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सत्यजित राय

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सत्यजित राय / सत्यजित रे / शॉत्तोजित रॉय, जन्म:2 मई, 1921, बीसवीं शताब्दी के विश्व की महानतम फ़िल्मी हस्तियों में से एक थे, जिन्होंने यथार्थवादी धारा की फ़िल्मों को नई दिशा देने के अलावा साहित्य, चित्रकला जैसी अन्य विधाओं में भी अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। सत्यजित राय प्रमुख रूप से फ़िल्मों में निर्देशक के रूप में जाने जाते हैं, लेकिन लेखक और साहित्यकार के रूप में भी उन्होंने उल्लेखनीय में ख्याति अर्जित की है। सत्यजित राय फ़िल्म निर्माण से संबंधित कई काम ख़ुद ही करते थे। इनमें निर्देशन, छायांकन, पटकथा, पार्श्व संगीत, कला निर्देशन, संपादन आदि शामिल हैं। फ़िल्मकार के अलावा वह कहानीकार, चित्रकार और फ़िल्म आलोचक भी थे। सत्यजित राय कथानक लिखने को निर्देशन का अभिन्न अंग मानते थे। सत्यजित राय ने अपने जीवन में 37 फ़िल्मों का निर्देशन किया, जिनमें फ़ीचर फ़िल्में, वृत्त चित्र और लघु फ़िल्में शामिल हैं। इनकी पहली फ़िल्म ‘पाथेर पांचाली’ को कान फ़िल्मोत्सव में मिले “सर्वोत्तम मानवीय प्रलेख” पुरस्कार को मिलाकर कुल ग्यारह अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। विश्व में भारतीय फ़िल्मों को नई पहचान दिलाने वाले सत्यजित राय भारत रत्न (1992) के अतिरिक्त पद्म श्री (1958), पद्म भूषण (1965), पद्म विभूषण (1976) और रेमन मैग्सेसे पुरस्कार (1967) से सम्मानित हैं। विश्व सिनेमा में अभूतपूर्व योगदान के लिए सत्यजित राय को मानद ‘ऑस्कर अवॉर्ड’ से अलंकृत किया। इसके अलावा उन्होंने और उनके काम ने कुल 32 राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार प्राप्त किये।

विश्व सिनेमा के पितामह माने जाने वाले महान् निर्देशक अकीरा कुरोसावा ने राय के लिए कहा था “सत्यजित राय के बिना सिनेमा जगत वैसा ही है जैसे सूरज-चाँद के बिना आसमान”

जीवन परिचय
अपने माता-पिता की इकलौती संतान सत्यजित राय के पिता ‘सुकुमार राय’ की मृत्यु सन् 1923 में हुई जब सत्यजित राय मुश्किल से दो वर्ष के थे। उनका पालन-पोषण उनकी माँ ‘सुप्रभा राय’ ने अपने भाई के घर में ममेरे भाई-बहनों, मामा-मामियों वाले एक भरे-पूरे और फैले हुए कुनबे के बीच किया। उनकी माँ जो लंबे सधे व्यक्तित्व की स्वामिनी थीं, वो रवीन्द्र संगीत की मंजी हुई गायिका थीं और उनकी आवाज़ काफ़ी दमदार थी। सत्यजित राय के दादाजी ‘उपेन्द्रकिशोर राय’ एक लेखक एवं चित्रकार थे और इनके पिताजी भी बांग्ला में बच्चों के लिए रोचक कविताएँ लिखते थे और वह एक चित्रकार भी थे। यह परिवार अपरिहार्य रूप से टैगोर घराने के नजदीक था। प्रेसीडेंसी कॉलेज कलकत्ता से स्नातक होने के बाद राय पेंटिंग के अध्ययन के लिए जिसमें वे प्रारंभिक अवस्था में ही अपनी योग्यता प्रदर्शित कर चुके थे, रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन चले गए।

शांतिनिकेतन में शिक्षा
उस समय पर शांतिनिकेतन साहित्य और कला की नयी भारतीय चेतना के केंद्र के रूप में न केवल देश में बल्कि विश्व भर में चर्चित था। रवीन्द्रनाथ टैगोर के प्रति आकर्षण समूचे भारत से छात्र और अध्यापकों को यहाँ खींच लाता था। अन्य देशों से भी छात्र यहाँ आते थे और इस तरह एक ऐसी नयी भारतीय संस्कृति के विकास की परिस्थितियां निर्मित हो रही थीं जो अपनी स्वयं की परंपराओं पर आधारित थीं। शांतिनिकेतन में सत्यजित राय ने नंदलाल बोस और विनोद बिहारी मुखोपाध्याय जैसे सिद्धहस्त कलाकारों से शिक्षा प्राप्त की, जिन पर बाद में उन्होंने ‘इनर आई’ फ़िल्म भी बनाई।

प्रेस और प्रकाशन संस्थान
सन 1942 में मध्य भारत के कला स्मारकों के भ्रमण के बाद राय ने शांतिनिकेतन छोड़ दिया। शीघ्र ही उन्हें एक ब्रिटिश विज्ञापन एजेंसी ‘डी .जे. केमर एंड कंपनी’ में वाणिज्यिक कलाकार (कमर्शियल आर्टिस्ट) के रूप में रोज़गार मिल गया जहाँ काम करते हुए उन्होंने पुस्तकों के आवरण पृष्ठों की साज सज्जा (डिजाइनिंग) और रेखांकन कार्य पर्याप्त मात्रा में किया। यह काम उन्होंने भारतीय पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में नए मानक स्थापित करने वाले अग्रणी प्रकाशन संस्थान ‘साइनेट प्रेस’ के लिए किया। जिन पुस्तकों का उन्होंने रेखांकन किया उनमें से एक ‘विभूति भूषण बंद्योपाध्याय’ की पाथेर पांचाली का संक्षिप्त संस्करण भी था।

सिनेमा में रुचि और प्रशिक्षण
इस समय तक, फ़िल्मों में उनकी रुचि पर्याप्त रूप से उजागर हो चुकी थी। सन् 1947 में उन्होंने अन्य लोगों के साथ ‘कलकत्ता फ़िल्म सोसायटी’ की स्थापना की और भारतीय सिनेमा की समस्याओं तथा सिनेमा किस तरह का चाहिए, विषय पर लेख लिखे। कलकत्ता फ़िल्म सोसायटी ने बड़ी संख्या में सिने प्रेमियों को जुटाया जिनमें से कुछ प्रमुख फ़िल्म निर्माता बने। राय की पहल ने न केवल उन्हें फ़िल्म शिक्षण प्रदान किया बल्कि अन्य को भी फ़िल्मी शिक्षा प्रदान की, क्योंकि कलकत्ता फ़िल्म सोसायटी ने विश्व सिनेमा की बहुत सी ऐसी प्रमुख कृतियों का प्रदर्शन किया जो इससे पूर्व भारत में कभी नहीं दिखाई गई थीं।

विदेश में प्रशिक्षण
सन 1950 में उनके नियोक्ताओं ने उन्हें अग्रिम प्रशिक्षण के लिए लंदन भेजा। यह उनकी लिंड्से एंडर्सन और गाविन लम्बर्ट से मित्रता हुई और उन्होंने अपने साढ़े चार माह के प्रवास के दौरान लगभग सौ फ़िल्में देखीं जिनमें बाइसिकिल थीवस तथा अन्य इतालवी नव-यथार्थवादी फ़िल्में शामिल थीं, जिन्होंने सत्यजित राय के ऊपर गहरा प्रभाव छोड़ा। जलयान द्वारा भारत वापस लौटते समय ही उन्होंने पाथेर पांचाली की पटकथा लिखना शुरू किया। सन् 1952 में भारत के पहले अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव का आयोजन हुआ जिसमें उन्होंने एक बार फिर इतालवी नव-यथार्थवादी फ़िल्मों से साक्षात्कार किया। साथ ही जापान सहित अन्य देशों की फ़िल्मों भी उन्होंने देखीं।

प्रारंभिक प्रशिक्षण हॉलीवुड फ़िल्मों से
सत्यजित राय का सिनेमा का प्रारंभिक प्रशिक्षण हॉलीवुड फ़िल्मों के अध्ययन के रूप में हुआ- वास्तव में आज़ादी से पूर्व वे ये ही फ़िल्में देख सकते थे। जैसा कि उन्होंने बार-बार कहा- उन्होंने फ़िल्म निर्माण मुख्यत: अमरीकी फ़िल्मों को बार-बार देखकर सीखा। तार्किक और (कम से कम सतह पर) यथार्थवादी वर्णन की हॉलीवुड शैली ने उनके ऊपर गहरा प्रभाव छोड़ा।

फ़िल्म कृतियों का सजीव वर्णन
अपनी कार्य यात्रा के अधोबिंदु तक पहुंचने से पूर्व सत्यजित राय ने नायक (1966) का निर्माण किया, इसकी कहानी स्वयं उन्होंने लिखी थी और इसमें नायक के रूप में बंगाल के प्रतिभाशाली सिने अभिनेता उत्तम कुमार को लिया गया था। कंचनजंघा की तरह वे एक बार फिर श्रेष्ठ सम्मिति पूर्ण कसे हुए और वर्गाकार ढांचे का निर्माण करते हैं। फ़िल्म का समूचा अभिनय नायक का अपनी एक भूमिका के लिए पुरस्कार लेने जाने की दिल्ली की एक रात की रेल यात्रा के दौराना घटित होता है। उत्तम कुमार जो समुचित बौद्धिकता, विनम्रता और लोकप्रियता वाले अभिनेता हैं, एक तरह से स्वयं अपने आपको ही अभिनीत कर रहे हैं। शर्मिला टैगोर जो बाद में अखिल भारतीय हिन्दी फ़िल्मों की एक बड़ी स्टार बनी, यहाँ एक पत्रकार की भूमिका में है जो उसी रेलगाड़ी में यात्रा कर रही है और फ़िल्म अभिनेता का साक्षात्कार लेती है।

अपराजितो (1956)
अपराजितो में अपनी पूर्ववर्ती फ़िल्म के तात्विक गुण नहीं हैं, न इसकी संरचना इसे वैसी ही संतोषकारी पूर्ण कृति बना पाती है। यह फ़िल्म अपेक्षाकृत तीन भागों में बंट जाती है, संरचनात्मक रूप से अपराजितो मुख्यत: पाथेर पांचाली और ‘अपुर संसार’ के बीच पुल के रूप में अर्थपूर्ण है। स्वयं अपने आप में यह पर्याप्त संतुलित नहीं है, बनारस जीवंत हो उठता है अपनी दार्शनिक गहराई और भावनात्मक प्रत्यक्षता में अपराजितो राय की फ़िल्मों में असाधारण है, ख़ासतौर पर बनारस के दृश्यों में।

अपुर संसार (1959)
सत्यजित राय के संरचनात्मक दृढ़ता के गुण की ओर वापस मुड़ती है और अपराजितो की दृष्टिकोण की शुद्धता को जारी रखती है और उससे आगे भी पहुंचती हैं फ़िल्म एक ऐसे दृढ़ प्राकृतिक तर्क के साथ आगे बढ़ती है जो इसके काव्य को पूरी तरह औचित्यपूर्ण ठहराता है, स्वयं घटनाओं में से उभरता हुआ जैसा कि वह है न कि घटनाओं के ऊपर फ़िल्म निर्माता द्वारा थोपा हुआ।

जलसा घर (1958)
वास्तविक मार्मिकता का ख़ूबसूरत आह्वान। फ़िल्म दोनों ही काम करती है, उनकी क्षमताओं का विकास करती है और उन्हें उनकी पहली दो फ़िल्मों के नव यथार्थवादी दायरों से बाहर भी ले जाती है। जलसा घर यथार्थ परक मुख्यत: लोकेशन शॉट वाली तथा ग़ैर पेशेवरों द्वारा अभिनीत फ़िल्म है। जलसा घर में उन्होंने स्टूडियों के परिवेश को अधिक महत्त्व दिया और बंगाली सिनेमा की एक बड़ी हस्ती छवि विश्वास को निर्देशित किया। यहाँ वे विश्रांति और नव यथार्थवाद की मान्यताओं को छोड़कर वैयक्तिक चरित्र और परिस्थिति के प्रति उनके सम्मोहन के अधिक निकट आए। जलसा घर और पारस पत्थर दोनों में अपनी पहली दो फ़िल्मों के विपरीत सत्यजित राय अधिकाधिक संभावित भिन्न-भिन्न वस्तुओं को साधने की कोशिश करते हैं। वह निर्धनता के शोकाकुल नव यथार्थवादी इतिहासकार के रूप में स्वयं को रूढ़ करने से इंकार कर देते हैं। फिर भी जलसा घर उसी तरह से सामाजिक परिवर्तन की एक कहानी है जैसे कि त्रयी की पहली दो फ़िल्में हैं, और एक निर्धन व्यक्ति की तरह ही पारस पत्थर का क्लर्क भी हमारी सहानुभूति जीत लेता है।
देवी
फ़िल्म देवी ने रूढ़िवादियों में अपने प्रति कुछ विरोध पैदा किया और साथ ही उदारपंथियों को भी विचलित किया, पर यह फ़िल्म ‘प्रगति’ का पक्ष नहीं लेती। सन् 1960 का वर्ष रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म शताब्दी वर्ष था। सत्यजित राय ने इसको एक फ़ीचर फ़िल्म और एक दीर्घ वृत्तचित्र के साथ मनाया। यह उस व्यक्ति के पति एक श्रद्धांजलि थी जो भारतीयों, विशेष रूप से बंगालियों की कुछ पीढ़ियों का पथ-प्रदर्थक रहा था। बड़ी संख्या में लिखी गई टैगोर की कहानियों में से बहुत-सी कहानियां उत्कृष्ट शिल्पबद्ध हैं, फिर भी उनमें सहजता, मानवता है जो उन्हें एक विशाल पाठक वर्ग में लोकप्रिय बना देती है।

पोस्ट मास्टर
पोस्ट मास्टर में सत्यजित राय एक बार फिर अपने रूप में दिखाई देते हैं। चालीस मिनट की यह फ़िल्म अपने संक्षिप्त लेकिन कुशलता से शिल्पबद्ध किए गए अपने रूपाकार के भीतर मानवीय गरिमा से आप्लावित है।

कंचनजंघा (1962)
सत्यजित राय की पहली रंगीन फ़िल्म थी, जो उनकी अपनी कहानी पर आधारित थी और इस दृष्टि से भी पहली कि इसमें तत्कालीन समाज को साधा गया था। पारस पत्थर में कलकत्ता के जीवन की झलकियां हैं लेकिन यथार्थ और फैंटेसी का मिश्रण इसे किनारे कर देता है, और उसे तत्कालीन सामाजिक रीति-रीवाजों पर टिप्पणी के रूप में मुश्किल से ही व्याख्यायित किया जा सकता है। लेकिन पारस पत्थर के कुछ दृश्यों की तरह कंचनजंघा में भी समाज के विभिन्न वर्गों के बीच की, भले ही यह सौम्य क्यों न हो, टकराहट को उजागर किया गया है।

सम्मान एवं पुरस्कार

विश्व विख्यात निर्देशक सत्यजित राय ने सबसे ज़्यादा राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार जीते हैं। उन्होंने और उनके काम ने कुल 32 राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार प्राप्त किये। निम्नांकित सूची सत्यजित राय को मिले सम्मानों को प्रदर्शित करती है। इससे उनके विश्वव्यापी ख्याति, उनकी दृष्टि एवं उनके कार्यों का परिचय मिलता है।

सत्यजित राय को मिले राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार
वर्ष पुरस्कार फ़िल्म (बांग्ला)
1956 सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म पाथेर पांचाली
1959 द्वितीय सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म जलसाघर
1959 सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म (बांग्ला) जलसाघर
1960 सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म अपुर संसार
1962 सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म (बांग्ला) तीन कन्या
1963 सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म (बांग्ला) अभियान
1963 द्वितीय सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म अभियान
1965 सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म चारुलता
1967 सर्वश्रेष्ठ पटकथा नायक
1968 सर्वश्रेष्ठ निर्देशन चिड़ियाखाना
1969 सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म गुपी गाइन बाघा बाइन
1969 सर्वश्रेष्ठ निर्देशन गुपी गाइन बाघा बाइन
1970 सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म (बांग्ला) गुपी गाइन बाघा बाइन
1971 द्वितीय सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म प्रतिद्वंद्वी
1971 सर्वश्रेष्ठ निर्देशन प्रतिद्वंद्वी
1971 सर्वश्रेष्ठ पटकथा प्रतिद्वंद्वी
1971 सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म (बांग्ला) प्रतिद्वंद्वी
1972 सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म सीमाबद्ध
1973 सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशन अशनि संकेत
1974 सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म (बांग्ला) अशनि संकेत
1975 सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म (बांग्ला) सोनार केल्ला
1975 सर्वश्रेष्ठ निर्देशन सोनार केल्ला
1975 सर्वश्रेष्ठ पटकथा सोनार केल्ला
1976 सर्वश्रेष्ठ निर्देशन जन अरण्य
1981 सर्वश्रेष्ठ गीतकार हीरक राजार देश
1982 विशेष जूरी पुरस्कार सदगति (हिन्दी)
1985 सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म (बांग्ला) घरे बाइरे
1990 सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म (बांग्ला) गणशत्रु
1992 सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म आगन्तुक
1992 सर्वश्रेष्ठ निर्देशन आगन्तुक
1994 सर्वश्रेष्ठ पटकथा उत्तोरण
सत्यजित राय को मिले सम्मान, उपाधि एवं पुरस्कार
वर्ष सम्मान एवं पुरस्कार संस्थान
1958 पद्म श्री भारत सरकार
1965 पद्म भूषण भारत सरकार
1967 रमन मैगसेसे पुरस्कार रमन मैगसेसे पुरस्कार फाउंडेशन
1971 स्टार ऑफ यूगोस्लाविया यूगोस्लाविया सरकार
1973 डॉक्टर ऑफ लैटर्स दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
1974 डी. लिट. रॉयल कॉलेज ऑफ आर्टस, लंदन
1976 पद्म विभूषण भारत सरकार
1978 डी. लिट. ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय
1978 विशेष पुरस्कार बर्लिन फ़िल्म समारोह
1979 विशेष पुरस्कार मॉस्को फ़िल्म समारोह
1980 डी. लिट. बर्द्धमान विश्वविद्यालय, भारत
1980 डी. लिट. जादवपुर विश्व्विद्यालय, भारत
1981 डॉक्टरेट बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, भारत
1981 डी. लिट. उत्तरी बंगाल विश्वविद्यालय, भारत
1982 होमाज़ अ सत्यजित राय कान्स फ़िल्म समारोह
1982 विशेष गोल्डन लायन ऑफ सेंट मार्क वैनिस फ़िल्म समारोह
1982 विद्यासागर पुरस्कार पश्चिम बंगाल सरकार
1983 फ़ैलोशिप पुरस्कार ब्रिटिश फ़िल्म संस्था
1985 डी. लिट. कलकत्ता विश्वविद्यालय, भारत
1985 दादा साहेब फाल्के पुरस्कार भारत सरकार
1985 सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार सोवियत संघ
1986 फ़ैलोशिप पुरस्कार संगीत नाटक अकादमी, भारत
1987 डी. लिट. रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय, भारत
1992 ऑस्कर (लाइफ़ टाइम अचीवमेंट) मोशन पिक्चर आर्टस एवं विज्ञान अकादमी
1992 भारतरत्न भारत सरकार

 

फ़िल्म समीक्षकों की नज़रों से
सत्यजित राय की फ़िल्मों के आलोचकों की शिकायत रही कि वह मौजूदा समस्याओं से बचते हैं लेकिन ‘जन अरण्य’ इस लिहाज़ से महत्त्वपूर्ण फ़िल्म है जिसमें परीक्षा प्रणाली, मध्यम वर्ग की आकांक्षा, रोज़गार की समस्या का बेहतरीन चित्रण किया गया है। जन अरण्य की परंपरा में ही प्रतिद्वंद्वी या सीमाबद्ध को भी शामिल किया जा सकता है। राय की फ़िल्मों में स्त्री पात्रों की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है। उनकी कई महिला पात्र पढ़ी लिखी नहीं हैं लेकिन उनकी प्रतिक्रियाएं सच्ची हैं और उनमें प्रेम, घृणा आदि को लेकर स्पष्ट संवेदनशीलता हैं। समीक्षकों के अनुसार सत्यजित राय ने न केवल फ़िल्मों बल्कि रेखांकन के जरिए भी अपनी रचनात्मक ऊर्जा को बखूबी अभिव्यक्त किया। बच्चों की पत्रिकाओं और पुस्तकों के लिए बनाए गए सत्यजित राय के रेखाचित्रों को कला समीक्षक उत्कृष्ट कला की श्रेणी में रखते हैं। साहित्यकार सत्यजित राय की बाल मनोविज्ञान पर जबरदस्त पकड़ थी और इसका परिचय उनकी फेलूदा कहानियों की शृंखला में मिलता है। इस शृंखला की कहानियों में सरसता, रोचकता और पाठकों को बांधकर रखने के सारे तत्व मौजूद हैं।[2]

अंतिम चरण
घरे बाहरे (1984) के निर्माण के साथ सत्यजित राय की जो बीमारी शुरू हुई उससे वे पूर्ण रूप से कभी भी निजात नहीं पा सके और उनका स्वास्थ्य लगातार गिरता रहा। अपने पिता पर बनाए गए आधे घंटे की लघु फ़िल्म को छोड़ दें तो वे पूरे पांच साल तक फ़िल्म निर्माण से अलग रहे। गणशत्रु और उसके बाद की फ़िल्मों का निर्देशक डाक्टरों और नर्सों से घिरा रहता था, दरवाज़े पर एम्बुलेंस गहन चिकित्सा कक्ष के बतौर खड़ी रहती थी। ‘अब मेरा डाक्टर- मुझे फ़िल्म निर्माण की विधि बता रहा है और मुझे आदेश है कि मैं स्टूडियों के अंदर ही कार्य करूं।’ किंतु साथ में उनका यह भी कहना था कि कैमरे के पीछे आकर काम करना उन्हें प्रफुल्लित कर देता था। और दवाइयों से जितनी राहत मिली उससे कहीं अधिक राहत उन्हें कैमरे से मिली। वह हमारे बीच भले ही मौजूद नहीं हैं लेकिन उनकी दर्जनों फीचर फ़िल्मों, कई वृत चित्र और लघु फ़िल्में मौजूद हैं जिनसे उनकी उपस्थिति महसूस की जा सकती है।

 

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