रतन थियम प्रसिद्ध नाटककार, रंगमंच निदेशक और नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के पूर्व निदेशक है। इन्होंने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के साथ कई नाटकों का निर्देशन किया। रतन थियम पारम्परिक संस्कृत नाटकों को उनकी आधुनिक व्याख्या के साथ प्रस्तुत करने के लिए जाने जाते है। उनका रंगकर्म अद्भुत रंग-संयोजन और अप्रतिम लय के कारण अनूठा है। वे अपना चित्रकार व कवि होना न सिर्फ़ अपनी चित्रकृतियों व कविताओं में व्यक्त करते है बल्कि उनका रंगकार्य भी इनका अचूक प्रमाण है। वे नाट्यविद्या और उससे सम्बद्ध कला माध्यमों के विकास में विशेष रूप से सक्रिय रहे हैं। उन्होंने अनेक भारतीय एवं विदेशी नाटकों का मंचन करने के साथ-साथ भास के दो नाटकों, कर्णभारम् और उरूभंगम् का मंचन किया है।
जीवन परिचय
रतन थियम का जन्म 20 जनवरी, 1948 को मणिपुर में हुआ था। रतन थियम को लेखन और मंचन में प्राचीन भारतीय थिएटर परंपरा के प्रयोग के लिए जाना जाता है।
आन्दोलित परिवेश का उद्वेलित रंग-सर्जक
रतन थियम देश के शीर्ष रंग निर्देशक हैं जो अपने स्वप्न और सर्जना का रंगमंच पिछले चार दशकों में रचते आ रहे हैं। वे आन्दोलित परिवेश के उद्वेलित व्यक्तित्व हैं जो निरन्तर उस अशान्त समय का रचनात्मक प्रतिवाद करते आ रहे हैं जो उनके सिरहाने उनको लगातार विचलित करता रहा है। मणिपुर में रतन थियम को अपनी जमीन और उसकी नब्ज का पता है, वे वहाँ बिताये अपने पूरे जीवन के एक तरह से सम्वेदनशील साक्ष्य की तरह हैं जो अपने आसपास से अत्यन्त विचलित रहते हुए, तमाम खतरों में रहते हुए भी रंगकर्म की लौ को बचाये हुए हैं। रतन थियम नाटकों की समीक्षा करते हुए नाटक करने लगे थे। उनके पिता मणिपुरी नृत्य शैली के प्रतिबद्ध कलाकार थे। रतन थियम पेंटिंग करते थे, लघु कहानियाँ, कविताएँ और नाटक भी लिखे। नाट्य समीक्षक होते हुए ही उन्होंने इस बात को महसूस किया कि पूर्णकालिक रंग-शिक्षा की उनको ज़रूरत है। यही ज़रूरत उनको राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय पढ़ने के लिए ले गयी। सत्तर के दशक के आरम्भ में वे दिल्ली आये और पाँच-छः वर्षों में ही उन्होंने अपनी क्षमताओं की एक बड़ी लकीर खींची। रतन थियम ने यहाँ समय व्यतीत करके फिर अपनी जमीन, मणिपुर लौट गये और अपनी खुद की थिएटर रेपर्टरी कोरस की स्थापना की। रतन थियम अपनी ज़रूरत के लिए दो एकड़ की पर्याप्त जमीन का इन्तजाम किया और कलाकारों के साथ यहीं अपनी दुनिया खड़ी की। एक थिएटर, तीन सौ लोगों के नाटक देखने के लिए और कलाकारों के लिए उगाने-बनाने-खाने और रहने का बन्दोबस्त। इस ढंग की परिकल्पना शायद सबसे पहले उन्होंने ही की।
प्रसिद्धि
भारतीय रंगमंच को अपनी प्रस्तुतियों से समृद्ध करने वाले रतन थियम अपने नाटकीय प्रस्तुतियों के लिए देश ही नहीं, दुनिया भर में विख्यात हैं। 14वें भारत रंग महोत्सव के उद्घाटन के अवसर रतन थियम की प्रस्तुति के जादू से रंगप्रेमियों को दो-चार होने का मौका एक बार फिर मिला। कविगुरु रबींद्रनाथ टैगोर लिखित नाटक ‘किंग ऑफ द डार्क चैंबर’ की प्रस्तुति उनके निर्देशन में कोरस थिएटर ग्रुप, मणिपुर के कलाकारों ने की। रतन थियम के नाटकों में युद्ध, उसकी विभीषिका और महिलाओं की स्थिति को खास तौर पर फोकस किया जाता रहा है। ‘किंग ऑफ द डार्क चैंबर’ नाटक में भी उन्हीं स्थितियों को बहुत ही खूबसूरती से दर्शाया गया है। नाटक को अपने विजुअल लैंग्वज में जिस खूबसूरती से पिरोया रतन थियम ने पिरोया है वह उसके शाब्दिक अनुवाद में कहीं से भी बाधक नहीं बनता। ‘किंग ऑफ द डार्क चैंबर’ नाटक में रतन थियम एक बार फिर अपनी रंगत में दिखे। उनके नाटकों की खासियत सिनेग्राफी रही है। रतन थियम अपने नाटकों में विजुअल इफेक्ट्स के जबर्दस्त उपयोग के लिए जाने जाते हैं। उनकी नाटक की भाषा में जितने अहम कलाकारों के संवाद होते हैं उससे अधिक अभिनेताओं की दैहिक नृत्यमूलक गतियां, पार्श्व संगीत, स्टेज पर बिखरते प्रकाशकीय रंगों का आलोक, वस्त्र योजना और स्टेज की साज-सज्जा भूमिका निभाते हैं। ‘किंग ऑफ द डार्क चैंबर’ नाटक में रतन थियम के नाटकों में दिखने वाली छाप अपनी रंगत में दिखी जिसे दर्शकों ने पूरे मन से सराहा।
प्रमुख नाटक
करणभरम (1979)
इम्फाल इम्फाल (1982)
चक्रव्यूह (1984)
उत्तर प्रियदर्शी (1996)
ऋतुसंहार
अंधा युग
द किंग ऑफ़ द डार्क चेंबर
किंग ऑफ़ द डार्क चेंबर
रतन थियम देश की शीर्ष रंग-निर्देशकों में से है। उनके नाटकों में थिएटर का एक क्लासिक व्याकरण देखने को मिलता है। ‘किंग ऑफ़ द डार्क चेंबर’ रवींद्रनाथ टैगोर का नाटक है। नगर में सब कुछ सही है पर राजा अदृश्य है। वह एक अंधेरे कक्ष में रहता है। रानी सुदर्शना और प्रजा सोचते हैं कि राजा है भी कि नहीं। रानी रोशनी की गुहार करती है, पर सुरंगमा का कहना है कि उसने अनिर्वचनीय सुंदर राजा का अंधेरे में ही देखा था। आस्था और अविश्वास के बीच कांची नरेश जैसे मौकापरस्त लोग अपने काम में लगे हैं। वे आग लगवाते हैं, युद्ध का सबब बनते हैं। उधर रानी का असमंजस बढ़ता जा रहा है। नाटक का अदृश्य राजा ईश्वर याकि सच और सौंदर्य का प्रतीक माना गया है, और उसका अंधेरा कक्ष व्यक्ति के आत्म का। रानी को उसे अपने भीतर ढूंढना चाहिए, पर वह उसे बाहर ढूंढ़ रही है। इस व्याकरण में कहीं भी कुछ अतिरिक्त नहीं, कोई चूक नहीं। संगीत, ध्वनियां, रोशनियां, अभिनय-सब कुछ सटीक मात्रा में आहिस्ता-आहिस्ता लेकिन पूरी लल्लीनता से पेश होते हैं। कमानी प्रेक्षागृह में हुई भारत रंग महोत्सव की उद्घाटन प्रस्तुति ‘किंग ऑफ द डार्क चेंबर’ में भी सब कुछ इसी तरह था। पहले ही दृश्य में नीली स्पॉटलाइट अपना पूरा समय लेते हुए धीरे-धीरे गाढ़ी होती है। गाढ़े होते वृत्त में नानी सुदर्शना एक छितराए से विशाल गोलाकार आसन पर बैठी है। उसकी पीछे और दाहिने दो ऊंचे झीनी बुनावट वाले फ्रेम खड़े हैं। एक फ्रेम के पीछे से पीले रंग की पट्टी आगे की ओर गिरती है। फिर एक अन्य पात्र सुरंगमा प्रकट होती है। बांसुरी का स्वर बादलों की गड़गड़ाहट। मणिपुरी नाटक का कोई संवाद दर्शकों के पल्ले नहीं पड़ रहा, लेकिन घटित हो रहा दृश्य उन्हें बांधे हुए हैं। मंच पर फैले स्याह कपड़े में से अप्रत्याशित एक आकार ऊपर को उठता है। कुम्हार की तरह रानी दोनों हाथों से इसे गढ़ रही है। फिर वह इस स्याह आदमकद को माला और झक्क सफेद पगड़ी पहनाती है। चटक रंगों की योजना रतन थियम की प्रायः हर प्रस्तुति में प्रमुखता से दिखाई देती है। इस प्रस्तुति में भी पीले रंग की वेशभूषा में वादकों का एक समूह। अंधेरे में डूबे मंच पर पीछे के परदे पर उभरा चंद्रमा और मंच पर फैला फूलों का बगीचा। ये रंग अक्सर अपनी टाइमिंग और दृश्य युक्तियों में एक तीखी कौंध या कि चमत्कारिक असर पैदा करते हैं। आग लगने के दृश्य में छह लोग सरपट एक लय में पीले रंग के कपड़े को हवा में उछाल रहे हैं कि दर्शक तालियां बजाने को मजबूर होते हैं
सम्मान और पुरस्कार
1984- इंडो-ग्रीक फ्रेंडशिप अवार्ड, 1984 (ग्रीस)
1987- संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार
1989- पद्मश्री
2005- कालिदास सम्मान
2008- जॉह्न डी. रॉकफेलर अवार्ड
2011- भरत मुनि सम्मान
2012- संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप (अकादमी रत्न)
2013- भूपेन हज़ारिका फाउंडेशन अवार्ड