वर्तमान व्यवस्था में अर्थ को जितना महत्व दिया जा रहा है, उतना मानवीय मूल्यों को नहीं, इसलिए भगवान महावीर की शिक्षा और उनकी प्रासंगिकता को रेखांकित करना जरूरी हो गया है। इसके लिए अपनी नैतिकता, चरित्रगत अच्छाइयों का परित्याग न करते हुए हमें सच्चे अर्थो में मानव होना होगा। मानवीय आचरण करने में निरंतर जुड़ना होगा, जुटना होगा, क्योंकि हमारे जितने भी क्रिया-कलाप अथवा आजीविका के साधन हैं, उनका उद्देश्य सिर्फ पेट भरने के लिए भोजन प्राप्त कर लेना मात्र नहीं है। बाहरी आडंबरों और समाज में झूठी शान दिखाने के लिए हो रहे दिशाहीन कार्यो पर रोक लगाना भी होगा।
आप पूछेंगे कि ऐसा कैसे संभव है? तो मैं एक जैन संत होने के नाते यह जोर देकर कहना चाहूंगा कि भगवान महावीर की शिक्षा आर्थिक चिंतन की दृष्टि से अपरिग्रह से जुड़ी हुई है। वैचारिक रूप से समन्वयी बनने के लिए हमें भगवान महावीर के अनेकांतवाद और स्यादवाद को गहराई से समझना होगा, अपना आचरण बनाना होगा। जहां तक सत्य की बात है, वह अहिंसा का आधार है। जब तक हम संपूर्ण सत्य को नहीं जानेंगे, तब तक निश्चित रूप से हम अहिंसा का पालन नहीं कर पाएंगे। अहिंसा पालन के लिए अनिवार्य शर्त यही है कि पहले हम वस्तुगत तथ्य को जानें, तथ्य को स्वीकार करें और सत्य के दूसरे पहलू पर भी, जो हम देख नहीं पा रहे हैं, उदारता से विचार करें। जैसे-जैसे हम अनुदारता से उदारता की ओर पग बढ़ाएंगे, हम भगवान महावीर के चिंतन को समझने में, उसे स्वीकार करने में, अपना आचरण बनाने में समर्थ होते जाएंगे।
भगवान महावीर ने जिस युगीन सत्य को पंच महाव्रत के रूप में प्रस्तुत किया और स्वयं भी उसका आचरण करते हुए उच्चतर मानसिकता का उदाहरण प्रस्तुत किया, आज उसकी सर्वाधिक प्रासंगिकता है। यहां मैं भगवान महावीर की आर्थिक सोच को दिखाने के लिए एक प्रसंग प्रस्तुत कर रहा हूं, जिससे हमें भगवान महावीर को समझने में और स्वीकार करने में सुविधा होगी। प्रसंग यह है कि प्रभु के अनन्य भक्त शकडाल पुत्र की पत्नी पूरे तामझाम, दास-दासी और अनेक तरह के वैभव का प्रदर्शन करते हुए भगवान महावीर के दर्शन करने पहुंचीं। भगवान ने कहा, ‘यह क्या कर रही हो? तुम मेरे दर्शन करना चाहती हो या अपना वैभव, सम्पन्नता, आर्थिक संग्रह दिखाना चाहती हो। इतने सारे दास-दासी अपने साथ लेकर आई हो, क्या कभी इनके अभावों को, इनके दुखों को तुमने जानने का प्रयत्न किया है।
यदि तुम मेरी भक्त हो तो मैं यह कहूंगा कि पहले इनके अभावों को दूर करो और इन्हें समर्थ बनाने में सहयोगी बनो। यदि यह समर्थ होंगे तो अधिक संतोष से कार्यो को संपन्न कर पाएंगे।’ भक्त श्रविका ने तत्काल प्रभु आज्ञा का पालन करते हुए वैसा ही किया व सभी दासियों को पर्याप्त धन देते हुए स्वतंत्र कर दिया। इस तरह भगवान महावीर का चिंतन समतावादी समाज की रचना था। यदि हम इसे समझ पाएं, स्वीकार करें तो हमारा महावीर जयंती मनाना सार्थक होगा।