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शशिकला

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शशिकला का नाम भारतीय हिन्दी सिनेमा की प्रसिद्ध खलनायिकाओं में से एक के रूप में लिया जाता है। हिंदी सिनेमा की ग्लैमरस खलनायिकाओं का ज़िक़्र होते ही ज़हन में उभरने वाला पहला नाम शशिकला का है। सन 1960 के दशक के हिंदी सिनेमा में अपनी एक ख़ास जगह बनाने वाली ख़ूबसूरत, चुलबुली और खलनायिका शशिकला को उस दौर के दर्शक आज भी भूले नहीं हैं। शशिकला न सिर्फ़ एक उम्दा अभिनेत्री थीं बल्कि मौक़ा मिलने पर उन्होंने ख़ुद को एक बेहतरीन डांसर के तौर पर भी साबित किया।

परिचय शशिकला का परिचयअभिनेत्री शशिकला का जन्म 3 अगस्त, 1933 को शोलापुर, महाराष्ट्र के एक परंपरावादी मराठी ‘जवळकर’ परिवार में हुआ था। उनके पिता कपड़े के कारोबारी थे और तीन भाई और तीन बहनों में वह माता-पिता की 5वीं संतान थीं। शशिकला के अनुसार, “वक़्त बदला, पिता जी ने मेरे चाचा के बेटे को पढ़ने के लिए इंग्लैंड भेजा, जिसकी वजह से ख़र्चे बेतहाशा बढ़ गए। उधर कारोबार में ज़बर्दस्त घाटा हो गया और हम सड़क पर आ गए। मैं सार्वजनिक गणेशोत्सव के कार्यक्रमों में हिस्सा लेती थी और एक अच्छी अभिनेत्री मानी जाती थी। इसलिए लोगों की सलाह पर हमारा परिवार मुंबई चला आया ताकि मैं फ़िल्मों में काम करके पैसा कमा सकूं।” ये आज़ादी से कुछ साल पहले की बात है। शशिकला की उम्र उस वक़्त क़रीब 11 साल थी

कॅरियर
मुख्य लेख
फ़िल्म ‘ज़ीनत’ साल 1945 में प्रदर्शित हुई थी। सैयद शौक़त हुसैन रिज़वी की अगली फ़िल्म ‘जुगनू’ (1947) में शशिकला हीरो दिलीप कुमार की बहन की भूमिका में नज़र आयीं। शशिकला के मुताबिक़ फ़िल्म ‘जुगनू’ में उनके काम से सैयद शौक़त हुसैन रिज़वी इतने ख़ुश हुए कि उन्होंने अपनी अगली फ़िल्म में शशिकला को हिरोईन बनाने का फ़ैसला कर लिया। लेकिन तभी मुल्क़ का बंटवारा हुआ और शौक़त और नूरजहां पाकिस्तान चले गए। नतीजतन शशिकला के लिए संघर्ष का दौर फिर से लौट आया। ‘ऑल इंडिया पिक्चर्स’ की ‘डोली’ (1947) और ‘पगड़ी’ (1948) और अमेय चक्रवर्ती की ‘गर्ल्स स्कूल’ (1949) जैसी की कुछ फ़िल्मों में छोटी-छोटी भूमिकाएं करने के बाद शशिकला ‘रणजीत मूवीटोन’ की फ़िल्म ‘नज़ारे’ (1949) में पहली बार हिरोईन बनीं। इस फ़िल्म में उनके हीरो आगा थे।

मानसिक दबाव और निराशाएं
दो बेटियों की मां शशिकला के अनुसार, “पति से काफ़ी पहले उनका अलगाव हो चुका था। आम लोगों के बर्ताव में ‘बुरी औरत’ की अपनी इमेज की वजह से झलकता असर भी उन्हें बेहद खलने लगा था। उधर इंडस्ट्री के बदले हुए माहौल में ख़ुद को ढाल पाना उनके लिए मुश्किल हो चला था। मानसिक दबाव और निराशाएं इतनी बढ़ गयी थीं कि वो विपश्यना के लिए इगतपुरी आश्रम जाने लगीं। उनका झुकाव आध्यात्म की ओर होने लगा।” शशिकला का कहना है, “साल 1988 में बनी फ़िल्म ‘घर घर की कहानी’ के दौरान घटी कुछ टनाओं ने मुझे ऐसी चोट पहुंचाई कि मैंने फ़िल्मों से अलग हो जाना ही बेहतर समझा। मैंने मुंबई छोड़ दिया और शांति की तलाश में जगह जगह भटकने लगी। चारधाम यात्रा की, ऋषिकेश के आश्रमों में गयी। लेकिन सिर्फ़ द्वारकापुरी और गणेशपुरी के रमन महर्षि के आश्रम में जाकर मुझे थोड़ी-बहुत शांति मिली वरना बाक़ी सभी जगहों पर धर्म को एक धंधे के रूप में ही पाया।”

शशिकला की छोटी बेटी शैलजा उन दिनों कोलकाता में रहती थीं। एक रोज़ बेटी के एक पारिवारिक मित्र के ज़रिए शशिकला मदर टेरेसा के आश्रम तक जा पहुंचीं। शशिकला का कहना था, “एक तो अभिनेत्री, ऊपर से ‘बुरी औरत’ की इमेज। पहले तो सभी ने मुझे शक़ की नजर से देखा। कई-कई इंटरव्यू हुए। शिशु भवन और फिर पुणे के आश्रम में मानसिक रोगियों, बीमार बुज़ुर्गों, स्पास्टिक बच्चों और कुष्ठ रोगियों की सेवा में रखकर कुछ दिन मेरा इम्तहान लिया गया। मरीज़ों की गंदगी साफ़ करना, उन्हें नहलाना, उनकी मरहम-पट्टी करना, इस काम में मुझे इतनी शांति मिली कि मैं भूल ही गयी कि मैं कौन हूं। मैं इम्तहान में पास हो गई। और फिर तीन महिने बाद कोलकाता में मदर से जब पहली बार मुलाक़ात हुई तो उनसे लिपटकर देर तक रोती रही। मदर के स्पर्श ने मुझे एक नयी ऊर्जा दी। अब फिर से वो ही दिनचर्या शुरू हुई। शिशु भवन, मुंबई और गोवा के आश्रम, सूरत और आसनसोल के कुष्ठाश्रम, निर्मल हृदय-कालीघाट में मरणासन्न रोगियों की सेवा, लाशें तक उठाईं। उस दौरान मदर के कई चमत्कार देखे। मैं वहां पूरी तरह से रम चुकी थी।

साल 1993 में शशिकला घर वापस लौटीं तो पता चला उनकी बड़ी बेटी को कैंसर है। बेटी के बच्चे छोटे थे। दो साल बाद बेटी गुज़र गयी। शशिकला के अनुसार- “मदर ने हालात से लड़ने की ताक़त दी। सीरियल ‘जुनून’ और ‘आह’ के ज़रिए मैंने फिर से अभिनय की शुरुआत की। ‘सोनपरी’ और ‘किसे अपना कहें’ जैसे सीरियलों के अलावा फ़िल्मों में भी मैं काफ़ी व्यस्त हो गयी।” शशिकला के मुताबिक़ पति के साथ भी उनके सम्बंध एक बार फिर से काफ़ी हद तक सामान्य हो चले थे, जो नैनीताल में बस चुके थे।

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