जरनैल सिंह फ़ुटबॉल के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों में से एक हैं। उन्होंने भारत को विजय दिलाने में श्रेष्ठ ‘डिफेंडर’ की भूमिका निभाई है। 1962 के जकार्ता एशियाई खेलों में जरनैल सिंह ने अपने स्ट्रोक द्वारा विजय दिलाकर भारत को स्वर्ण पदक दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उन्होंने 1966 की एशियाई आल-स्टार टीम का नेतृत्व भी किया। उन्हें 1964 में ‘अर्जुन पुरस्कार’ प्रदान किया गया।
परिचय
जरनैल सिंह का पूरा नाम ‘जरनैल सिंह ढिल्लों’ है। वे भारत के फ़ुटबॉल के एक अत्यन्त सफल खिलाड़ी रहे हैं। जरनैल सिंह का जन्म 20 फ़रवरी, 1936 में पनाम, ज़िला होशियारपुर, पंजाब में हुआ था। जरनैल सिंह ने अपनी शक्ति और बेहतर प्रदर्शन के दम पर फ़ुटबॉल में बचाव की कला (आर्ट ऑफ डिफेंस) को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। वह 1952 से 1956 तक खालसा कॉलेज महिपालपुर पंजाब के लिए खेलते रहे, फिर 1956-1957 के बीच खालसा स्पोर्टिंग कॉलेज, पंजाब टीम के सदस्य रहे। 1957-1958 में वह राजस्थान क्लब, कलकत्ता टीम के सदस्य रहे।[1]
फ़ुटबॉल कॅरियर
भारतीय फ़ुटबॉल के स्वर्णिम युग में जरनैल सिंह ने अपने समय के अन्य श्रेष्ठ खिलाड़ियों की भांति भारतीय फ़ुटबॉल को आगे बढ़ाने तथा उन्नति के रास्ते पर ले जाने में अहम भूमिका निभाई। 1962 के जकार्ता एशियाई खेलों में उनकी योग्यता व श्रेष्ठता किसी से छिपी नहीं है। वहां का उनका श्रेष्ठ प्रदर्शन आज भी याद किया जाता है। इन एशियाई खेलों में जरनैल सिंह के सिर में चोट के कारण छह टांके आए थे, परन्तु उन्होंने उसे भुलाकर फारवर्ड के रूप में खेल कर ऐसा महत्त्वपूर्ण गोल किया कि भारत पहले सेमीफाइनल में और फिर फाइनल में जीतकर एशियाई फ़ुटबॉल में पहली बार स्वर्ण पदक हासिल कर सका।
दो वर्ष पश्चात् अर्थात् 1964 में तेल अवीव में हुए एशिया कप में जरनैल सिंह ने डिफेन्डर के रूप में अत्यन्त श्रेष्ठ प्रदर्शन किया और भारत उस खेल में रनर-अप रहा। 1964 में ही मलेशिया के मर्डेका टूर्नामेंट में अच्छे प्रदर्शन के पश्चात् जरनैल सिंह ने चुन्नी गोस्वामी से टीम की डोर अपने हाथ में ले ली। वह 1965 से 1967 तक भारतीय फ़ुटबॉल टीम के कप्तान रहे और उनके नेतृत्व में टीम ने अत्यन्त बेहतरीन प्रदर्शन किया तथा अनेक सफलताएं अर्जित कीं। 1965-1966 तथा 1966-1967 में जरनैल सिंह ‘एशियाई ऑल स्टार टीम’ के भी कप्तान रहे।
घरेलू सर्किट में भी जरनैल सिंह मोहन बगान क्लब से 10 महत्त्वपूर्ण वर्षों तक जुड़े रहे जब हरी तथा मैरून टीमों ने राष्ट्रीय स्तर पर लगभग सभी महत्वपूर्ण मुकाबले जीत लिए। वह 1958 से 1968 तक मोहन बागान क्लब से जुड़े रहे। 1969 में मोहन बगान छोड़ने के पश्चात् वह पंजाब की टीम के लिए खेले और 1970 में उन्होंने टीम के कोच तथा खिलाड़ी के रूप में संतोष ट्रॉफी जीतने में टीम की मदद की।[1]
प्रशासनिक पद
जरनैल सिंह भारतीय राष्ट्रीय टीम के कोच भी रहे। वह कई महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर भी रहे। 1964 में जरनैल सिंह ज़िला खेल अधिकारी पद पर रहे। 1985 से 1990 तक वह पंजाब में खेल विभाग के डिप्टी डायरेक्टर रहे। 1990 से 1994 के बीच वह पंजाब के डायरेक्टर ऑफ स्पोर्ट्स पद पर रहे।
अर्जुन पुरस्कार
जरनैल सिंह को 1964 में ‘अर्जुन पुरस्कार’ प्रदान किया गया।
निधन
13 अक्टूबर, 2000 को जरनैल सिंह का वैंकूवर, कनाडा में देहान्त हो गया।
उपलब्धियां
भारतीय फुटबॉल टीम में ‘डिफेंडर’ के रूप में जरनैल सिंह अत्यन्त ख्यातिप्राप्त खिलाड़ी रहे।
1952 से 1956 तक खालसा कॉलेज, महिलपुर, (पंजाब) के खिलाड़ी रहे।
1956 से 1957 तक जरनैल सिंह खालसा स्पोर्टिंग क्लब, पंजाब टीम के सदस्य रहे।
1957 से 1958 के बीच वह राजस्थान क्लब, कलकत्ता टीम के के लिए खेले।
1958 से 1968 के बीच वह मोहन बागान क्लब से जुड़े रहे।
वह भारत के राष्ट्रीय कोच रहे।
वह उस टीम के कोच व खिलाड़ी थे जिसने 1970 में संतोष ट्राफी जीती।
1965 से 1967 तक वह भारतीय टीम के कप्तान रहे।
1962 में जकार्ता एशियाई खेलों के सेमीफाइनल में उनके महत्वपूर्ण स्ट्रोक से भारत फाइनल में पहुँच सका, फिर फाइनल में उनके महत्वपूर्ण खेल से भारत पहली बार एशियाई फ़ुटबॉल में स्वर्ण पदक प्राप्त कर सका।
1964 में उन्हें ‘अर्जुन पुरस्कार’ प्रदान किया गया।
1964 में तेल अवीव में हुए एशिया कप में उन्होंने ‘डिफेन्स’ में रहकर महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और भारत रनर-अप रहा।
वह 1964 में डिस्ट्रिक्ट स्पोर्ट्स आफिसर बने।
1985 से 1990 तक वह पंजाब में खेलों के डिप्टी डायरेक्टर रहे।
1990 से 1994 तक वह पंजाब में डायरेक्टर ऑफ स्पोर्ट्स रहे।