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ख़्वाजा अहमद अब्बास

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ख़्वाजा अहमद अब्बास  प्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक, पटकथा लेखक और उर्दू लेखक थे। वे उन कुछ गिने चुने लेखकों में से एक थे, जिन्होंने मुहब्बत, शांति और मानवता का पैगाम दिया। एक पत्रकार के रूप में उन्होंने ‘अलीगढ़ ओपिनियन’ शुरू किया। ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ में ये लंबे समय तक बतौर संवाददाता और फ़िल्म समीक्षक रहे। इनका स्तंभ ‘द लास्ट पेज’ सबसे लंबा चलने वाले स्तंभों में गिना जाता है। यह 1941 से 1986 तक चला। अब्बास इप्टा के संस्थापक सदस्य थे।

जीवन परिचय
ख़्वाजा अहमद अब्बास साहब का जन्म 7 जून 1914 को हरियाणा राज्य के पानीपत में हुआ। वे ‘ख़्वाजा ग़ुलाम अब्बास’ के पोते थे जो 1857 के विद्रोह के शहीदों में से एक थे। उनके पिता ‘ग़ुलाम-उस-सिबतैन’ थे जो उन्हें पवित्र क़ुरान पढ़ने के लिए प्रेरित करते, जबकि ‘मसरूर ख़ातून’ उनकी माँ थीं। उनके ख़ानदान का बखान अयूब अंसारी तक जाता है जो पैगंबर मुहम्मद के साथी थे। अपनी प्रारंभिक शिक्षा के लिए, अब्बास साहब ‘हाली मुस्लिम हाई स्कूल’ गये जिसे उनके परदादा यानी प्रसिद्ध उर्दू शायर ख़्वाजा अल्ताफ़ हुसैन हाली और मिर्ज़ा ग़ालिब के शागिर्द; द्वारा स्थापित किया गया था। पानीपत में उन्होंने 7वीं कक्षा तक अध्ययन किया, 15 वर्ष की आयु होने पर मैट्रिक समाप्त की और बाद में, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में बी.ए. (1933) और एल.एल.बी (1935) पूरी की।[1] वह अपने जीवन में अधिकांश कार्यों में सफल रहे थे। उनके सुकोमल प्रेमप्रसंग के परिणामस्वरूप मुज़्तबी बेगम के साथ विवाह का अति सुंदर वर्णन उनकी आत्मकथा ‘आई एम नॉट आइलैंड’ में किया गया है। यह एक सफल प्रेम विवाह था। कहा जाता है कि उनकी समस्त उल्लेखनीय उपलब्धियों के पीछे उनकी पत्नी का बड़ा था। सन 1958 में पत्नी की मृत्यु के उपरांत अकेले रह गये

कार्यक्षेत्र
अब्बास साहब ने जल्द ही एक पत्रकार के रूप में अपना कैरियर शुरू कर दिया। उन्होंने ‘अलीगढ़ ओपिनियन’ नाम की देश की पहली छात्र-प्रकाशित पत्रिका शुरू की। इससे पहले उन्होंने, तुरंत अपने बीए के बाद, नेशनल कॉल नाम के अख़बार में भी काम किया था। सन् 1935 में, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से बाहर आने के बाद, वे बॉम्बे क्रॉनिकल में शामिल हो गए जहां उन्हें जल्द ही फ़िल्म विभाग के संपादक के रूप में पदोन्नत कर दिया गया। वहां वे 1947 तक काम करते रहे। 1936 में, वे बॉम्बे टॉकीज़ के पार्ट-टाईम पब्लिसिस्ट के रूप में फ़िल्मों में आ गएं जो हिमांशु राय और देविका रानी की प्रॉडक्शन कम्पनी थी। उन्होंने 1941 में अपनी पहली पटकथा ‘नया संसार’ भी इसी कंपनी को बेची।

फ़िल्मी सफ़र
1945 में ख़्वाजा साहब का एक निर्देशक के रूप में कैरियर शुरु हुआ जब उन्होंने इप्टा (इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन) के लिए ‘धरती के लाल’ नाम की एक फ़िल्म बनाई। यह 1943 के बंगाल में पड़े अकाल पर आधारित थी। 1951 में, उन्होंने ‘नया संसार’ नाम की अपनी ख़ुद की कंपनी खोल ली जो ‘अनहोनी’ (1952) जैसी सामाजिक प्रासंगिकता की फ़िल्मों का निर्माण करने लगी। अब्बास साहब की फ़िल्म ‘राही’ (1953), मुल्क राज आनंद की एक कहानी पर आधारित थी जिसमें चाय के बागानों में काम करने वाले श्रमिकों की दुर्दशा को दर्शाया गया था। चेतन आनंद के लिए ‘नीचा नगर’ (1946) लिखने से पहले, अब्बास साहब वी. शांताराम के लिए ‘डॉ. कोटनीस की अमर कहानी’ (1946) भी लिख चुके थे। यह फ़िल्म ख़्वाजा साहब की एक कहानी ‘एंड वन डिड नॉट कम बैक’ पर आधारित थी जिसे उन्होंने, डॉ. द्वारकानाथ कोटनीस के जीवन पर लिखा था।

राजकपूर के क़रीबी
ख़्वाजा साहब ने अतिसफल फ़िल्म निर्माता-निर्देशक राजकपूर के साथ एक लम्बा साथ निभाया और ‘आवारा’ (1951), ‘श्री 420’ (1955), ‘जागते रहो’ (1956), ‘मेरा नाम जोकर’ (1972) और ‘बॉबी’ (1973) जैसी उनकी कई सफल फ़िल्में लिखी। आर. के. बैनर की फ़िल्म ‘हिना’ (1991) जिसे रणधीर कपूर द्वारा निर्देशित किया गया था; भी अब्बास साहब की एक कहानी पर आधारित थी। अब्बास साहब ने राज कपूर की फ़िल्म ‘राम तेरी गंगा मैली’, की शुरुआत और अन्त भी लिखा था। यह एक ऐसी बात है जिसे बहुत कम लोग जानते हैं। राजकपूर ख़्वाजा साहब के क़रीबी थे और उन्हें ‘मेरी आवाज़’ बुलाया करते थे। उनके अपने जीवन पर बनी फ़िल्म ‘मेरा नाम जोकर’ के बॉक्स ऑफ़िस पर फ्लॉप हो जाने के बाद, राजकपूर वित्तीय संकट में फंस गये थे। अब्बास साहब ने, सिर्फ़ इस असाधारण निर्देशक की मदद करने के लिए, अपने सिद्धांतों से समझौता किया। उन्होंने एक मसालेदार किशोरावस्था के रोमांस की फ़िल्म ‘बॉबी’, लिखी। यह एक सुपरहिट फ़िल्म साबित हुई और राज कपूर फिर से सफ़लता की लहर पर सवार हो गये। लेकिन ‘बॉबी’ में भी, अब्बास साहब अपने समाजवादी दृष्टिकोण और अपने प्रगतिशील विचारों को स्थापित करने में सफल रहे। उन्होंने इसे फ़िल्म की विषय-वस्तु में रोपित कर दिया। अपनी चमकदार सतह से नीचे यह अमीर और ग़रीब के संघर्ष की कहानी कहती है। यह सामाजिक वर्गभेद और अंतरजातीय विवाह की बात करती है। हालांकि अब्बास साहब भी मानते थे कि उनके और राजकपूर के काम करने के अंदाज़ में कुछ फ़र्क ज़रूर था। वे कहा करते, “अगर मैं राज कपूर के लिए लिखी हुई अपनी फ़िल्मों को ख़ुद निर्देशित करता, तो वे सभी असफल रहती।” राज कपूर के साथ उनकी जोड़ी व्यावसायिक रूप से सफल साबित होती थीं। राज कपूर का दृष्टिकोण चीज़ों को लार्जर-दैन-लाइफ़ दिखाने का रहा है। अब्बास साहब की यथार्थवाद में गहरी जड़ें थीं, लेकिन फिर भी राज कपूर के लिए उन्होंने जितनी भी फ़िल्में लिखी, उन सभी में एक मजबूत सामाजिक मुद्दा था, चाहे यह ‘आवारा’ हो या ‘श्री 420’। उनके लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ फ़िल्म ही महत्वपूर्ण थीं ना कि उससे जुड़े आर्थिक लाभ।

अद्भुत निर्माता एवं निर्देशक
सिनेमा की ताकत का एहसास कराने की क्षमता रचनात्मक और ठोस इरादे वाले निर्माता निर्देशकों में ही होती है। ख़्वाजा अहमद अब्बास के लिए सिनेमा समाज के प्रति एक कटिबद्धता थी। अब्बास ने इस प्रतिबद्धता को पूरा किया। वे सिनेमा को बहुविधा कला मानते थे जो मनोवैज्ञानिक और सामाजिक वास्तविकता के सहारे लोगों में वास्तविक बदलाव की आकांक्षा को जन्म दे सकती है। राजकपूर के फ़िल्मी कैरियर में अब्बास का प्रमुख योगदान है। अब्बास ने सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक स्थितियों के संबंध में अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए लोकप्रिय माध्यम सिनेमा का बखूबी उपयोग किया। अब्बास सिनेमा को एक उद्देश्यपरक माध्यम मानते थे। समकालीन समस्याओं जैसे ग़रीबी, अकाल, अस्पृश्यता, सांप्रदायिक विभाजन पर उन्होंने करारा प्रहार किया। ‘शहर और सपना’ (1963) फुटपाथ पर जीवन गुजारने वाले लोगों की समस्याओं का वर्णन है और ‘दो बूँद पानी’ (1971) राजस्थान के मरुस्थल में पानी की विकराल समस्या और उसके मूल्य का वर्णन करता है। ‘सात हिंदुस्तानी’ में सांप्रदायिकता और विभाजन के दंश को व्यक्त किया गया है। गौरतलब है कि सात हिंदुस्तानी सिने स्टार अमिताभ बच्चन की पहली फ़िल्म थी। ‘द नक्सलाइट’ नक्सल समस्या को उकेरती है। पैंतीस वर्षों के फ़िल्मी करियर में उन्होंने 13 फ़िल्मों का निर्माण किया। उन्होंने लगभग चालीस फ़िल्मों की कहानी और पटकथाएँ लिखीं जिनमें अधिकतर राजकपूर के लिए हैं। वे सिनेमा को मनोवैज्ञानिक और सामाजिक वास्तविकता का वर्णन करते हुए लोगों में वास्तविक स्थिति को बदलने के लिए आकांक्षा उत्पन्न करने का बड़ा साधन मानते थे। अब्बास कई मायनों में अद्वितीय थे। ‘शहर और सपना’, ‘सात हिंदुस्तानी’, ‘जागते रहो’ या ‘आवारा’ उनकी प्रतिबद्धता के अनुपम उदाहरण थे। एक बार अब्बास ने कहा भी था कि उन्होंने सिनेमा के साथ हर रूप में प्रयोग किया। अब्बास ने मल्टीस्टार, रंगीन, गीतयुक्त, वाइड स्क्रीन फ़िल्म, बिना गीत की फ़िल्म और सह निर्माता के रूप में एक विदेशी फ़िल्म का निर्माण किया। जब कभी उन्हें अवसर मिलता वे नियो रिएलिज्म (नव यथार्थवाद) को मजबूत करने से चूकते नहीं थे। वे लोगों में आकांक्षा उत्पन्न करने का फार्मूला जानते थे। उनके बिना फ़िल्मों में नेहरू युग और रूसी लाल टोपी की कल्पना नहीं की जा सकती। ‘परदेसी’ रूस के सहयोग से बनी फ़िल्म थी

फ़िल्म ‘सात हिंदुस्तानी’
ख़्वाजा अहमद अब्बास जो ना सिर्फ़ फ़िल्मों, बल्कि पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में भी भारत के लिए एक अनमोल रत्न थे। उनका बहुआयामी व्यक्तित्व उन्हें एक फ़िल्म निर्देशक, उपन्यासकार, पटकथा लेखक और उर्दू, हिंदी एवं अंग्रेज़ी का पत्रकार होने की इजाज़त देता था। उनका कॉलम ‘लास्ट पेज’ (उर्दू संस्करण – ‘आज़ाद कलम’) बॉम्बे क्रॉनिकल में 1935 में शुरू हुआ और 1947 के बाद से ब्लिट्ज़ में छपने लगा। जहां वह उनकी मृत्यु तक जारी रहा। अब्बास साहब कोई साधारण आदमी नहीं थे। वे एक ज्वालामुखी थे। उनके क़रीबी और प्रियजनों के कानों में आज भी उनकी दमदार आवाज़ गूंजती है और उनके दिलों में उनकी यादों की टीस चला देती है। अली पीटर जॉन कहते हैं “जब मैं उनसे पहली बार मिला तो वे मुझे एक शेर की तरह लगे!”। इसके अलावा दुनिया उनकी जिस बात से थर्राती थी वह था उनका गुस्सा। टीनू आनंद कहते हैं “जब वे चिल्लाते थे तो दीवारे कांपने लगती थीं।” पत्रकारिता में भी उनका करियर 25 वर्षों से अधिक का रहा। उनके लेखों का संकलन दो किताबों ‘आई राइट एस आई फील’ और ‘बेड ब्यूटी एंड रिवोल्यूशन’ के रूप में किया गया है।

नेहरूजी से संबंध
ख़्वाजा अहमद अब्बास तथा भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू छात्र जीवन के समय से मित्र थे। सन 1947 में देश विभाजन के समय उनकी माँ सहित सभी निकट संबंधी पाकिस्तान चले गये (पिता की मृत्यु 1942 में हो चुकी थी), लेकिन वह पाकिस्तान नहीं गये तथा उन्हें दंगाग्रस्त पानीपत से बाहर सुरक्षित निकालने के लिए जवाहरलाल नेहरू ने व्यक्तिगत रूप से हस्तक्षेप किया था।[2] इनकी फ़िल्म ‘मुन्ना’ (1954) को देखने के लिए नेहरूजी इतने उत्सुक थे कि उन्होंने इसका एक प्रिंट दिल्ली भेजने के लिए विशेष आदेश दे डाला। इसके बाद पंडित जी इस फ़िल्म से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने इसके बाल-कलाकार मास्टर रोमी से मिलने की मंशा भी ज़ाहिर की।

पुस्तकें: अब्बास साहब की आत्मकथा- ‘आई एम नॉट ऍन आयलैंड’
अब्बास साहब ने पांच दशकों की अवधि में 73 से अधिक अंग्रेज़ी, हिंदी और उर्दू में पुस्तकें भी लिखीं। उन्हें आज भी उर्दू साहित्य की एक विलक्षण प्रतिभा माना जाता है। उनकी सबसे प्रसिद्ध किताब ‘इंकलाब’ रही है, जो सांप्रदायिक हिंसा के मुद्दे पर चोट करती है। इंकलाब सहित उनकी कई पुस्तकों का अनुवाद कई भारतीय और विदेशी भाषाओं जैसे रूसी, जर्मन, इतालवी, फ्रेंच और अरबी में किया गया है। उनकी आत्मकथा ‘आई एम नॉट ऍन आयलैंड: ऍन एक्सपैरीमेंट इन ऑटो बायोग्राफ़ी’ पहली बार 1977 में प्रकाशित हुई और फिर 2010 में इसे पुनः प्रकाशित किया गया।

सम्मान और पुरस्कार
‘शहर और सपना’ के अलावा, अब्बास साहब की दो फ़िल्मों, ‘सात हिंदुस्तानी’ (1969) और ‘दो बूंद पानी’ (1972), ने राष्ट्रीय एकता पर बनी सर्वश्रेष्ठ फ़ीचर फ़िल्म के लिए नरगिस दत्त पुरस्कार जीते। ‘नीचा नगर’ (1946) अंतरराष्ट्रीय ख्याति जुटाने में कामयाब रही और इसने कान्स फ़िल्म समारोह में पाल्मे डी’ओर पुरस्कार जीता। दूसरी ओर ‘परदेसी’ (1957) भी इसी पुरस्कार के लिए नामित होने में सफल रही। इन सब पदकों और पुरस्कारों के अलावा, उन्हें 1969 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया। उनको मिलें कुछ अन्य पुरस्कार थें: साहित्यिक उपलब्धियों के लिए हरियाणा स्टेट रोब ऑफ़ ऑनर (1969), उर्दू साहित्य में उनके योगदान के लिए ग़ालिब पुरस्कार (1983), उर्दू अकादमी दिल्ली का विशेष पुरस्कार (1984) और महाराष्ट्र राज्य का उर्दू अकादमी पुरस्कार (1985)।

निधन
अंतिम दिनों में, दो-दो दिल के आघातों (हार्ट-अटैक) के बावजूद, अब्बास साहब अपनी फ़िल्म ‘एक आदमी’ (1988) की डबिंग को जारी रखे हुए थे। यह फ़िल्म उनकी मृत्यु के बाद प्रदर्शित हुई। वे कहा करते थे, “फ़िल्म किसी भी कीमत पर रुकनी नहीं चाहिए।” यह एक स्मृति है जो आज भी अली पीटर जॉन के दिल को कुरेदती है। ख़्वाजा अहमद अब्बास साहब का मुंबई में 72 वर्ष की आयु में 1 जून, 1987 को निधन हुआ। वे अपने अंतिम दिनों तक ब्लिट्ज के लिए लिख रहे थे। अब्बास साहब को भारत में समानांतर (पैरेलल) या नव-यथार्थवादी (नियो-रियलिस्टिक) सिनेमा के रहनुमाओं में गिना जाता है। एक पटकथा लेखक और निर्देशक के रूप में, भारतीय सिनेमा में उनका योगदान वृहद् है और प्रेरणादायक भी। एक पत्रकार के रूप में उनकी राष्ट्रवादी विचारक की एक भूमिका और दूरदर्शिता का कोई सानी नहीं है। साहित्य में, उर्दू के एक प्रमुख लेखक के रूप में उनकी छाप अमिट रहेगी। अब्बास साहब अपने आप में एक संस्थान थे और जो जगह उन्होंने हमारे दिलों में बनायीं है वह शब्दों के परे है। वे अपने पीछे जो रचनाएँ छोड़ कर गये हैं, चाहे फ़िल्में हो या पुस्तकें या उनका कॉलम; वह सब कुछ हमारी राष्ट्रीय धरोहर है।

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