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पंडिता रमाबाई

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पंडिता रमाबाई मेधावी प्रख्यात विदुषी समाजसुधारक और भारतीय नारियों को उनकी पिछड़ी हुई स्थिति से ऊपर उठाने के लिए समर्पित थीं। मेधावी क्रेटर का नाम रामाबाई मेधावी के नाम पर रखा गया।

परिचय
पंडिता रमाबाई मेधावी का जन्म 23 अप्रैल, 1858 ई. में मैसूर रियासत में हुआ था। उनके पिता ‘अनंत शास्त्री’ विद्वान् और स्त्री-शिक्षा के समर्थक थे। परन्तु उस समय की पारिवारिक रूढ़िवादिता इसमें बाधा बनी रही। पिता रमा के बचपन में ही साधु-संतों की मेहमानदारी के कारण निर्धन हो गए और उन्हें पत्नी तथा रमा की एक बहन और भाई के साथ गांव-गांव में पौराणिक कथाएँ सुनाकर पेट पालना पड़ा।

विद्वान् रमा
पंडिता रमाबाई असाधारण प्रतिभावान थी। अपने पिता से संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त करके 12 वर्ष की उम्र में ही 20 हज़ार श्लोक कंठस्थ कर लिए थे। देशाटन के कारण उसने मराठी के साथ-साथ कन्नड़, हिन्दी, तथा बंगला भाषाएँ भी सीख लीं। 20 वर्ष की उम्र में ही रमाबाई को संस्कृत के ज्ञान के लिए सरस्वती और पंडिता की उपाधियाँ प्राप्त हुई। तभी से वे पंडिता रमाबाई के नाम से जानी गई। 1876-1877 के भीषण अकाल में दुर्बल पिता और माता का शीघ्र ही देहांत हो गया। अब ये बच्चे पैदल भटकते रहे और तीन वर्ष में इन्होंने 4 हज़ार मील की यात्रा की। 22 साल में शादी होने के बाद उन्होंने बाल विवाह के विरोध में और विधवाओं के हालातों पर बोलना शुरू किया। मेडिकल की उपाधि हासिल करके वो ब्रिटेन गईं। यूएस गईं और स्नातक की उपाधि ली। पति की मौत के बाद उन्‍होंने पुणे में आर्य महिला समाज की स्थापना की। एक कवयित्री और लेखिका बनाने के क्रम में उन्होंने जीवन में खूब यात्राएं कीं। रमाबाई सात भाषाएं जानती थीं, धर्मपरिवर्तन कर ईसाई बन गईं और उन्होंने बाइबल की अनुवाद मराठी में किया।

समाज सुधारक
22 वर्ष की उम्र में पंडिता रमाबाई कोलकाता पहुंची। उन्होंने बाल विधवाओं और विधवाओं की दयनीय दशा सुधारने का बीड़ा उठाया। उनके संस्कृत ज्ञान और भाषणों से बंगाल के समाज में हलचल मच गई। भाई की मृत्यु के बाद रमाबाई ने ‘विपिन बिहारी’ नामक अछूत जाति के एक वकील से विवाह किया, परन्तु एक नन्हीं बच्ची को छोड़कर डेढ़ वर्ष के बाद ही हैजे की बीमारी में वह भी चल बसा। अछूत से विवाह करने के कारण रमाबाई को कट्टरपंथियों के आक्रोश का सामना करना पड़ा और वह पूना आकर स्त्री-शिक्षा के काम में लग गई। उसकी स्थापित संस्था आर्य महिला समाज की शीघ्र ही

मेधावी क्रेटर
मेधावी क्रेटर शुक्र ग्रह के एक गड्ढे का नाम है, जिसे रमाबाई मेधावी के नाम पर रखा गया था। शुक्र ग्रह जिसे भोर का तारा भी कहा जाता है। इस ग्रह पर बहुत बड़े-बड़े गड्ढे हैं। इन गड्ढों का नाम कुछ प्रसिद्ध महिलाओं के नाम पर रखा गया है। जोशी क्रेटर का नाम भारतीय मूल की महिला आनंदी गोपाल जोशी के नाम पर रखा गया तथा वीनस पर बने जीराड क्रेटर का जेरूसा जीराड के नाम पर रखा गया।[1]

विधवाओं के लिए कार्य
अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए पंडिता रमाबाई 1883 ई. में इंग्लैण्ड गईं। वहां दो वर्ष तक संस्कृत की प्रोफेसर रहने के बाद वे अमेरिका पहुंचीं। उन्होंने इंग्लैंड में ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था। अमेरिका में उनके प्रयत्न से रमाबाई एसोसिएशन बना जिसने भारत के विधवा आश्रम का 10 वर्ष तक खर्च चलाने का जिम्मा लिया। इसके बाद वे 1889 में भारत लौटीं और विधवाओं के लिए शारदा सदन की स्थापना की। बाद में कृपा सदन नामक एक और महिला आश्रम बनाया।

आत्मनिर्भरता की शिक्षा
पंडिता रमाबाई के इन आश्रमों में अनाथ और पीड़ित महिलाओं को ऐसी शिक्षा दी जाती थी जिससे वे स्वयं अपनी जीविका उपार्जित कर सकें। उन्होंने मुक्ति मिशन शुरू किया, जो ठुकराई गई महिलाओं-बच्चों का ठिकाना था। उन्होंने बंबई में 20 लड़कियों के साथ शारदा सदन की शुरुआत की। सन् 1919 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें “कैसर-ए-हिंदी” के तमगे से नवाजा था। पंडिता रमाबाई का जीवन इस बात का प्रमाण है कि यदि व्यक्ति दृढ़ निश्चय कर ले तो ग़रीबी, अभाव, दुर्दशा की स्थिति पर विजय प्राप्त करके वह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ सकता है। उनकी सफलता का रहस्य था- प्रतिकूल परिस्थितियों में साहस के साथ संघर्ष करते रहना।

निधन
5 अप्रैल, 1922 ई. को पंडिता रमाबाई का देहांत हो गया।

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