भारत के महान संत एवं समाजसुधारक श्री नारायण गुरु का जन्म केरल के तिरुअनंतपुरम के उत्तर में 12 किलोमीटर दूर एक छोटे से गाँव में सन 1856 में हुआ था। स्वयं पिछड़ी जाति के होने के कारण वे इस समुदाय के दुःख दर्द को समझते थे। इन का घर का नाम नानु था। ये बचपन से ही बहुत नटखट थे।
इनकी प्रारम्भिक शिक्षा उस समय के प्रसिद्ध ज्योतिषी सीए पिल्लै के पास हुई। इनसे इन्होंने संस्कृत की शिक्षा ग्रहण की। गाँव में इस से अधिक शिक्षा का कोई साधन नहीं था। अतः ये वहाँ से प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण कर अपने घर में ही रह कर स्वाध्याय करने लगे। इन की लगन देख कर इन के चाचा श्री कृष्णनवैदियार ने इन्हें पढ़ाने का दायित्व ले लिया। थोड़ा बड़ा होने पर इन्होंने गांव के पशुओं को चराने की जिम्मेवारी ले ली। जब ये गायों को चराने के लिए जंगल में जाते और देखते की गायें आराम से चारा चार रही हैं अथवा जुगाली कर रही हैं तो ये स्वयं एक तरफ बैठकर संस्कृत श्लोक याद करते रहते। बाद में इन्हें खेतों में हल चलाने का काम मिल गया ।
खेतों में काम करते समय भी जब इन्हें समय मिलता तो ये जीवन के रहस्यों, उन के कारणों, और निराकरण के उपाय ढूँढ़ते रहते । मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? यह जीवन क्या है ? कितने दिनों के लिए है ? कहाँ से आता है ? कहाँ जाता है ? संसार में दुःख क्यों है ? सुख क्या है ? इस तरह के प्रश्न सदा ही इन्हें विचलित करते रहते ।
बड़े होने पर इन्होंने आस पास के अपने समकक्ष बच्चों को लिखना पढ़ना सिखाना शुरू किया। तब ये नानूअशान (नानू अध्यापक) के नाम से प्रसिद्ध हो गए। रहने के लिए इन्हें पास के ही ज्ञानेश्वरम मंदिर के परिसर में जगह मिल गई। तब इन्होंने मंदिर में श्रीमद्भगवतगीता का अध्यापन शुरू किया।
नारायण गुरु का विश्वास था कि भक्ति की शिक्षा प्रस्थानत्रयी अर्थात वेदान्त सूत्र, उपनिषद् और गीता से ही मिलती है। वेद का प्रतिपाद्य विषय कर्म था। उपनिषदों ने इस में ज्ञान का पुट मिलाया और भक्ति जनता के स्तर से उठकर ऊपर पहुंची। इन तीनों का समन्वय गीता में किया गया।
इस में कर्म योग, भक्ति योग और ज्ञान योग की बात कही गई। गीता का समन्वय मूलक ही इस की मौलिकता है। शंकराचार्य ने गीता के इसी सिद्धान्त का प्रचार प्रसार करते हुए अद्वैतवाद की स्थापना की थी। श्री नारायण गुरु ने इसी को अपने दर्शन में नए रूप में प्रस्तुत किया।
उन का बल गीता के संदेशों पर अधिक था। वे न तो कठोर कर्मकाँड़ी थे और न ही कट्टर वेदांती। वे कभी सन्यास लेकर जंगलों में जा कर नहीं रहे। उन का विश्वास आसक्ति रहित कर्म करने में था। उन्होने अपने ‘आत्मोपदेशक शतक’ में बार बार यही कहा कि ज्ञान प्राप्ति ही सब कुछ नहीं है।
ज्ञान का अर्थ है आत्म निरीक्षण अर्थात आपने अंदर झांक कर देखना, स्वयं को पहचानना और अपने स्व कि अनुभूति करना – यही वास्तविक ज्ञान है। श्री नारायण गुरु का जीवन दर्शन मुख्यतः तीन भागों में देखा जा सकता है।
पहला है एक भक्त का, एक ऐसा भक्त जो संसार के दैनिक झगड़ों टंटों से दूर, शांति प्रद स्थानों पर, जंगलों में, पर्वतों की कन्दराओं में, सुनसान धीमी बहती नदी के तट पर अथवा इसी प्रकार के निर्जन स्थानों पर सत्य को ढूँढ़ता रहता है।
दूसरा भाग जब मनुष्य एक तपस्वी हो जाता है, एक वास्तविक योगी बन जाता है। कर्मण्येवाधिकारर्स्ते मा फलेषूकदाचन-जब वह गीता के इस सूत्र को अपना धर्म मान लेता है।
तीसरा भाग वह है जब वह वास्तविक रूप से कर्म में विश्वास रखते हुए संसार के मोह माया से हट कर एक ज्ञानी बन जाता है। लेकिन उसे समाज की आवश्यकता अथवा समाज की गतिविधि का भी ज्ञान रहता है। यह एक धर्म प्राण बौद्धिक का रूप है।
नारायण गुरु की रचनाओं में मनुष्य केइन तीनों रूपों की झलक है। उनके काव्य में भक्ति भाव की प्रधानता है ही साथ में मनुष्य की आंतरिक हृदय की दिव्य ज्योति की भी सुगंध है। ‘अनुभूमि दशकम’‘अद्वैत दीपिका’ तथा ‘स्वानुभूति गीति’ में इसी दिव्य ज्योति का आभास मिलता है। ‘
कुंडलिनी पटटू’ नाम की काव्य रचना में पातंजलि ऋषि के योग साधना के छह सोपानों की चर्चा की गई है। उनकी अन्य रचनाएँ हैं – दर्शन माला, आत्मोपदेश शतकम, दैव दशकम, आदि। श्री नारायण गुरु आचार्य शंकर के अद्वैतवाद में विश्वास रखते थे लेकिन एक अंतर के साथ।
आचार्य शंकर ने अद्वैत दर्शन को विश्व में भारत के एक विशेष आध्यात्मिक योगदान के रूप में प्रस्तुत किया। इस प्रकार उन्होंने देश में अपने मत अवलंबियों का एक बौद्धिक वर्ग बना दिया।
श्री नायन गुरु ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया लेकिन इसे मूलतः दीन, हीन, संत्रस्त, तथा पीड़ित जन साधारण के हित को ध्यान में रख कर।
श्री नारायण गुरु के जीवन के साथ अनेक चमत्कारिक कहानियां जुड़ी हुई है। इन में कुछ अतिशयोक्ति भी हो सकती हैं। इस तरह की चमत्कारिक कहानियों को स्वयं नारायण गुरु ने नकारा है। लेकिन कुछ घटनाएं ऐसी हैं जो वास्तविक होते हुए भी चमत्कार से कम नहीं। एक बार नारायण गुरु अपने शिष्य कुमारन आसन के अरुविपुरम में ठहरे थे। वे किसी के घर में न रहकर बाहर खुले आसमान के नीचे आग जलाकर रात्रि बिताना अधिक पसंद करते थे।
इस रात भी दोनों गुरु और शिष्य एक पेड़ के नीचे आग जला कर बैठे थे। थोड़ी देर बाद नारायण गुरु ध्यान में बैठ गए और आसन कंबल ओढ़ कर पास ही जमीन पर सो गए। थोड़ी देर बाद गुरु ने एक हल्की सी डंडी से शिष्य को जगा कर धीरे से कहा ‘देखो’।
आसन ने देखा कि पास में ही एक चीता और उस का बच्चा आग के दूसरी तरफ बैठे हैं। गुरु जी ने कहा ,‘डरो मत चुप चाप सो जाओ। ये हमें कुछ नहीं कहेंगे’। आसन स्वयं को अच्छी तरह कंबल से लपेट कर सो गया। थोड़ी देर बाद जब आसन कि आँख खुली तो उस ने देखा कि दोनों जानवर जा चुके हैं। इस तरह की अनेक घटनाओं की चर्चा स्वयं नारायण गुरु के अन्य शिष्यों ने भी की है।
नारायण गुरु जीवन के तीस वर्षों तक यायावर की भांति इधर से उधर घूमते रहे। रात हो या दिन, कभी इस स्थान पर तो कभी उस स्थान पर, कभी समुद्र तट पर तो कभी पर्वतों पर, कभी वन प्रांतरों में तो कभी कन्दराओं में, कभी ध्यानावस्थित तो कभी विचार विमर्श में लीन।
विद्वानों ने इन्हें गीता के ‘अनिकेत स्थितप्रज्ञ’कहा। इन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य बनाया – समाज से अशिक्षा, अज्ञानता,अंधविश्वास, भ्रष्टाचार, दकियानूसी रीति रिवाज और रूढ़िवादिता का उन्मूलन। स्वामी जी हृदय से अत्यंत दयालु, शान्त और सरल स्वभाव के थे लेकिन साथ ही इच्छा शक्ति में धृढ़ और संकल्पशील थे। इन्होंने अनेक छात्रों को संस्कृत और विज्ञान पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया।
मुख्य उद्देश्य था – समाज में चेतना जागृत करना। इन का जीवन दर्शन शाश्वत मूल्यों पर आधारित था इस लिए इन्हें एक व्यावहारिक योगी माना जाता है।श्री नारायण गुरु अपनी जीवन पद्धति और क्रिया कलापों के कारण एक शुद्ध,सात्विक और सरल वेदांती थे। आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्ति के मार्ग में अंतर्विरोध और पारस्परिक विरोध के रूप में अवरोध तो आते ही हैं। ये नारायण गुरु के सामने भी आए।
इस पर स्वामी जी ने कुछ सूत्र बना रखे थे –
(1)“सभी धर्मों का लक्ष्य एक है। एक बार जब सभी नदियाँ सागर में मिल जाती हैं तो सब के अंतर समाप्त हो जाते हैं।“
(2)“धर्म का उद्देश्य है मनुष्य के विचारों को शिखर तक ले जाना।“
(3)“जिस व्यक्ति ने अंतिम सत्य का अनुभव कर लिया, उसे फिर किसी धर्म की आवश्यकता नहीं होती। वह अन्य लोगों के लिए पथ प्रदर्शक बन जाता है।“
नारायण गुरु ने अपने कार्यकर्मों और उपदेशों द्वारा केरल की दमित और दलित वर्ग के लोगों में आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता पैदा की। इन के प्रयत्नों के परिणाम स्वरूप 1925 में केरल में दलित और दमित जाति के लिए वहाँ के मंदिरों के द्वार खोल दिये गए।
1936 में इस संबंध में कानून भी पारित कर दिया गया। पहले इन वर्गों के बच्चों पर सामान्य स्कूलों में पढ़ने पर प्रतिबंध था। नारायण गुरु के प्रयत्नों से स्वतन्त्रता प्राप्ति से पहले ही यह प्रतिबंध हट गया ।
फरवरी 1928 में स्वामी जी अचानक अस्वस्थ हो गए। इन को आभास हो गया कि अब इनका अंतिम समय आ गया है। अंत में 20 सितंबर 1928 को 72 वर्ष कि आयु में वे महा समाधि में लीन हो गए।