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JL-50 रिव्यू: टाइम ट्रैवल की शानदार उड़ान जो आखिर में ‘टर्बुलेंस’ में फंस गई!….

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जो वक्त बीत गया क्या उसे फिर से जिया जा सकता है? ये सवाल ऐसा है जिसकी तलाश हर वैज्ञानिक करने की सोचता है. वो असल में हो या फिर फिल्मों में. इसके लिए टाइम ट्रैवल की बात हमेशा होती है, जिसको लेकर हॉलीवुड में काफी फिल्में बनी हैं. भारत में जो भी बनी हैं, उन्हें या तो पुनर्जन्म का एंगल दे दिया गया या सही तरीके से दर्शाया नहीं गया. सोनी लिव पर आई नई वेबसीरीज़ JL-50 में अब इसी कोशिश को दोहराया गया है.

अभय देओल, पंकज कपूर, पीयूष मिश्रा, राजेश शर्मा, रितिका आनंद जैसे कलाकारों से भरपूर ये सीरीज़ हाल ही में रिलीज़ हुई है. सीरीज़ का पहला सीजन और सिर्फ चार एपिसोड एक टाइम ट्रैवल की कहानी को दर्शाते हैं. इस सीरीज़ को शैलेंद्र व्यास ने डायरेक्ट किया है और लिखी भी उन्होंने ही है.

सीरीज़ की कहानी क्या है?
वक्त है 2019 का जहां एक विमान क्रैश होता है, उसकी जांच सीबीआई को सौंपी जाती है. सीबीआई अफसर (अभय देओल, राजेश शर्मा) जब तलाश शुरू करते हैं, तो एक 35 साल पुराने विमान की बात आती है. क्रैश विमान की सारी बातें उसी ओर ध्यान दिलाती हैं, क्रैश में बचे एक वैज्ञानिक-पायलट (पीयूष मिश्रा, रितिका आनंद) भी 35 साल पुराने हैं. और इसी बीच एक कम्युनिस्ट प्रोफेसर (पंकज कपूर) सीबीआई अफसरों को टाइम ट्रैवल के जरिए 35 साल पीछे ले जाते हैं. चार एपिसोड के लिए इतनी ही कहानी काफी है.

अगर सीरीज़ में कलाकारी की बात करें तो पंकज कपूर और अभय देओल का काम शानदार रहा है. एक बंगाली उम्रदराज प्रोफेसर के किरदार को पंकज कपूर ने अपने ही अंदाज में निभाया है, बीच-बीच में उच्चारण कुछ अजीब लग सकता है लेकिन किरदार के हाव-भाव को छोटी गलतियों को दबा जाते हैं. साथ ही अभय देओल को जिस तरह के सीबीआई अफसर की तरह दिखाया गया, उसमें वह खरे उतरते हैं.

अगर पीयूष मिश्रा के किरदार की बात करें तो उनका किरदार एक सनकी वैज्ञानिक का है. पीयूष मिश्रा के हिसाब से ये कैरेक्टर उनके लिए सही है, लेकिन शायद ही अबतक इतना सनकी वैज्ञानिक दिखाया गया हो. पीयूष मिश्रा के हर अंदाज में वो सनकपन बहुत ही बेहतरीन तरीके से दिखा है. कहीं आपको ये काफी ज्यादा लग सकता है, लेकिन फिर ये भी दिखता है कि वैज्ञानिक को इसी तरह से दिखाया गया है.  हालांकि, पंकज कपूर के मुकाबले पीयूष मिश्रा को पर्दे पर दिखने का वक्त कम मिला है.

राजेश शर्मा हमेशा ही छोटे अंतराल में बड़ी छाप छोड़ते हैं, इस सीरीज़ में भी ऐसा ही हुआ. जहां सहयोगी कलाकार के रूप में उनका काम बेहतरीन रहा, तो वहीं चार एपिसोड में जो भी कॉमिक पंच आए वो उनके नाम ही रहे. रितिका आनंद का रोल छोटा जरूर है, लेकिन उनके कैरेक्टर में एक गंभीरता दिखाई गई है जो टाइम ट्रैवल के वक्त दिखती हैं.

सोनी लिव पर आने वाली सीरीज़ या फिल्म पर अभी नेटफ्लिक्स या प्राइम जैसा फोकस और दबाव नहीं होता है. ऐसे में अगर कोई इसे देखेगा तो उसे उम्मीद से बढ़कर ही मिलेगा. सीरीज़ के लेखक-डायरेक्टर शैलेंद्र व्यास ने कहानी को बहुत अच्छी तरीके से पिरोया है, टाइम ट्रैवल जैसा सब्जेक्ट को हमेशा हिन्दी सिनेमा में फंसता हुआ दिखता है. उसे आसानी से पर्दे पर उतारने की कोशिश की. कास्टिंग भी फिल्म के हिसाब से सही फिट बैठी.

अगर सीरीज़ में खामियों की बात करें तो पहला तो ये ही कि सिर्फ चार एपिसोड की सीरीज़ है, जो वेब सीरीज़ की उम्मीदों के हिसाब से छोटी है. दूसरा जब फिल्म टाइम ट्रैवल के बाद 1984 में जाती है तो कहानी कुछ पल के लिए उलझती है, साथ ही कई ऐसी छोटी-छोटी गलतियां हैं जो शायद आम दर्शक ना नोटिस करे लेकिन ज्यादा ध्यान लगाने पर दिखती हैं. अगर कैरेक्टर पर काम की बात करें तो अबतक शायद ही किसी सीबीआई अफसर को पर्दे पर इतना कमजोर दिखाया गया हो, जो गोली चलाने में भी घबराता हो.

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