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गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’

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गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ की प्रसिद्धि प्रगतिशील कवि के रूप में है। मुक्तिबोध हिन्दी साहित्य की स्वातंत्र्योत्तर प्रगतिशील काव्यधारा के शीर्ष व्यक्तित्व थे। हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक चर्चा के केन्द्र में रहने वाले मुक्तिबोध कहानीकार भी थे और समीक्षक भी। उन्हें प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है।
मुक्तिबोध हिन्दी संसार की एक घटना बन गए। कुछ ऐसी घटना जिसकी ओर से आँखें मूंद लेना असम्भव था। उनका एकनिष्ठ संघर्ष, उनकी अटूट सच्चाई, उनका पूरा जीवन, सभी एक साथ हमारी भावनाओं के केंद्रीय मंच पर सामने आए और सभी ने उनके कवि होने को नई दृष्टि से देखा। कैसा जीवन था वह और ऐसे उसका अंत क्यों हुआ। और वह समुचित ख्याति से अब तक वंचित क्यों रहा? यह तल्ख टिप्पणी शमशेर बहादुर सिंह की है जो उन्होंने बड़े बेबाक ढंग से हिंदी जगत् के साहित्यकारों की निस्संगता पर कही है।

जन्म और शिक्षा: गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ का जन्म 13 नवंबर, 1917 को श्यौपुर (ग्वालियर) में हुआ था। इनकी आरम्भिक शिक्षा उज्जैन में हुई। मुक्तिबोध जी के पिता पुलिस विभाग के इंस्पेक्टर थे और उनका तबादला प्रायः होता रहता था। इसीलिए मुक्तिबोध जी की पढ़ाई में बाधा पड़ती रहती थी। इन्दौर के होल्कर से सन् 1938 में बी.ए. करके उज्जैन के माडर्न स्कूल में अध्यापक हो गए। इनका एक सहपाठी था शान्ताराम, जो गश्त की ड्यूटी पर तैनात हो गया था। गजानन उसी के साथ रात को शहर की घुमक्कड़ी को निकल जाते। बीड़ी का चस्का शायद तभी से लगा।

परिवार: इनके पिता माधव मुक्तिबोध भी बहुत शुस्ता फ़सीह उर्दू बोलते थे। ये कई स्थानों में थानेदार रह कर उज्जैन में इन्स्पैक्टर के पद से रिटायर हुए। मुक्तिबोध की माँ बुन्देलखण्ड की थीं, ईसागढ़ के एक किसान परिवार की। गजानन चार भाई हैं। इनसे छोटे शरतचन्द्र मराठी के प्रतिष्ठित कवि हैं। पारिवारिक असहमति और विरोध के बावजूद 1939 में शांता के साथ प्रेम-विवाह किया।

आरंभिक जीवन: मुक्तिबोध जी ने छोटी आयु में बडनगर के मिडिल स्कूल में अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया। सन् 1940 में मुक्तिबोध शुजालपुर के शारदा शिक्षा सदन में अध्यापक हो गए। इसके बाद उज्जैन, कलकत्ता, इंदौर, बम्बई, बंगलौर, बनारस तथा जबलपुर आदि जगहों पर नौकरी की। सन् 1942 के आंदोलन में जब यह शारदा शिक्षा सदन बंद हो गया, तो यह शीराज़ा बिखर गया। मुक्तिबोध उज्जैन चले गये। भिन्न-भिन्न नौकरियाँ कीं- मास्टरी से वायुसेना, पत्रकारिता से पार्टी तक। नागपुर 1948 में आये। सूचना तथा प्रकाशन विभाग, आकाशवाणी एवं ‘नया ख़ून’ में काम किया। अंत में कुछ माह तक पाठ्य पुस्तकें भी लिखी। अंतत: 1958 से दिग्विजय महाविद्यालय, राजनाँदगाँव में प्राध्यापक हुए। उन्होंने लिखा है कि:-

नौकरियाँ पकड़ता और छोड़ता रहा।
शिक्षक, पत्रकार, पुनः शिक्षक, सरकारी और ग़ैर सरकारी नौकरियाँ।
निम्न-मध्यवर्गीय जीवन, बाल-बच्चे, दवादारू, जन्म-मौत में उलझा रहा।

सहपाठी मित्र:गजानन के सहपाठी मित्रों में रोमानी कल्पना के कवि वीरेन्द्र कुमार जैन और प्रभागचन्द्र शर्मा, अनन्तर ‘कर्मवीर’ में सहकारी सम्पादक और उस समय के एक अच्छे, योग्य कवि थे। कविता की ओर रमाशंकर शुक्ल ‘हृदय’ ने गजानन को काफ़ी प्रोत्साहित किया था। ‘कर्मवीर’ में उन की कविताएँ छप रही थीं। माखनलाल और महादेवी की रहस्यात्मक शैली मालवा के तरुण हृदयों को आकृष्ट किये हुए थी, मगर मुक्तिबोध दॉस्तॉयवस्की, फ़्लाबेअर और गोर्की में भी कम खोये हुए नहीं रहते थे।

पत्रिका सम्पादन: आगरा से नेमिचन्द्र जैन शुजालपुर पहुँच गए थे। प्रभाकर माचवे भी अक्सर आ जाते। ‘तार-सप्तक’ की मूल परिकल्पना भी यहीं बनी। सन् 1943 में अज्ञेय के सम्पादन में ‘तार-सप्तक’ का प्रकाशन हुआ। जिसकी शुरुआत मुक्तिबोध की कविताओं से होती है। उज्जैन से सन् 1945 के लगभग मुक्तिबोध बनारस गये और त्रिलोचन शास्त्री के साथ ‘हंस’ के सम्पादन में शामिल हुए। वहाँ सम्पादन से लेकर डिस्पैचर तक का काम वह करते थे; साठ रुपये वेतन था। उनका काशी प्रवास बहुत सुखद नहीं रहा। भारतभूषण अग्रवाल और नेमिचन्द्र जैन ने उन्हें कलकत्ता बुलाया। पर अध्यापकी या सम्पादकी का कहीं कोई डौल नहीं जमा। हार कर मुक्तिबोध सन् 1946-1947 में जबलपुर चले गये। वहाँ ‘हितकारिणी हाई स्कूल’ में वह अध्यापक हो गये। और फिर नागपुर जा निकले। नागपुर का समय बीहड़ संघर्ष का समय था, किन्तु रचना की दृष्टि से अत्यन्त उर्वर। ‘नया ख़ून’ साप्ताहिक में वे नियमित रूप से लिखते रहे। साम्प्रदायिक दंगे ज़ोरों से शुरू हो गये थे। उस ज़माने में वह दैनिक ‘जय-हिन्द’ में भी कुछ काम करते थे। रात की ड्यूटी दे कर कर्फ़्यू के सन्नाटे में वह घर लौटते।

तार-सप्तक: शुजालपुर और उज्जैन ने सबसे मूल्यांकन चीज़ जो हिन्दी को दी वह ‘तार-सप्तक’ है। इसकी मूल परिकल्पना प्रभाकर माचवे और नेमिचन्द्र जैन की थी। नाम ‘तार-सप्तक’ प्रभाकर माचवे का सुझाया हुआ था। भारतभूषण अग्रवाल तब नेमि जी के बड़े गहरे मित्र थे। अत: उनका सम्पर्क भी शुजालपुर और मुक्तिबोध से हो गया। आरम्भ में प्रभागचन्द्र शर्मा और वीरेन्द्र कुमार जैन भी इस सप्तक-योजना के स्वर थे। अज्ञेय जी से सम्पर्क बढ़ने पर योजना को कार्य रूप में सम्पन्न करने के लिए उसमें सम्पादन का भार उन पर डाल दिया गया। नेमिचन्द्र और भारतभूषण जब कलकत्ता (अब कोलकाता) में थे, योजना ने अन्तिम रूप ले लिया। अज्ञेय भी ने डॉ. रामविलास शर्मा और गिरिजाकुमार माथुर के नाम सुझाये। सात की सीमा निश्चित होने के कारण नामावली में परिवर्तन अनिवार्य था। 1943 में जब यह ऐतिहासिक संग्रह प्रकाशित हुआ, उसने एक लम्बे विवाद को जन्म दिया, जो किसी न किसी संदर्भ या अर्थ में अब भी जारी है। उस संग्रह में मुक्तिबोध का योग उस समय सब से प्रोढ़ चाहे न हो, मगर शायद सबसे मौलिक था। दुरूह होते हुए बौद्धिक, बौद्धिक होते हुए भी रोमानी।

कृतियाँ: मुक्तिबोध हिंदी के अतिविशिष्ट रचनाकार हैं। उन्हें उम्र ज़रूर कम मिली, पर कविता, कहानी और आलोचना में उन्होंने युग बदल देने वाला काम किया। पहली बार वह व्यवस्थित रूप में ‘अज्ञेय’ द्वारा संपादित ‘तार सप्तक’ में अपनी कविताओं के साथ उपस्थित हुए। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण था कि उनके जीवनकाल में उनकी कविता की कोई किताब नहीं प्रकाशित हो पाई। उनके जीवित रहते उनकी सिर्फ़ एक किताब छपी, यह थी ‘एक साहित्यिक की डायरी।’ इसके बावज़ूद बाद में वे ऐसे विलक्षण रचनाकार साबित हुए जिनके लिखे की गूँज परवर्ती कविता, विचार, आलोचना या कहानी सबमें बढ़ती ही चली गई। सन् 1954 में उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम. ए. किया, जिसके फलस्वरूप राजनाँदगाँव के दिग्विजय कॉलेज में नियुक्त हुए। उनकी कुछ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृतियाँ यहीं लिखी गईं। उनकी कृतियों के नाम इस प्रकार है

कहानी कविताएँ
  • अँधेरे में
  • क्‍लॉड ईथरली
  • काठ का सपना
  • जंक्शन
  • पक्षी और दीमक
  • प्रश्‍न
  • ब्रह्मराक्षस का शिष्य
  • लेखन
  • विपात्र
  • सौन्‍दर्य के उपासक
  • अँधेरे में
  • एक अंतःकथा
  • एक भूतपूर्व विद्रोही का आत्म-कथन
  • एक स्वप्न कथा
  • चाँद का मुँह टेढ़ा है
  • जब प्रश्न चिह्न बौखला उठे
  • दिमागी गुहांधकार का औरांग उटांग
  • ब्रह्मराक्षस
  • भूल-ग़लती
  • मैं उनका ही होता
  • मैं तुम लोगों से दूर हूँ
  • मुझे क़दम-क़दम पर
  • मुझे पुकारती हुई पुकार
  • मुझे मालूम नहीं
  • मुझे याद आते हैं
  • मेरे लोग
  • शून्य
  • जब दुपहरी ज़िंदगी पर (अप्रकाशित कविता)

 

मुक्तिबोध को अपने जीवन काल में न तो बहुत पहचान मिली और न ही उनका कोई भी कविता संग्रह प्रकाशित हो सका। लेकिन उनकी असमय मृत्‍यु के बाद अचानक ही मुक्तिबोध हिंदी साहित्य के परिदृश्‍य पर छा गये। सबसे पहले उनकी कवितायें अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तार सप्‍तक’ (1943) में प्रकाशित हुई थीं। मुक्तिबोध ने कहानी, कविता, उपन्यास, आलोचना आदि विधाओं में लिखा और हर क्षेत्र में उनका हस्‍तक्षेप अलग से महसूस किया जा सकता है। उन्‍हें प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नयी कविता आदि साहित्यिक आंदोलनों के साथ जोड़कर देखा जाता है। ‘अँधेरे में’ और ‘ब्रह्मराक्षस’ मुक्तिबोध की सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण रचनायें मानी जाती हैं। ‘ब्रह्मराक्षस’ कविता में कवि ने ‘ब्रह्मराक्षस’ के मिथक के जरिये बुद्धिजीवी वर्ग के द्वंद्व और आम जनता से उसके अलगाव की व्‍यथा का मार्मिक चित्रण किया है। इस कविता के संदेश को यदि एक पंक्ति में व्‍यक्‍त करना हो तो कहा जा सकता है कि ‘अच्‍छे व बुरे के संघर्ष से भी उग्रतर / अच्‍छे व उससे अधिक अच्‍छे बीच का संगर’। लगभग इन्‍हीं आशयों की कहानी ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्‍य’ भी उन्‍होंने लिखी।
कहा जा सकता है कि ये कविताएँ निराला की संवेदनशीलता और कबीर के अक्खड़पन का अद्भुत सम्मिश्रण हैं। मुक्तिबोध की रचनाएँ सृजन का विस्फोट हैं। वे सजग चित्रकार की भाँति दुनिया का सुंदरतम उकेरना चाहते हैं। वे चाहते हैं उजली-उजली इबारत, मगर अंधेरे बार-बार उनकी राह रोक लेते हैं। अंधेरे के चक्रव्यूह में घिरे वे अभिमन्यू की तरह अकेले ही जूझते हैं, अनवरत लगातार। यह युद्ध कभी खत्म नहीं होता, चलता ही रहता है उनके भीतर। वे लड़ते हैं आजीवन क्योंकि उन्हें लगता है कि उन जैसों के हाथ में सच की विरासत है, जिसे उन्हें आने वाले समय को, पीढ़ी को ज्यों का त्यों सौंपना है।

‘वे आते होंगे लोग….
अरे जिनके हाथों में तुम्हें सौंपने ही होंगे
ये मौन उपेक्षित रत्न
मात्र तब तक
केवल तब तक
तुम छिपा चलो धुरिमान उन्हें तम गुहा तले
ओ संवेदन मय ज्ञान नाग
कुन्डली मार तुम दबा रखो
फूटती रश्मियाँ।‘
‘वे आते ही होंए लो
जिन्हें तुम दोगे देना ही होगा पूरा हिसाब
अपना सबका, मन का, जन का

अँधेरे में: ‘अँधेरे में’ मुक्तिबोध की अंतिम कविता है और शायद सबसे महत्‍वपूर्ण भी। इस कविता में सत्‍ता और बौद्धक वर्ग के बीच  गठजोड़, उनके बेनकाब होने, सत्‍ता द्वारा लोगों पर दमन, पुराने के ध्‍वंस पर नये के सृजन, इतिहास के बारे में नयी अंतर्दृष्टि आदि देखने को मिलती है। ‘अँधेरे में’ स्‍वतंत्रता के बाद के भारत के दो दशकों का अख्‍यान नहीं है, उसमें हमारा संपूर्ण अ‍तीत मुखरित होता सुना जा सकता है। शायद यही वजह है कि मुक्तिबोध को ‘सभ्‍यता समीक्षा’ शब्‍द बहुत प्रिय है। वे वर्तमान की घटनाओं को महज़ एक असंबद्ध घटना की तरह नहीं बल्कि उसके पीछे की पूरी कार्यकारण श्रृंखला के बतौर समझने की कोशिश करते हैं। जब वे इस प्रक्रिया का अनुसरण करते हैं, तो उनकी कवितायें लंबी होती चली जाती है। उन्‍होंने खुद भी लिखा है कि उनकी जो भी कवितायें छोटी हैं, वे छोटी नहीं बल्कि अधूरी है।

मुक्तिबोध ने कविताओं के अलावा कहानियां भी लिखीं। उनकी कहानियां भी कविताओं का ही विस्‍तार और कई बार उनका पूर्वाभ्‍यास लगती हैं। कहानियों में भी वही जटिलता और संश्लिष्‍ट बिंबों वाली भाषा मौजूद है, जो उनकी कविताओं की विशिष्‍टता है। मुक्तिबोध ने हिंदी आलोचना में भी महत्‍वपूर्ण योगदान किया। उन्‍होंने ‘कामायनी : एक पुनर्विचार’ पुस्‍तक के जरिये कामायनी पर चली आ रही तमाम बहसों को एक नये स्‍तर तक उठा दिया। उन्‍होंने कामायनी को एक विशाल फैंटेसी के रूप में पढ़ने की कोशिश की, जिसमें ढहते हुए सामंती मूल्‍यों की छाया स्‍पष्‍ट देखी जा सकती है। रामधारी सिंह दिनकर की पुस्‍तक ‘उर्वशी’ पर चली बहस में उनका हस्‍तक्षेप बहुत कारगर था, जिसमें उन्‍होंने ‘उर्वशी’ को व्‍यर्थ में महिमामंडित करने का तीखा प्रतिवाद किया। मुक्तिबोध ने भक्ति आंदोलन का भी नये सिरे से मूल्‍यांकन किया और स्‍थापित किया कि यह मूलत: निचली जातियों का शोषक जातियों के ख़िलाफ़ विद्रोह था। बाद में शोषक जातियों ने इस आंदोलन पर नियंत्रण हासिल कर लिया और भक्ति आंदोलन पूरी तरह बिखर गया। उन्‍होंने साहित्‍य की रचना प्रक्रिया के बारे में भी महत्‍वपूर्ण लेखन किया। रचना-प्रक्रिया के संदर्भ में ‘कला का तीसरा क्षण’ हिन्दी साहित्य की बड़ी उपलब्धि है।

गोत्रहीन कवि: मुक्तिबोध गोत्रहीन कवि हैं। हिन्दी में उनका कोई पूर्वज नहीं खोजा जा सकता। असल में उनके पूर्वज तोल्सतोय, दोस्तोवस्की, गोर्की इत्यादि रूसी उपन्यासकार थे। ऐसा कोई कवि पहले नहीं हुआ जिसकी प्रेरणा कविता के अलावा उपन्यासों से आई हो। मुक्तिबोध के बाद भी किसी ने उस तरह के शिल्प में उतनी कविता लिखने की हिम्मत नहीं की, क्योंकि उन जैसा लिखना वैसे भी संभव नहीं था। इस तरह अपने समय के अंधेरे को पहचानने की चेष्टा करना, अपने समय के अंधेरे को टटोलना और उस अंधेरे में अपनी हिस्सेदारी, अपनी शिरकत को, आत्म-निर्ममता को स्वीकार करना, मुक्तिबोध से सीखा जा सकता है। बीसवीं सदी के महान् भारतीय लेखकों में मुक्तिबोध का नाम हमेशा रहेगा।

निधन: मुक्तिबोध की रुचि अध्ययन-अध्यापन, पत्रकारिता, समसामयिक राजनीतिक एवं साहित्य के विषयों पर लेखन में थी। 1942के आसपास वे वामपंथी विचारधारा की ओर झुके और शुजालपुर में रहते हुए उनकी वामपंथी चेतना मजबूत हुई। आजीवन ग़रीबी से लड़ते हुए और रोगों का मुकाबला करते हुए 11 सितम्बर, 1964 को नई दिल्ली में मुक्तिबोध की मृत्यु हो गयी।

मुक्तिबोध स्मारक: 11 सितंबर, 1964 को अपनी मृत्य से पहले तक मुक्तिबोध अपने निवास स्थान पर रहे जिसे अब मुक्तिबोध स्मारक बना दिया गया है। मुक्तिबोध स्मारक में स्थित उनका एक तैलचित्र भी मौजूद है। यहाँ से रानीसागर का नज़ारा दिखता है। मुक्तिबोध स्मारक में स्थित चक्करदार सीढ़ियां भी हैं, जिनके बिंब उनकी कविताओं में कई बार आए हैं।[6]कुछ विद्वान् मुक्तिबोध को मार्क्‍सवादी और समाजवादी विचारों से प्रभावित बताते हैं, तो कुछ उन्‍हें अस्तित्‍ववाद से प्रभावित बताते हैं। डॉ. रामविलास शर्मा ने उन्‍हें अस्तित्‍ववाद से प्रभावित बताते हुए उनकी कविताओं को खारिज किया है, लेकिन मुक्तिबोध प्रगतिशील आंदोलन के छिन्‍न-भिन्‍न होने के बाद भी प्रगतिशील मूल्‍यों पर खड़े रहे। आधुनिकतावाद और व्‍यक्तिवाद के जरिये समाज की चिंता को साहित्‍य से परे धकेलने की कोशिशों का उन्‍होंने विरोध किया। मुक्तिबोध के बाद के कवियों पर उनका व्‍यापक असर है। अनेक विश्‍वविद्यालयों में मुक्तिबोध की कविताओं व आलोचना पर शोध कार्य हुए हैं और हो रहे हैं। निर्देशक मणि कौल ने उनकी कहानी ‘सहत से उठता आदमी’ पर एक फ़िल्‍म का निर्माण किया। 2004 में मुक्तिबोध, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी और बलदेव मिश्र की स्‍मृति में राजनांदगांव में एक स्‍मारक का निर्माण किया गया।[4]

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