रानी गाइदिनल्यू भारत की प्रसिद्ध महिला क्रांतिकारियों में से एक थीं। उन्होंने देश को आज़ादी दिलाने के लिए नागालैण्ड में अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम दिया। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के समान ही वीरतापूर्ण कार्य करने के लिए इन्हें ‘नागालैण्ड की रानी लक्ष्मीबाई’ कहा जाता है। जब रानी गाइदिनल्यू को अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण अंग्रेज़ों ने गिरफ़्तार कर लिया, तब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कई वर्षों की सज़ा काट चुकीं रानी को रिहाई दिलाने के प्रयास किए। किंतु अंग्रेज़ों ने उनकी इस बात को नहीं माना, क्योंकि वे रानी से बहुत भयभीत थे और उन्हें अपने लिए ख़तरनाक मानते थे।
जन्म तथा स्वभाव
रानी गाइदिनल्यू का जन्म 26 जनवरी, 1915 ई. को भारत के मणिपुर राज्य में पश्चिमी ज़िले में हुआ था। वह बचपन से ही बड़े स्वतंत्र और स्वाभिमानी स्वभाव की थीं। 13 वर्ष की उम्र में ही वह नागा नेता जादोनाग के सम्पर्क में आईं। जादोनाग मणिपुर से अंग्रेज़ों को निकाल बाहर करने के प्रयत्न में लगे हुए थे। वे अपने आन्दोलन को क्रियात्मक रूप दे पाते, उससे पहले ही गिरफ्तार करके अंग्रेज़ों ने उन्हें 29 अगस्त, 1931 को फ़ाँसी पर लटका दिया।
क्रांतिकारी जीवन
जादोनाग के बाद अब स्वतंत्रता के लिए चल रहे आन्दोलन का नेतृत्व बालिका गाइदिनल्यू के हाथों में आ गया। उन्होंने महात्मा गाँधी के आन्दोलन के बारे में सुनकर ब्रिटिश सरकार को किसी भी प्रकार का कर न देने की घोषणा की। नागाओं के कबीलों में एकता स्थापित करके उन्होंने अंग्रेज़ों के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए क़दम उठाये। उनके तेजस्वी व्यक्तित्व और निर्भयता को देखकर जन-जातीय लोग उन्हें सर्वशक्तिशाली देवी मानने लगे थे। नेता जादोनाग को फ़ाँसी दे दिए जाने से भी लोगों में असंतोष व्याप्त था, गाइदिनल्यू ने उसे सही दिशा की ओर मोड़ा। सोलह वर्ष की इस बालिका के साथ केवल चार हज़ार सशस्त्र नागा सिपाही थे। इन्हीं को लेकर भूमिगत गाइदिनल्यू ने अंग्रेज़ों की फ़ौज का सामना किया। वह गुरिल्ला युद्ध और शस्त्र संचालन में अत्यन्त निपुण थीं। अंग्रेज़ उन्हें बड़ी खूंखार नेता मानते थे। दूसरी ओर जनता का हर वर्ग उन्हें अपना उद्धारक समझता था।
गिरफ़्तारी
रानी द्वारा चलाये जा रहे आन्दोलन को दबाने के लिए अंग्रेज़ों ने वहाँ के कई गांव जलाकर राख कर दिए। पर इससे लोगों का उत्साह कम नहीं हुआ। सशस्त्र नागाओं ने एक दिन खुलेआम ‘असम राइफल्स’ की सरकारी चौकी पर हमला कर दिया। स्थान बदलते, अंग्रेज़ों की सेना पर छापामार प्रहार करते हुए गाइदिनल्यू ने एक इतना बड़ा क़िला बनाने का निश्चय किया, जिसमें उनके चार हज़ार नागा साथी रह सकें। इस पर काम चल ही रहा था कि 17 अप्रैल, 1932 को अंग्रेज़ों की सेना ने अचानक आक्रमण कर दिया। गाइदिनल्यू गिरफ़्तार कर ली गईं। उन पर मुकदमा चला और कारावास की सज़ा हुई। उन्होंने चौदह वर्ष जेल में बिताए।
अंग्रेज़ों का भय
सन 1937 में पंडित जवाहरलाल नेहरू को असम जाने पर रानी गाइदिनल्यू की वीरता का पता चला तो उन्होंने उन्हें ‘नागाओं की रानी’ की संज्ञा दी। नेहरू जी ने उनकी रिहाई के लिए बहुत प्रयास किया, लेकिन मणिपुर के एक देशी रियासत होने के कारण इस कार्य में सफलता नहीं मिली। अंग्रेज़ अब भी रानी गाइदिनल्यू को अपने लिए सबसे बड़ा ख़तरा मानते थे और उनकी रिहाई से भयभीत थे।
रिहाई तथा सम्मान
1947 ई. में देश के स्वतंत्र होने पर ही रानी गाइदिनल्यू जेल से बाहर आ सकीं। नागा कबीलों की आपसी स्पर्धा के कारण रानी को अपने सहयोगियों के साथ 1960 में भूमिगत हो जाना पड़ा। स्वतंत्रता संग्राम में साहसपूर्ण योगदान के लिए प्रधानमंत्री की ओर से ताम्रपत्र देकर और राष्ट्रपति की ओर से ‘पद्मभूषण’ की मानद उपाधि देकर उन्हें सम्मानित किया गया था।
निधन
रानी गाइदिनल्यू का निधन 17 फ़रवरी, 1993 को हुआ।