संन्यास के सही मायने समझ जाएं, तो परमपिता से मिलना भी कठिन न रहेगा। जैसे कमल अपने मूल से जुड़ा रहकर भी उससे अलिप्त रहता है, वैसे ही है संन्यासी। महावीर कहते हैं,‘जैसे कमल शरद काल के निर्मल जल को भी नहीं छूता…। बड़ी मजे की बात कही है। यह पुष्प गंदे जल को तो छूता ही नहीं… निर्मल जल को भी नहीं छूता। जिसको छूने में कोई हर्ज भी न होगा, लाभ भी शायद हो जाए, उसको भी नहीं छूता। छूता ही नहीं। लाभ-हानि का सवाल नहीं है। गंदे और पवित्र का भी सवाल नहीं है। छूना ही छोड़ दिया है। पाप को तो छूता ही नहीं, पुण्य को भी नहीं छूता है। जैसे कमल अलिप्त रहता है, वैसे ही संसार से अपनी समस्त आसक्तियां मिटा कर सब प्रकार के स्नेह-बंधनों से रहित हो जा गौतम!
वह गौतम को कह रहे हैं कि ऐसा ही तू भी हो जा। जहां-जहां हमारा स्नेह है, वहां-वहां स्पर्श है, स्नेह हमारे छूने का ढंग है। जब आप स्नेह से किसी को देखते हैं, छू लिया, चाहे कितने ही दूर हों। एक आदमी क्रोध से आकर छुरा मार दे आपको, तो भी छूता नहीं है। छुरा आपकी छाती में चला जाए, लहूलुहान हो जाए सब, तो भी आपको छूता नहीं है। दूर है बहुत। और एक आदमी हजारों मील दूर हो और आपकी याद आ जाए स्नेह-सिक्त, तो छू लेता है। पर संन्यासी का अर्थ है कमलवत। कमल के पत्ते पर बूंद गिरती है पानी की, पड़ी रहती है, मोती की तरह चमकती है।
जैसी पानी में भी कभी नहीं चमकी थी, वैसी कमल के पत्ते पर चमकती है। मोती हो जाती है। जब सूरज की किरण पड़ती, तो कोई मोती भी क्या फीका हो जाए, वैसी कमल के पत्ते पर बूंद चमकती है। लेकिन पत्ते को कहीं छूती नहीं, पत्ता अलिप्त ही बना रहता है। ऐसी चमकदार बूंद, ऐसा मोती जैसा अस्तित्व उसका, और पत्ता अलिप्त बना रहता है। भागता भी नहीं छोड़ कर पानी को, पानी में ही रहता है। पानी में ही उठता है, पानी के ही ऊपर जाता है और कभी छूता नहीं, अछूता बना रहता है। एक यह अलिप्तता का जो भाव है, यह संसार के बीच संन्यास का अर्थ है। इसलिए कमल इसका प्रतीक हो गया।
पर कमल एक और कारण से भी प्रतीक है। मिट्टी से पैदा होता है, फिर ऊपर उठ जाता है और कमल हो जाता है। कमल में और कीचड़ में कितना फासला है, जितना फासला हो सकता है दो चीजों में। कहां कमल का निर्दोष अस्तित्व! कहां कमल का सौंदर्य! और कहां कीचड़! इस कारण से भी कमल की बड़ी चर्चा जारी रही सदियों-सदियों तक। आदमी संसार में पैदा होता है कीचड़ में, पर कमल हो सकता है। इसी संसार में ही पैदा होना पड़ता है। चाहे महावीर हों, चाहे बुद्ध हों, संसार में ही पैदा होते हैं। चाहे आप हों, चाहे कोई हो… सभी को यहीं पैदा होना पड़ता है। थोड़े से लोग इस संसार के पार जाते हैं और कमल हो जाते हैं। वे ही लोग इस कीचड़ के पार जाते हैं, जो अलिप्तता को साध लेते हैं।
लिप्तता ही संसार के पार जाने की पगडंडी है। उससे ही वे दूर हो पाते हैं। विकार नीचे रह जाते हैं, कमल ऊपर आ जाता है। जिस दिन कमल ऊपर आ जाता है, कमल को देख कर कीचड़ की याद भी नहीं आती। इसलिए बड़ी अद्भुत घटनाएं घटीं। जब तक कमल कीचड़ को छूने को आतुर है, तब तक दूर कैसे जाएगा, उठेगा दलदल से पार कैसे? जब तक कमल खुद ही छूने को आतुर है, तब तक मुक्त कैसे होगा। जहां दूसरे पर ध्यान जाता है, वहां हम लिप्त हो जाते हैं। आपका ध्यान भागता रहता है चारों तरफ। आप अपने मन की खोज करेंगे, तो पाएंगे कि कहां-कहां आप लिप्त हो जाना चाहते हैं, कहां-कहां आप छू लेना चाहते हैं।
यह जो भागता हुआ, चारों तरफ बहता हुआ मन है। इसके लिप्त होने की मांग फैलती चली जाती है… लोग हों, धन हो या मकान हो…वह फैलती चली जाती है। महावीर कहते हैं,‘अलिप्त हो जा, समस्त आसक्तियां मिटा कर, सब तरफ से अपने स्नेह-बंधन को तोड़ ले।’ यह कैसे कटेगा? तो महावीर कहते हैं, ‘गौतम! क्षण मात्र भी प्रमाद मत कर।’
प्रमाद का अर्थ है बेहोशी। प्रमाद का अर्थ है गैर। ध्यानपूर्वक जीना, प्रमत्त, मूच्र्छा में। होशपूर्वक जो व्यक्ति जीएगा, वह कोई स्नेह के बंधन निर्मित नहीं करेगा। इसका यह मतलब नहीं है कि वह पत्थर हो जाएगा, और उसमें प्रेम भाव नहीं होगा। सच तो यह है कि उसी में प्रेम
होगा, पर उसका प्रेम अलिप्त होगा। यह कठिनतम घटना है जगत में, प्रेम का और अलिप्त होना!
महावीर जब गौतम को यह कह रहे हैं, तो यह बड़ा प्रेमपूर्ण वक्तव्य है कि गौतम, तू ऐसा कर कि मुक्त हो जा। तू ऐसा कर गौतम कि तू पार हो जाए। इसमें प्रेम तो भारी है, लेकिन स्नेह जरा भी नहीं है, मोह जरा भी नहीं है। अगर गौतम मुक्त नहीं हों, तो यह कोई महावीर की चिंता नहीं बन जाएगी। अगर गौतम महावीर की नहीं सुनें, तो इसमें महावीर कोई परेशान नहीं हो जाएंगे। यही अलिप्तता है और यही भव सागर पार ले जाती है।
सौजन्य:ओशोधारा
चाहे महावीर हों, चाहे बुद्ध हों, संसार में ही पैदा होते हैं। चाहे आप हों, चाहे कोई हो… सभी को यहीं पैदा होना पड़ता है। थोड़े से लोग इस संसार के पार जाते हैं और कमल हो जाते हैं। वे ही इस कीचड़ के पार जाते हैं, जो अलिप्तता को साध लेते हैं।