लोकसभा चुनावों के प्रचार में सपा-बसपा गठबंधन की सहारनपुर की रैली हो रही थी. मायावती मंच पर आयीं और बीजेपी को हराने के लिए मुसलमानों से गठबंधन को एकतरफ़ा वोट देने की अपील कर गईं. इस बयान को लेकर काफ़ी हो-हल्ला भी मचा. यहां तक कि चुनाव आयोग ने मायावती को 2 दिन के लिए प्रचार छुड़ाकर घर बैठा दिया. सबको लगा जैसे मायावती को अपने बयान की सज़ा मिली है. लेकिन तब शायद किसी ने ये नहीं सोचा था कि मुसलमानों से गठबंधन के पक्ष में आने की अपील करने वाली मायावती दरअसल 2022 के अपने सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले की नींव रख रही हैं.
लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद धीरे धीरे मायावती अपने इस फॉर्मूले को धार देने के लिए लगातार कोशिशें कर रही हैं. शायद यही वजह है कि मायावती की 2 बैठकों से जो बात निकलकर आयी है उससे यह पता चलता है कि वे 2022 में अपने दलित वोटों के साथ मुसलमानों का पूरा वोटबैंक लेकर एक नए सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले पर अभी से काम कर रही हैं. ऐसे में अब सवाल ये कि क्या मायावती ऐसा करके 2022 में वैसा ही चमत्कार कर पाएंगी क्या, जैसा उन्होंने 2007 के यूपी विधानसभा में किया था? क्या मायावती बीजेपी को टक्कर देने के लिए जो वोटरों का गठबंधन बनाने की कोशिश में लगी हैं, वो यूपी जैसे राज्य में संभव है?
मायावती जिस तरह से लगातार दलितों और मुसलमानों की बात कर रही हैं, उससे उनके मंशा साफ़ ज़ाहिर होती है. वो एक ऐसा गठजोड़ तैयार करने में जुट गई हैं, जिसकी बदौलत वो यूपी में 40 फ़ीसदी वोट हासिल करने का रास्ता निकाल सकें. दलित वोटों पर एकाधिकार का दावा करने वाली बीएसपी प्रमुख मायावती, समाजवादी पार्टी को छोड़ कर 2022 में अकेले जाने का इशारा कर चुकी हैं. मायावती जिस तरह से बार बार मुसलमानों के लिए रहनुमाई दिखाने की कोशिश कर रही हैं, उससे साफ़ ज़ाहिर है कि 2007 की तरह मायावती एक बार फिर सोशल इंजीनियरिंग का गुणा भाग करने में जुट गई हैं. लेकिन इस बार उनके कोर वोट बैंक दलित के साथ ब्राह्मण नहीं बल्कि मुसलमान होगा. मायावती को ठीक से पता है कि इस वक़्त यूपी में मुस्किम वोटर पशोपेश में है कि आख़िर वो किसके साथ जाए.
कांग्रेस को यूपी में सिर्फ एक सीट हासिल हुई, वो भी पार्टी की सबसे वरिष्ठ नेता सोनिया गांधी को. बाक़ी कांग्रेस की दुर्गति का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि ख़ुद राहुल गांधी अमेठी से चुनाव हारकर अध्यक्ष पद से हटने की ज़िद पर अड़े हैं. इसके बाद अगर मुसलमान वोटों की पसंदीदा पार्टी मानी जाने वाली सपा की बात करें तो पार्टी संरक्षक मुलायम सिंह और अध्यक्ष अखिलेश यादव को छोड़कर यादव परिवार के सदस्य चुनाव हार गए. पूरे राज्य में सिर्फ 5 सीटें हासिल करने वाली सपा का भी वोटबैंक बुरी तरह खिसक गया है. ऐसे में मायावती इस वक़्त सिर्फ यह जताने में जुटी हैं कि बीजेपी को टक्कर देने की कूव्वत अगर किसी में है, तो वो बीएसपी ही है.
इस साल हुए लोकसभा चुनावों में अगर गठबंधन की बात करें तो समाजवादी पार्टी ने 4 मुसलमानों को टिकट दिया तो वहीं बीएसपी ने 6 मुस्लिमों पर विश्वास जताया. हालांकि नतीजों में सपा और बसपा के बराबर मुस्लिम प्रत्याशी जीतकर लोकसभा पहुंचे. एसपी के भी 3 मुस्लिम प्रत्याशी सांसद बने और बीएसपी के भी 3 मुस्लिम प्रत्याशी संसद तक पहुंचने में सफ़ल रहे. गठबंधन ने लोकसभा चुनाव में 10 मुस्लिमों को टिकट दिए. इनमें से 5 पश्चिम यूपी से जीते जबकि पूर्वांचल से सिर्फ 1 मुस्लिम प्रत्याशी को जीत हासिल हुई. हालांकि अगर हम बात करें 2014 के लोकसभा चुनाव की तो उसमें यूपी से एक भी मुस्लिम प्रत्याशी संसद नहीं पहुंचा सका था. हां, 2018 में हुए कैराना लोकसभा सीट के उपचुनाव में गठबंधन की तरफ से आरएलडी की प्रत्याशी तबस्सुम हसन सांसद चुनी गईं तो साल भर के लिए यूपी से एक मुस्लिम चेहरा लोकसभा में ज़रूर मौजूद रहा.
इस साल के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने मुरादाबाद, कैराना, रामपुर और संभल से मुस्लिम प्रत्याशी उतारे थे. इनमें कैराना सीट छोड़कर बाक़ी सभी 3 सीटों पर सपा को जीत हासिल हुई. जीतने वालों में रामपुर से आजम खान, मुरादाबाद से डॉ एसटी हसन, और संभल से डॉ शफीकुर्रहमान बर्क़ को जीत हासिल हुई. बात करें बीएसपी की तो मायावती ने मेरठ, सहारनपुर, धौरहरा, अमरोहा, गाज़ीपुर और डुमरियागंज से मुस्लिम प्रत्याशी उतारे थे. इनमें से सहारनपुर से फ़जलुर्रहमान, अमरोहा से दानिश अली और गाज़ीपुर से अफ़ज़ाज अंसारी चुनाव जीतकर संसद पहुंच गए.
ऐसे में समाजवादी पार्टी को कोसकर मायावती सिर्फ इस कोशिश में हैं कि कैसे भी मुसलमानों को यक़ीन हो जाये कि इस वक़्त अगर यूपी में क्षेत्रीय स्तर पर कोई बीजेपी को चुनौती दे सकता है तो वो सिर्फ और सिर्फ बीएसपी है. सपा और कांग्रेस की ख़स्ताहालत देखकर शायद मुसलमान भी पशोपेश में है कि आख़िर वो जाए तो जाए कहाँ. हालांकि एक बात और गौर करने वाली है कि मायावती भले दलित वोटों को अभी भी पूरी तरह अपना मानकर चल रही हैं. लेकिन लोकसभा चुनाव के परिणाम बताते हैं कि मायावती के गैर जाटव वोटों में बीजेपी ने सेंधमारी कर दी है. ऐसे में मायावती के सामने न सिर्फ मुस्लमानों को जोड़ने की बल्कि अपने गैर जाटव वोटों को वापस लाने की बड़ी चुनौती है. शायद यही वजह है कि लोकसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद उन्होंने बिना देर किए अपनी मंशा भी साफ़ कर दी और संगठन के स्तर पर कुछ ज़रूरी बदलाव भी किये हैं. यूपी में विधानाभा चुनाव में लगभग ढाई साल का वक़्त बचा है. ऐसे में मायावती को अंदाज़ा है कि बड़े दांव के लिए ये वक़्त बहुत छोटा है. और इसीलिए उन्होंने अपनी तैयारियां अभी से शुरू कर दी है. ये तो ख़ैर 2022 में ही पता लगेगा कि मायावती कितनी सफ़ल होती हैं लेकिन ये ज़रूर दिखने लगा है कि बीजेपी के अलावा अगर ज़मीन पर योजनाबद्ध तरीक़े से अगर कोई अभी से 2022 की तैयारी कर रही हैं तो वो मायावती ही हैं.