Home Una Special मजदूरी करने आए थे बन गए समृद्ध किसान…

मजदूरी करने आए थे बन गए समृद्ध किसान…

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हिमाचल प्रदेश के ऊना जिले में जो नदी कभी अभिशाप मानी जाती थी, वह आज हरा सोना पैदा कर रही है। ऐसे समय में यहां हरी सब्जी का उत्पादन हो रहा है, जब गर्मी का सीजन चरम पर है। जिले में स्वां नदी के 24 किलोमीटर लंबे बहाव क्षेत्र में लगभग 5500 कनाल रेतीली भूमि पर वैज्ञानिक विधि से फल और सब्जी का उत्पादन किया जा रहा है। इतना ही नहीं स्वां नदी, इस बार लॉकडाउन में भी हजारों परिवारों को आत्मनिर्भर बनाने में सहायक साबित हुई है। उत्तर प्रदेश और बिहार से संबंध रखने वाले करीब ढाई हजार परिवारों को यहां लगातार रोजगार मिलता रहा है।

ये परिवार हिमाचल में मेहतन मजदूरी करने आए थे, लेकिन यहां इन्होंने खेतीबाड़ी को अपना व्यवसाय चुन लिया। आज ये लोग समृद्ध किसान बन गए हैं। कई लोगों ने अपने ट्रैक्टर व अन्य मशीनरी खरीद ली है तो नलकूप भी लगवा लिए हैं। इनकी मेहनत देखकर स्थानीय लोगों ने भी सब्जी उत्पादन में रुचि दिखाना शुरू कर दिया है।

 इस नदी में फल और सब्जी की पैदावार को जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़ और हिमाचल प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में पहुंचाया जा रहा है। टकारला से पंजाब और हिमाचल के बाथड़ी बाॅर्डर तक करीब 24 किलोमीटर लंबे स्वां नदी के बहाव क्षेत्र में बेमौसमी सब्जी का उत्पादन करने वाले राई परिवार अपने उत्पादन को लाेकल मंडियों में तो पहुंचाते हैं, लेकिन डिमांड के मुताबिक वे बाहरी राज्यों को भी सप्लाई करने में लगे हैं। बाहरी राज्यों के कुछ व्यापारी लगातार उनसे संपर्क में रहते हैं।
स्वां नदी में बरसात के बाद अक्टूबर महीने में उत्तर प्रदेश और बिहार के राई परिवारों की ओर से फल और सब्जियों के उत्पादन की तैयारी शुरू कर दी जाती है। इसमें ये परिवार रेतीली भूमि को समतल करके उसमें चार फीट की गहरी खाइयां निकालते हैं। इसमें सरकंडे के घास से इन सब्जियों की पौध को बचाया जाता है। इन दिनों नदी में बहुत कम जलस्तर होता है और उसके आधार पर ही पौध लगाई जाती है। बेलदार सब्जियों के लिए सरकंडे के घास की दीवारें बनाई जाती हैं और धूप का प्रभाव उनपर कम हो, इसके लिए दो-दो फीट की दूरी पर घास की दीवारें लगाई जाती हैं।
ऊना की स्वां नदी में मुख्य तौर पर ये परिवार बेमौसमी घीया, कद्दू, करेला, टिंडा, शिमला मिर्च, बैंगन, टमाटर, खीरा, तर, तरबूज व खरबूजा का उत्पादन कर रहे हैं। दिसंबर और जनवरी महीने में लगाई जाने वाली पौध मार्च के अंत और अप्रैल के शुरू में उत्पादन देना शुरू कर देती हैं। रोजाना करीब सौ टन बेमौसमी हरी सब्जी का उत्पादन किया जाता है।
अक्सर दिसंबर के बाद मौसम खराब होने का भय राई परिवारों को सताता है। ऐसे भी बीच में कई अवसर आए जब तेज आंधी और बारिश के कारण उन्हें लाखों रुपये का नुकसान भी उठाना पड़ा है। बारिश से रेत हरी सब्जी की बेलों को बर्बाद कर देती है और टमाटर की फसल धरती पर गिरने से बड़ा नुकसान उठाना पड़ता है। खीरा, तरबूज, खरबूजा और तर की फसल को सड़न रोग पैदा हो जाता है। इस खेती को सरकार की मान्यता न होने के कारण उसका बीमा भी नहीं होता, जिससे यह नुकसान स्वयं राई परिवारों को झेलना होता है।
राई परिवारों की चार से पांच पीढ़ियों के लाेग स्वां नदी के तट को ही अपनी कर्मभूमि बना चुके हैं। स्वां नदी के तटीकरण होने के बाद तो इन परिवारों की कई झुग्गी बस्तियां बन चुकी हैं। बकायदा सरकार की ओर से इन परिवारों के बच्चों को शिक्षित करने के लिए स्कूलों की व्यवस्था भी कर दी गई है। कई बच्चे यहां स्कूलों में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। करीब तीस से पैंतीस सालों से भी पहले कई परिवार यहां के होकर रह गए हैं। हालांकि अधिकांश परिवार उत्तर प्रदेश के बरेली और मुरादाबाद के अलावा बिहार के दरभंगा व अररिया आदि स्थानों से भी यहां इस काम को अपना चुके हैं। इन परिवारों की झुग्गी बस्तियों में पानी और बिजली की व्यवस्था नहीं है, लेकिन सोलर पैनल से लाइट और हैंडपंप से पानी की स्वयं से व्यवस्था कर ली गई है।
स्वां में बेमौसमी सब्जी उत्पादन से जुड़े कई ऐसे परिवार भी हैं, जिनकी यहां जिंदगी ही बदल गई है। करीब तीन दशक पहले एक जोड़ी कपड़े में पहुंचे इकबाल मियां कहते हैं कि शुरू में कुछ लोग यहां मजदूरी के लिए पहुंचे थे। स्वां नदी में बेकार पड़ी भूमि को देखा और सोचा कि यहां वे रेतीली भूमि पर होने वाली फल-सब्जी का उत्पादन कर सकते हैं। कुछ लोगों ने स्थानीय साहूकारों से स्वां की कुछ भूमि भाड़े पर लेकर उसमें यह प्रयोग शुरू कर दिया। शुरू में कम क्षेत्र में किया गया प्रयास सफल रहा और फिर झुग्गी बनाकर वहीं कई परिवार रहने लगे। धीरे-धीरे कई परिवार यहां इस काम में जुट गए। अब कई परिवारों की माली हालत भी अच्छी है और यहां ट्रैक्टर और मशीनरी अपनी है।
सब्जी उत्पादन के व्यवसाय से जुड़े बरेली के मियां सलीम का कहना हैै ऊना से बरेली के बीच 80 के दशक में रेल सेवा शुरू हुई थी। उस समय कुछ लोग बरेली से ऊना पहुंचे थे और उन्होंने ऊना की स्वां नदी में बेमौसमी सब्जी की संभावनाएं देखी थीं। उनमें खुद वे भी शामिल थे। रेत से भरी स्वां नदी की जमीन भाड़े पर लेकर यहां हरा सोना पैदा किया। बहुत कुछ इस नदी ने दिया। पहले यह बहुत बड़े क्षेत्र में फैली थी, लेकिन तटबांध लगने से इसका बहाव क्षेत्र सीमित हो गया है जिससे अब कृषि योग्य भूमि बढ़ गई है।
लेकिन सब्जी सब जगह पहुंचाने का प्रयास किया गया। अजहरुद्दीन का कहना है कि वे यहां स्नातक की पढ़ाई भी कर रहे हैं और माता-पिता का सब्जी उत्पादन के काम में हाथ भी बंटा रहे हैं। उनके साथ बाहरी राज्यों के कई लोगों के बच्चे पढ़ाई भी कर रहे हैं। बिहार के अररिया के राम किशन का कहना है कि वे स्वां नदी में सब्जी लगाकर खुद ही उसकी बिक्री सड़क के किनारे कर रहे हैं।
स्वां नदी में जनकौर गांव के समीप सब्जी उत्पादन कर रहे फुरकान अहमद का कहना है उन्होंने इस दफा 50 कनाल की जगह 80 कनाल भूमि पर सब्जी लगाई। पहले 10 कामगारों से काम चलाते थे, लेकिन इस साल 22 लोग उनके पास काम कर रहे हैं। ये जमीन स्वां नदी के भीतर अधिकांश स्थानीय लोगों की है जिसे हज़ार रुपये कनाल भाड़े पर लेते हैं। शुरू में 50 रुपये कनाल भाड़े में भी मिलती थी।

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