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बाल गन्धर्व

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बाल गन्धर्व मराठी रंगमंच के महान् नायक और प्रसिद्ध गायक थे। उन्होंने रंगमंच पर अपने अभिनय की शुरुआत सर्वप्रथम शकुंतला का चरित्र निभाकर की थी। नारायण श्रीपाद राजहंस को ‘बाल गन्धर्व’ के नाम से अधिक जाना जाता है। यह नाम उन्हें भारत के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानियों में से एक बाल गंगाधर तिलक ने दिया था। बाल गन्धर्व मराठी रंगमंच पर महिला चरित्रों को निभाते थे, क्योंकि तत्कालीन समय में महिलाएँ रंगमंच पर किसी भी प्रकार की भूमिका नहीं निभाती थीं।

परिचय
रंगमंच के महान् नायक नारायण श्रीपाद राजहंस का जन्म 26 जून, 1888 ई. को पुणे के एक मध्यम वर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। यद्यपि ऊनका वास्तविक नाम ‘नारायण श्रीपाद राजहंस’ था, लेकिन वे ‘बाल गन्धर्व’ के नाम से अधिक प्रसिद्ध हुए। रंगमंच के उनके अभिनय से प्रभावित होकर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने वर्ष 1898 में उन्हें ‘बाल गंधर्व’ का नाम दिया था और यहीं से उनका ये नाम प्रसिद्ध हो गया।

विवाह
बाल गन्धर्व की प्रथम पत्नी का निधन वर्ष 1940 में हो गया था। इसके बाद उन्होंने वर्ष 1951 में अपनी सहकर्मी गौहर बाई कर्नाटकी से दूसरा विवाह कर लिया।

सफलता
नारायण श्रीपाद राजहंस ने अपने समय के प्रसिद्ध संगीतकार भास्करबुवा से संगीत की शिक्षा प्राप्त की थी। रंगमंच के प्रति आकर्षण के कारण वे 1905 में ‘किर्लोस्कर नाट्य मंडली’ में सम्मिलित हो गए। उन दिनों रंगमंच पर नारी पात्रों का अभिनय भी पुरुष ही किया करते थे। प्रकृति से नारायण श्रीपाद राजहंस को सुंदर स्वरूप और आकर्षक देहयष्टि मिली थी। जब उन्होंने सर्वप्रथम शकुंतला का अभिनय किया तो दर्शक मंत्रमुग्ध हो उठे। उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

नाट्य मंडली
बाद में नारायण श्रीपाद राजहंस ने ‘गंधर्व नाट्य मंडली’ नाम से अपनी अलग संस्था बना ली। इस संस्था ने वर्ष 1944 तक अनेक नाटक प्रस्तुत किए। यह मराठी रंगमंच की सिरमौर संस्था बन गई। नारायण श्रीपाद ने इसमें अनेक महिला पात्रों का अभिनय किया, जिनमें सुभद्रा, भामिनी, देवयानी, रुक्मिणी, रेवती आदि के नाम प्रमुख रूप से लिये जा सकते हैं।

रोचक प्रसंग
एक बार ग्वालियर महाराज जीवाजीराव सिंधिया ने बाल गन्धर्व के स्त्री वेश में सहज अभिनय की तारीफ के पूल बांधे। दीवान राजवाडे साहब को इस पर भरोसा नहीं बैठा। बात आगे बढ़ी और बाल गन्धर्व की ओर से राजवाडे साहब को चुनौती दी गयी कि वे राजवाडे साहब के घर हल्दी कुंकू ले कर जायेंगे। (हल्दी कुंकू पति और परिवार के मंगल के लिए महाराष्ट्रीय महिलाओं द्वारा मनाया जाने वाला त्यौहार है, इसमें देवी की पूजा की जाती है। सुहागिन महिलाओं को घर बुलाकर कुंकू आदि लगा कर स्वागत किया जाता है और उन्हें करंजी, आम पना और चना दाल की नमकीन जैसे चीजें खिलायी जाती हैं) तो राजवाडे साहब के वादे पर चैत्र हल्दी कुंकू के दिन दरवाज़े पर लेडी राजवाडे के साथ 4-5 महिलाओं का पहरा था। हर आगंतुक महिला का स्वागत कर भीतर बैठाया जा रहा था, लेकिन तेज नजरें सबको देख रही थीं, तभी एक कार रुकी और एक आभिजात्य स्त्री उतरीं। महिला ने लेडी राजवाडे को नमस्कार किया और कुशल मंगल पूछा। उन्हें आदर के साथ अन्दर लिवा लिया गया और स्वागत के साथ जलपान करवाया गया। वह महिला सबसे मिली और जाते हुए लेडी राजवाडे को धन्यवाद दे बाहर अपनी कार में जा बैठीं। कार्यक्रम चलता रहा। लेडी राजवाडे की नज़रें तो बाल गन्धर्व को पकड़ने के लिए आतुर थीं। इतने में कार का ड्राईवर लेडी राजवाडे के पास पहुंचा और बोला बाल गन्धर्व आपके घर हल्दी कुंकू ले चुके हैं और वहां कार में बैठे हैं। राजवाडे साहब शर्त हार चुके थे और कलाकार के चर्चे सारे ग्वालियर में ताज्जुब के साथ सुने सुनाये जा रहे थे।

पुरस्कार व सम्मान
‘संगीत नाटक अकादमी’ से उन्हें सर्वोत्तम अभिनेता का पुरस्कार मिला। 1964 में राष्ट्रपति ने उन्हें ‘पद्मभूषण’ के अलंकरण से सम्मानित किया था।

निधन
मराठी रंगमंच को नई दिशा और और प्रसिद्धि दिलाने वाले नारायण श्रीपाद राजहंस का 15 जुलाई, सन 1967 को देहान्त हो गया।

 

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