मुमताज़ हिन्दी फ़िल्मों की एक प्रसिद्ध अभिनेत्री हैं। चुलबुली, हंसमुख और नटखट मुमताज़ जिस ज़माने में फ़िल्मी पर्दे पर अपने अभिनय का जादू बिखरेती थीं, उस समय उनकी अदाकारी के सभी कायल थे। बॉलीवुड में जब मुमताज़ का आगाज हुआ, उस समय अभिनेत्री का मतलब शर्मिली, सौम्य और शांत किरदार वाली महिला होती थी; लेकिन मुमताज़ ने अपनी नटखट अदाओं और चुलबुले अंदाज़ से अभिनेत्री होने के सारे मायने ही बदल दिए। ‘आपकी क़सम’, ‘रोटी’, ‘अपना देश’, ‘खिलौना’ और ‘सच्चा झूठा’ मुमताज़ की यादगार फ़िल्में हैं। मुमताज़ ने 12 साल की उम्र में बॉलीवुड में कदम रख दिया था
जीवन परिचय
मुमताज़ का जन्म 31 जुलाई, 1947 को मध्यमवर्गीय मुस्लिम परिवार में हुआ। अपनी छोटी बहन मलिका के साथ वे रोज़ाना स्टुडियो-दर-स्टुडियो भटकती और जैसा चाहे वैसा छोटा-मोटा रोल माँगती थी। उनकी माँ नाज़ और चाची नीलोफ़र पहले से फ़िल्मों में मौजूद थीं। लेकिन दोनों जूनियर आर्टिस्ट होने के नाते अपनी बेटियों की सिफारिश करने की पोजीशन में नहीं थीं। लेकिन मुमताज़ हर हाल में फ़िल्म अभिनेत्री बनना चाहती थीं। जूनियर आर्टिस्ट के बतौर एक बार कैमरे से सामना हो जाए, तो बाद में वे सब देख लेगी, जैसे उसके तेवर थे। जब वे निर्माता-निर्देशक से काम माँगती, तो बदले में जवाब मिलता- ‘आईने में अपनी सूरत देखी है। पकोड़े जैसी नाक है।’ ऐसी कठोर बातें सुनकर मुमताज़ मन मसोसकर रह जातीं, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।
मुमताज़ के नायक
मुमताज़ ने जूनियर आर्टिस्ट से स्टार बनने का सपना अपने मन में संजोकर रखा था, जिसे उन्होंने सच कर दिखाया। सत्तर के दशक में उन्होंने स्टार की हैसियत प्राप्त कर ली। उस दौर के नामी सितारे जो कभी मुमताज़ के साथ काम नहीं करना चाहते थे वे भी उनके साथ काम करने के लिए लालायित रहने लगे थे। ऐसे सितारों में शम्मी कपूर, देवानंद, संजीव कुमार, जितेन्द्र और शशि कपूर के नाम उल्लेखनीय हैं
साठ के दशक में हिन्दी सिनेमा में दो ट्रेंड एक साथ चले थे। पहला ट्रेंड था चम्बल की घाटी में जितने भी दस्यु सम्राट और दस्यु सुंदरियाँ हुईं, उनके जीवन को आधार बनाकर फ़िल्में बनाना। डाकुओं को लेकर धड़ाधड़ पटकथाएँ लिखी गईं। फ़िल्मों का नायक जब डकैत हो, तो फ़िल्मों में तीन सफल फार्मूले एक साथ शामिल हो जाते हैं। जैसे- सुरा-सुंदरी-वायलेंस विद एक्शन। दर्शक को और क्या चाहिए। सेंसर बोर्ड भी पटकथा के ताने-बाने को देखकर आँख मींच लिया करता था। दूसरा ट्रेंड चला कुश्ती और अखाड़े का। दारासिंह जैसे पहलवानों को लेकर अनेक फ़िल्म निर्माताओं ने ढेरों कुश्ती पर आधारित फ़िल्में बनाईं। इन फ़िल्मों में हिरोइन तो बस शो-पीस की तरह रखी जाती थीं। नामी हिरोइन भला ऐसी फ़िल्म में क्यों काम करने लगीं। बिल्ली के भाग्य से कई छींके एक साथ टूटे और मुमताज़ के आँचल में आ गिरे। मुमताज़ ने दारासिंह जैसे पहलवान के साथ 16 फ़िल्में की और ज्यादातर बॉक्स ऑफिस पर सफल भी रही। भारी भरकम, ऊँचे पूरे कद्दावार कद काठी के दारासिंह अपने सामने बौने आकार वाली मुमताज़ से जब प्यार का कोई डॉयलाग बोलते थे, तो दर्शक हँस-हँसकर लोटपोट हो जाया करते थे। वह रोमांटिक सीन ठेठ कॉमेडी में बदल जाता था। इस बेमेले जोड़ी ने गीत-संगीत से सजी सँवरी फ़िल्मों से दस साल तक दर्शकों का मनोरजंन किया
मुमताज़ और राजेश खन्ना: राजेश खन्ना के साथ मुमताज, फ़िल्म ‘आप की कसम’
दारासिंह के अखाड़े से बाहर निकलकर मुमताज़ की जोड़ी राजेश खन्ना के साथ जमीं। उन दिनों राजेश भी सफलता की राह पर आगे बढ़ रहे थे। फ़िल्म ‘दो रास्ते’ में बिंदिया ऐसी चमकी और मुमताज़ के हाथों की चूड़ियाँ ऐसी खनकी कि बॉक्स ऑफिस पर सफलता के नये रिकार्ड बन गए। 1969 से 74 तक इन दो कलाकारों ने ‘सच्चा झूठा’, ‘अपना देश’, ‘दुश्मन’, ‘बंधन’ और ‘रोटी’ जैसी सफल फ़िल्में दी। सुपरस्टार राजेश खन्ना के लगातार मुमताज़ के साथ काम करने के बाद मुमताज़ की माँग बहुत बढ़ गई। शशि कपूर ने एक बार मुमताज़ का नाम सुनकर फ़िल्म छोड़ दी थी, वे ही अपनी फ़िल्म ‘चोर मचाए शोर’ (1974) में मुमताज़ को नायिका बनाने पर ज़ोर देने लगे। ऐसा ही कुछ दिलीप कुमार ने किया। उन्होंने ‘राम और श्याम’ (1967) फ़िल्म में दो नायिकाओं में से एक का चयन मुमताज़ को लेकर किया। वी. शांताराम की फ़िल्म ‘बूँद जो बन गई मोती’ में अपनी बेटी की जगह मुमताज़ को प्राथमिकता दी
मुमताज़ की लोकप्रियता
मुमताज़ की सफलता का ग्राफ़ दिनों दिन बढ़ने लगा। फ़िल्मकार विजय आनंद ने फ़िल्म ‘तेरे मेरे सपने’, राज खोसला ने ‘प्रेम कहानी’ और जे. ओमप्रकाश ने ‘आपकी क़सम’ में मुमताज़ को हिरोइन बनाया। सफलता के पीछे सब भागते हैं। यही हाल मुमताज़ का हुआ। उसका पल्लू पकडने के लिए संजय खान (धड़कन), राजेंद्र कुमार (तांगे वाला), विश्वजीत (परदेसी, शरारत) और सुनील दत्त ने ‘भाई-भाई’ नामक फ़िल्में बनाईं। दस साल तक मुमताज़ ने बॉलीवुड के सितारों पर शासन किया। वे शर्मिला टैगोर के समकक्ष मानी गईं और उतना पैसा भी उन्हें दिया गया। देव आनंद की फ़िल्म ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ मुमताज़ के कैरियर की चमकदार फ़िल्म है
विवाह
सत्तर के दशक में अचानक कई नई हिरोइनों की बाढ़ आ गई। मुमताज़ का भी स्टार बनने का सपना सच हो गया था। गुजरात मूल के लंदनवासी मयूर वाधवानी नामक व्यापारी से शादी कर ब्रिटेन जा बसी। शादी के पहले उनका नाम संजय खान, फ़िरोज़ ख़ान, देव आनंद जैसे कुछ सितारों के साथ जोड़ा गया था, लेकिन अंत में मयूर पर उनका दिल आ गया
कैंसर की बीमारी
53 वर्ष की उम्र में मुमताज़ को कैंसर हो गया। इस बीमारी से उन्होंने निजात पा ली, मगर थायराइड की जकड़न अभी मौजूद है। उनकी दो बेटियाँ हैं। अपनी बीमारी के दौरान उनके नजदीकी लोग उनसे दूर हो गए थे। ज़िंदगी का यह कड़वा घूँट उन्होंने धीरज रखकर पिया और ज़िंदगी का एक हिस्सा मानकर स्वीकार किया। एक साक्षात्कार में उनकी व्यथा कथा इस एक वाक्य से प्रकट होती है- ‘कहने को उसके पास दस मकान है, मगर उनमें से घर एक भी नहीं है।'[1]
दूसरी पारी में असफल
सन् 1990 में फ़िल्मों में किस्मत आजमाने मुमताज़ अपनी दूसरी पारी में आई थीं। शत्रुघ्न सिन्हा के साथ फ़िल्म ‘आँधियाँ’ की, मगर नाकामयाबी मिली। मुमताज़ समझ गईं कि नई नायिकाओं से मुकाबला करना उनके लिए आसान नहीं है और उन्होंने अभिनय को अलविदा कहने में ही भलाई समझी। दूसरी पारी में असफलता के बावजूद मुमताज़ की सफलता चौंकाने वाली है। साधारण सूरत और बगैर गॉड फादर के उन्होंने सफलता का नमक अपने बल पर चखा और दूसरों को भी चखाया।