Home धर्म/ज्योतिष भक्ति करना चाहते हैं तो मन को शांत रखें….

भक्ति करना चाहते हैं तो मन को शांत रखें….

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शनिवार, 27 फरवरी को माघ मास की पूर्णिमा है। इस तिथि पर संत रविदास की जयंती मनाई जाती है। रविदासजी ने कई ऐसे सूत्र बताए हैं, जिन्हें अपनाने से हमारे कई दुख दूर किए जा सकते हैं। उनके जीवन से जुड़े कई प्रेरक प्रसंग भी प्रचलित हैं। जानिए रविदासजी का एक चर्चित प्रसंग…

संत रविदास की कुटिया में जो भी आता था, वे उनकी पूरे मन से सेवा करते थे। एक दिन उनकी कुटिया में एक सिद्ध महात्मा ने खाना खाया। खाने के बाद रविदासजी ने महात्माजी को अपने बनाए हुए जूते भी पहनाए।

इस सेवा से प्रसन्न होकर महात्माजी ने संत रविदास को एक ऐसा पत्थर दिया। जिसकी मदद से लोहा सोने में बदल जाता था। इसे पारस पत्थर कहा जाता है।

रविदासजी ने ये पत्थर लेने से मना कर दिया। उन्होंने कहा कि अगर मेरे औजार सोने के हो जाएंगे तो मैं जूते-चप्पल कैसे बनाउंगा?

महात्माजी बोले कि इस पत्थर से तुम धनी बन सकते हो। तुम्हें जूते-चप्पल बनाने की जरूरत ही नहीं है। जब तुम धनवान हो जाओगे तो समाज में जरूरतमंद लोगों की मदद कर पाओगे। जब चाहो इसका उपयोग कर लेना। ऐसा कहकर महात्माजी ने पारस पत्थर उसी कुटिया में एक ऊंची जगह पर रख दिया। इसके बाद महात्मा जी वहां से चले गए।

कुछ महीनों के बाद जब वे महात्मा फिर से संत रविदास की कुटिया पहुंचे। उन्होंने देखा कि रविदास की हालत वैसी की वैसी ही है, जैसी पहले थी। महात्माजी ने पूछा कि तुमने पारस पत्थर का उपयोग नहीं किया, वह पत्थर कहां है?

रविदासजी ने कहा कि वह पत्थर तो वहीं होगा, जहां आपने रखा था। महात्माजी ने पूछा कि तुमने इसका उपयोग क्यों नहीं किया?

रविदासजी बोले कि गुरुदेव, अगर मैं बहुत सारा सोना बना लेता और धनवान हो जाता तो मुझे धन की चिंता लगी रहती। कहीं ये धन कोई ये चुरा न ले। इसकी देखभाल करनी पड़ती।

अगर मैं धन का दान करता तो बहुत ही जल्दी ये बात पूरे क्षेत्र में फैल जाती। लोग दान लेने के लिए मेरे घर के बाहर खड़े रहते। इतना सब होने के बाद मैं भक्ति में मन नहीं लगा पाता। मैं तो जूते बनाने के काम से ही प्रसन्न हूं, क्योंकि इस काम से मेरे खाने-पीने की पर्याप्त व्यवस्था हो जाती है और बाकी समय में मैं भक्ति कर लेता हूं।

अगर मैं धनी हो जाता तो प्रसिद्धि मिल जाती और फिर मेरे जीवन की शांति खत्म हो जाती। मुझे तो शांति चाहिए, ताकि मैं भक्ति कर सकूं। इस कारण मैंने पारस पत्थर को हाथ भी नहीं लगाया।

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