्य स्वयं शाहजहाँ द्वारा जोडे़ गए थे। विकास के कार्य औरंगज़ेब एवं अंतिम मुग़ल शासकों द्वारा किये गये। सम्पूर्ण विन्यास में कई बदलाव ब्रिटिश काल में 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद किये गये थे। ब्रिटिश काल में यह क़िला मुख्यतः छावनी रूप में प्रयोग किया गया था। स्वतंत्रता के बाद भी इसके कई महत्त्वपूर्ण भाग सेना के नियंत्रण में 2003 तक रहे।

यह क़िला भी ताजमहल की भांति ही यमुना नदी के किनारे पर स्थित है। यमुना नदी का जल इस क़िले को घेरने वाली खाई को भरती थी। इसकी पूर्वोत्तर ओर की दीवार एक पुराने क़िले से लगी थी, जिसे ‘सलीमगढ़ का क़िला’ भी कहते हैं। सलीमगढ़ का क़िला इस्लामशाह सूरी ने 1546 में बनवाया था। लाल क़िले का निर्माण 1638 में प्रारम्भ होकर 1648 में पूर्ण हुआ। पर कुछ मतों के अनुसार इसे लालकोट का एक पुरातन क़िला एवं नगरी बताते हैं, जिसे शाहजहाँ ने क़ब्ज़ा करके यह क़िला बनवाया था। बारहवीं सदी के अन्तिम समय में लालकोट हिन्दू राजा पृथ्वीराज चौहान की राजधानी थी।

11 मार्च 1783 को, सिखों ने लाल क़िले में प्रवेश कर ‘दीवान-ए-आम’ पर क़ब्ज़ा कर लिया था। नगर को मुग़ल वज़ीरों ने अपने सिख साथियों को समर्पित कर दिया। यह कार्य सरदार बघेल सिंह धालीवाल की कमान में हुआ।

लाल क़िले की योजना पूर्ण रूप से बनायी गई थी, और इसके बाद किए गए बदलावों के बाद भी इसकी योजना के मूलरूप में कोई बदलाव नहीं होने दिया गया है। 18वीं सदी में कुछ लुटेरों एवं आक्रमणकारियों द्वारा इसके कई भागों को क्षति पहुँचाई गई थी। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद, क़िले को ब्रिटिश सेना के मुख्यालय के रूप में प्रयोग किया जाने लगा था। ब्रिटिश सेना ने इसके क़रीब अस्सी प्रतिशत मंडपों और उद्यानों को नष्ट कर दिया। इन नष्ट हुए बाग़ों और क़िले की पुनर्स्थापन योजना सन् 1903 में उम्मैद दानिश द्वारा की गई।

वास्तुशिल्प
  • लाल क़िले के निर्माण में प्रयोग में लाए गए लाल बालू पत्थरों के कारण ही इसका नाम लाल क़िला पड़ा।
  • इसकी दीवारें ढाई किलोमीटर लंबी और 60 फुट ऊँची हैं।
  • यमुना नदी की ओर इसकी दीवारों की कुल लंबाई 18 मीटर और शहर की ओर 33 मीटर है।
  • लाल क़िला सलीमगढ़ के पूर्वी छोर पर स्थित है।
  • इसको अपना नाम लाल बलुआ पत्थर की प्राचीर एवं दीवार के कारण मिला है।
  • यही इसकी चारदीवारी बनाती है।
  • नापने पर ज्ञात हुआ है, कि इसकी योजना एक 82 मी. की वर्गाकार ग्रिड (चौखाने) का प्रयोग कर बनाई गई है।

वास्तुकला: लाल क़िले में उच्चस्तर की कला का निर्माण है। यहाँ की कलाकृतियाँ फारसी, यूरोपीय एवं भारतीय कला का मिश्रण हैं, जिसको विशिष्ट एवं अनुपम ‘शाहजहाँनी शैली’ कहा जाता था। यह शैली रंग, अभिव्यंजना एवं रूप में उत्कृष्ट है। लालक़िला दिल्ली की एक महत्त्वपूर्ण इमारत है, जो भारतीय इतिहास एवं उसकी कलाओं को स्वयं में समेटे हुए है। इसका महत्त्व समय की सीमाओं से बढ़कर है। यह वास्तुकला सम्बंधी प्रतिभा एवं शक्ति का प्रतीक है। सन् 1913 में ‘राष्ट्रीय स्मारक’ घोषित होने से पहले भी लाल क़िले को संरक्षित एवं परिरक्षित करने के प्रयास किए गये थे।

लाल क़िले की दीवारें दो मुख्य द्वारों पर खुली हैं – दिल्ली गेट एवं लाहौर गेट।

लाहौर गेट

लाहौर गेट इसका मुख्य प्रवेशद्वार है। इसके अन्दर एक लम्बा बाज़ार है। चट्टा चौक है जिसकी दीवारें पर दुकानों की कतारें हैं। इसके बाद एक बडा़ खुला हुआ स्थान है, जहाँ यह उत्तर-दक्षिण सड़क को काटती है। यही सड़क पहले क़िले को सैनिक एवं नागरिक महलों के भागों में विभाजित करती थी। इस सड़क का दक्षिणी छोर दिल्ली गेट है।

लाहौर गेट से दर्शक ‘छत्ता चौक’ में पहुंचते हैं, जो शाही बाज़ार हुआ करता था। इस शाही बाज़ार में दरबारी, ज़ौहरी, चित्रकार, कालीनों के निर्माता, इनेमल के कामग़ार, रेशम के बुनकर और विशेष प्रकार के दस्‍तकारों के परिवार रहा करते थे। शाही बाज़ार से एक सड़क नवाबर ख़ाने जाती है, जहां से दिन में पांच बार शाही बैंड बजाया जाता था। यह बैंड हाउस मुख्‍य महल में प्रवेश का संकेत भी देता है और शाही परिवार के अतिरिक्त अन्य सभी अतिथियों को यहाँ से झुक कर जाना होता है।

 नक़्क़ारख़ाना
  • लाहौर गेट से चट्टा चौक तक जाने वाली सड़क से लगे खुले मैदान के पूर्वी ओर नक़्क़ारख़ाना बना है। यह संगीतज्ञों के लिए बने महल का मुख्य द्वार है।
  • छत्ता चौक के पास ही नक़्क़ारख़ाना है जहाँ संगीतकारों की महफिल सज़ा करती थी। इसके अन्य आकर्षणों में दीवान-ए-आम, दीवान-ए-ख़ास, हमाम, शाही बुर्ज, मोती मस्जिद, रंगमहल आदि शामिल हैं।

दीवान-ए-आम: इस दरवाज़े को पार करने पर एक ओर खुला मैदान है, जो मूलतः दीवाने-ए-आम का प्रांगण था जिसे दीवान-ए-आम कहते थे। यह जनसाधारण के लिए बना वृहत प्रांगण था। एक अलंकृत सिंहासन का छज्जा दीवान की पूर्वी दीवार के बीचों बीच बना था। यह बादशाह के बैठने के लिये बना था, और सुलेमान के राज सिंहासन की नकल था। दीवान-ए-आम लाल क़िले का सार्वजनिक प्रेक्षागृह है। सेंड स्‍टोन से निर्मित शेल प्‍लास्‍टर से ढका हुआ यह कक्ष हाथी दांत से बना हुआ लगता है, इसमें 80 X 40 फीट का हॉल स्‍तंभों द्वारा बांटा गया है। मुग़ल शासक यहाँ दरबार लगाते थे और विशिष्ट अतिथियों तथा विदेशी व्‍यक्तियों से मुलाकात करते थे। दीवान-ए-आम की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि इसकी पिछली दीवार में लता मंडप बना हुआ है जहां बादशाह समृद्ध पच्‍चीकारी और संगमरमर के बने मंच पर बैठते थे। इस मंच के पीछे इटालियन पिएट्रा ड्यूरा कार्य के उत्‍कृष्‍ट नमूने बने हुए हैं।

नहर-ए-बहिश्त: राजगद्दी के पीछे की ओर शाही निजी कक्ष स्थापित हैं। इस क्षेत्र में, पूर्वी छोर पर ऊँचे चबूतरों पर बने गुम्बददार इमारतों की कतार है, जिनसे यमुना नदी का किनारा दिखाई पड़ता है। ये मण्डप एक छोटी नहर से जुडे़ हुए हैं, जिसे ‘नहर-ए-बहिश्त’ कहते हैं, जो सभी कक्षों के मध्य से होकर जाती है। क़िले के पूर्वोत्तर छोर पर बने ‘शाह बुर्ज’ पर यमुना से पानी चढा़या जाता था, जहाँ से इस नहर को जल आपूर्ति होती थी। इस क़िले का स्वरूप ‘क़ुरान’ में वर्णित ‘स्वर्ग’ या ‘जन्नत’ के अनुसार बना है। यहाँ लिखी एक आयत कहती है,महल की योजना मूलरूप से इस्लामी रूप में है, परंतु प्रत्येक मण्डप अपने वास्तु घटकों में हिन्दू वास्तुकला को प्रकट करता है। लाल क़िले का प्रासाद, शाहजहाँनी शैली का उत्कृष्ट नमूना प्रस्तुत करता है।

ज़नाना

महल के दो दक्षिणवर्ती प्रासाद महिलाओं हेतु बने हैं, जिन्हें ज़नाना कहते हैं-

  1. मुमताज़ महल – जो अब संग्रहालय बना हुआ है
  2. रंग महल – जिसमें स्वर्ण मण्डित नक़्क़ाशीदार छतें और संगमरमर सरोवर बने हैं, जिसमें नहर-ए-बहिश्त से जल आता है।
ख़ास महल

दक्षिण से तीसरा मण्डप है ख़ास महल। इसमें शाही कक्ष बने हैं। इनमें राजसी शयन-कक्ष, प्रार्थना-कक्ष, एक बरामदा और मुसम्मन बुर्ज बने हैं। इस बुर्ज से बादशाह जनता को दर्शन देते थे।

दीवान-ए-ख़ास

अगला मण्डप है दीवान-ए-ख़ास, जो राजा का मुक्तहस्त से सुसज्जित निजी सभाकक्ष था। यह सचिव एवं मंत्रिमण्डल और सभासदों के साथ बैठकों के काम आता था। इस मण्डप में पुष्पीय आकृति से मण्डित स्तंभ बने हैं। इनमें स्वर्ण पर्त भी मढ़ी है, तथा बहुमूल्य रत्न जडे़ हैं। इसकी मूल छत को रोगन की गई काष्ठ निर्मित छत से बदल दिया गया है। इसमें अब रजत पर स्वर्ण मण्डन किया गया है। क़िले का दीवान-ए-ख़ास निजी मेहमानों के लिए था। शाहजहां के सभी भवनों में सबसे अधिक सजावट वाला 90 X 67 फीट का दीवान-ए-ख़ास सफ़ेद संगमरमर का बना हुआ मंडप है जिसके चारों ओर बारीक तराशे गए खम्‍भे हैं। इस मंडप की सुंदरता से अभिभूत होकर बादशाह ने कहा था यदि इस पृथ्‍वी पर कहीं स्‍वर्ग है तो यहीं हैं, यहीं हैं”।

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